सह्व यानी भूलना और सजदा -ए- सह्व यानी भूल का सजदा जो आखिर में एक तरफ़ सलाम फेर कर दो सजदे किये जाते हैं।
ये नमाज़ में हुई भूल की तलाफी के लिये होते हैं।
ये कब कब किया जा सकता है, इस के मुतल्लिक़ जानना ज़रूरी है। ऐसा नहीं कि कोई भी गलती हो और सजदा -ए- सह्व से काम चल जाये बल्कि इस का मौक़ा है। अगर नमाज़ के दरमियान वुज़ू चला जाये तो सजदा -ए- सह्व करना काफी ना होगा क्योंकि इस का एक दायरा है और इसे जानना चाहिये।
वाजिबाते नमाज़ में जब कोई वाजिब भूले से रह जाये तो उस की तलाफी के लिये सजदा -ए- सह्व वाजिब है उस का तरीक़ा ये है कि अत्तहिय्यात के बाद दाहिनी तरफ़ सलाम फेर कर दो सजदे करे फिर तशह्हुद वग़ैरह पढ़ कर सलाम फेरे। अगर बग़ैर सलाम फेरे सजदे कर लिये काफी हैं मगर ऐसा करना मक़रूहे तंज़ीही है।
क़स्दन (जान बूझ कर) वाजिब तर्क किया तो सजदा -ए- सह्व से वो नुक़्सान दफ़अ ना होगा बल्कि इआदा वाजिब है। यूँ ही अगर सहवन वाजिब तर्क हुआ और सजदा -ए- सह्व ना किया जब भी इआदा वाजिब है।
कोई ऐसा वाजिब तर्क़ हुआ जो वाजिबाते नमाज़ से नहीं बल्कि उस का वजुब अम्रे खारिज से हो तो सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं मस्लन खिलाफे तरतीब क़ुरआन मजीद पढ़ना तर्के वाजिब है मगर मुवाफिके तरतीब पढ़ना वाजिबाते तिलावत से है मगर वाजिबाते नमाज़ से नहीं लिहाज़ा सजदा -ए- सह्व नहीं।
फ़र्ज़ तर्क हो जाने से नमाज़ जाती रहती है सजदा -ए- सह्व से उस की तलाफी नहीं हो सकती लिहाज़ा फिर पढ़े और सुनन व मुस्तहब्बात मस्लन तअव्वुज़, तस्मिया, सना, आमीन, तक्बीराते इन्तिक़ालात, तस्बीहात के तर्क से भी सजदा -ए- सह्व नहीं बल्कि नमाज़ हो गयी। मगर इआदा मुस्तहब है सहवन तर्क किया हो या क़स्दन।
सजदा -ए- सह्व उस वक़्त वाजिब है कि वक़्त में गुंजाइश हो और अगर ना हो मस्लन नमाज़े फ़ज्र में सह्व वाक़ेअ हुआ और पहला सलाम फेरा और सजदा अभी ना किया कि आफताब तुलूअ कर आया तो सजदा -ए- सह्व साकित हो गया। यूँ ही अगर क़ज़ा पढ़ता था और सजदा से पहले क़र्स आफताब ज़र्द हो गया सजदा साकित हो गया। जुम्आ या ईद का वक़्त जाता रहेगा जब भी यही हुक़्म है।
जो चीज़ मानेअ बना है, मस्लन कलाम वग़ैरह मनाफ़ी -ए- नमाज़, अगर सलाम के बाद पायी गयी तो अब सजदा -ए- सह्व नहीं हो सकता। सजदा -ए- सह्व का साकित होना अगर उस के फे'ल से है तो इआदा वाजिब है वरना नहीं। फर्ज़ व नफ़्ल दोनों का एक हुक़्म है यानी नवाफ़िल में भी वाजिब तर्क़ होने से सजदा -ए- सह्व वाजिब है।
नफ़ल की दो रकअतें पढ़ी और उन में सह्व हुआ फिर उसी पर बिना कर के दो रकअतें और पढ़ी तो सजदा -ए- सह्व करे और फ़र्ज़ में सह्व हुआ था और उस पर क़स्दन नफ़्ल की बिना की तो सजदा -ए- सह्व नही बल्कि फ़र्ज़ का इआदा करे और अगर उस फ़र्ज़ के साथ सहवन नफ़्ल मिलाया हो मस्लन चार रकअत पर क़ा'दा कर के खड़ा हो गया और पाँचवी का सजदा कर लिया तो एक रकअत और मिलाये कि ये दो नफ़्ल हो जायेंगी और उन में सजदा -ए- सह्व करे।
सजदा -ए- सह्व के बाद भी अत्तहिय्यात पढ़ना वाजिब है। अत्तहिय्यात पढ़ कर सलाम फेरे और बेहतर ये है कि दोनों क़ा'दा में दुरूद शरीफ़ भी पढ़े। और ये भी इख्तियार है की पहले क़ा'दा में अत्तहिय्यात व दुरूद पढ़े और दूसरे में सिर्फ़ अत्तहिय्यात।
सजदा -ए- सह्व से वो पहला क़ा'दा बातिल ना हुआ मगर फिर क़ा'दा करना वाजिब है और अगर नमाज़ का कोई सजदा बाक़ी रह गया था क़ा'दा के बाद उस को किया या सजदा -ए- तिलावत किया तो वो क़ा'द जाता रहा। अब फिर क़ा'दा फ़र्ज़ है कि बगैर क़ा'दा नमाज़ खत्म कर दी तो ना हुई और पहली सुरत में हो जायेगी मगर वाजिबुल इआदा।
एक नमाज़ में चंद वाजिब तर्क हुये तो वही दो सजदे सब के लिये काफ़ी हैं यानी एक ही नमाज़ में दो वाजिब भूल कर छोड़ दिये तो आखिर में वैसे ही सजदा -ए- सह्व करेंगे यानी एक तरफ़ सलाम फेर कर दो सजदे।
वाजिबाते नमाज़ का मुफ़स्सल बयान पेश्तर हो चुका है (नमाज़ के वाजिबात के तहत) मगर तफ़सीले अहकाम के लिये इआदा बेहतर, वाजिब की ताख़ीर यानी अदा करने में देर करना, रुक्न की तक़्दीम या ताख़ीर या उस को मुकर्रर करना यानी तकरार या वाजिब में तग़य्युर ये सब भी तर्के वाजिब हैं यानी वाजिब का तर्क लाज़िम आयेगा।
फ़र्ज़ की पहली दो रकअतों में और नफ़्ल व वित्र की किसी रकअत में सूरह अलहम्द की एक आयत भी रह गयी या सूरत या पेश्तर दो बार अलहम्द या सूरत मिलाना भूल गया या सूरत को फ़ातिहा पर मुक़द्दम किया या अलहम्द के बाद एक या दो छोटी आयतें पढ़ कर रुकूअ में चला गया फिर याद आया और लौटा और तीन आयतें पढ़ कर रुकूअ किया तो इन सब सूरतों में सजदा -ए- सह्व वाजिब है।
अल्हम्द के बाद सूरत पढ़ी उस के बाद फिर अल्हम्द पढ़ी तो सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं। यूँ ही फ़र्ज़ की पिछ्ली रकअतों में फातिहा की तकरार ( यानी दोबारा पढ़ने) से मुत्लक़न सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं और अगर पहली रकअतों में अल्हम्द का ज़्यादा हिस्सा पढ़ लिया था। फिर इआदा किया तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है।
अल्हम्द पढ़ना भूल गया और सूरत शुरुअ कर दी और बाक़द्रे एक आयत के पढ़ ली अब याद आया तो अल्हम्द पढ़ कर सूरत पढ़े और सजदा -ए- सह्व वाजिब है। यूँ ही अगर सूरत के पढ़ने के बाद या रुकूअ में या रुकूअ से खड़े होने के बाद याद आया तो फिर अल्हम्द पढ़ कर सूरत पढ़े और रुकूअ का इआदा करे और सजदा -ए- सह्व करे।
फ़र्ज़ की पिछ्ली रकअतों में सूरत मिलायी तो सजदा -ए- सह्व नहीं और क़स्दन मिलायी फिर भी हर्ज नहीं मगर इमाम को ना चाहिये यूँ ही अगर पिछ्ली में अल्हम्द ना पढ़ी जब भी सजदा -ए- सह्व नहीं और रुकुअ व सुजूद व क़ादा में क़ुरआन पढ़ा तो सजदा वाजिब हैं।
सजदा वाली आयत पढ़ी और सजदा करना भूल गया तो सजदा -ए- तिलावत अदा करे और सजदा -ए- सह्व करे। जो फेल नमाज़ में मुकर्रर हैं उन में तरतीब वाजिब है लिहाज़ा खिलाफे तरतीब फेल वाक़ेअ हो तो सजदा -ए- सह्व करे मस्लन क़िरअत से पहले रुकूअ कर दिया और रुकूअ के बाद क़िरअत ना की तो नमाज़ फासिद हो गयी कि फर्ज़ तर्क हो गया और अगर रुकूअ के बाद क़िरअत तो की मगर फिर रुकूअ ना किया तो फ़ासिद हो गयी कि क़िरअत की वजह से रुकूअ जाता रहा और अगर बा-क़द्रे फ़र्ज़ क़िरअत कर के रुकूअ किया मगर वाजिबे क़िरअत अदा ना हुआ मस्लन अल्हम्द ना पढ़ी या सूरत ना मिलायी तो हुक़्म यही है कि बलौटे और अल्हम्द व सूरत पढ़ कर रुकूअ करे और सजदा -ए- सह्व करे और अगर दोबारा रुकूअ ना किया तो नमाज़ जाती रही कि पहला रुकूअ जाता रहा था।
किसी रकअत का कोई सजदा रह गया आखिर में याद आया तो सजदा कर ले फिर अत्तहिय्यात पढ़ कर सजदा -ए- सह्व करे और सजदे के बाद पहले जो अफआल नमाज़ अदा किये बातिल ना होंगे, हाँ अगर क़ादा के बाद वो नमाज़ वाला सजदा किया तो सिर्फ़ वो क़ादा जाता रहा।
तअदीले अरक़ान (हर रुक़्न आराम से ठहर कर आराम से अदा करना यानी रुकूअ, सुजूद, क़ौमा और जलसा में कम अज़ कम एक बार "सुब्हान अल्लाह" कहने की मिक़्दार ठहरना) भूल गया सजदा -ए- सह्व वाजिब है।
फ़र्ज़ में क़ादा-ए- ऊला भूल गया तो जब तक सीधा खड़ा ना हुआ, लौट आये और सजदा -ए- सह्व नहीं और अगर सीधा खड़ा हो गया तो लौटे और आखिर में सजदा -ए- सह्व करे और अगर सीधा खड़ा हो कर लौटा तो सजदा -ए- सह्व करे और सहीह मज़हब में नमाज़ हो जायेगी मगर गुनाहगार हुआ लिहाज़ा हुक़्म है कि अगर लौटे तो फौरन खड़ा हो जाये।
अगर मुक़्तदी भूल कर खड़ा हो गया तो ज़रूरी है कि लौट के आये, ताकि इमाम की मुखालिफ़त ना हो। क़ादा -ए- आखिरा भूल गया तो जब तक उस रकअत का सजदा ना किया हो लौट आये और सजदा -ए- सह्व करे और अगर क़ादा -ए- आखिरा में बैठा था, मगर बाक़द्रे तशह्हुद ना हुआ था कि खड़ा हो गया तो लौट आये और वो जो पहले कुछ देर तक बैठा था महसूब होगा यानी लौटने के बाद जितनी देर तक बैठा ये और पहले का क़ादा दोनों मिल कर अगर बाक़द्रे तशह्हुद हो गये फ़र्ज़ अदा हो गया मगर सजदा -ए- सह्व उस सूरत में भी वाजिब है और अगर उस रकअत का सजदा कर लिया तो सजदे से सर उठाते ही वो फ़र्ज़ नफ़्ल हो गया लिहाज़ा अगर चाहे तो इलावा मगरिब के और नमाज़ों में एक रकअत और मिला ले कि शफ़अ पूरा हो जायेगा और ताक़ रकअत ना रहे अगर्चे वो नमाज़े फ़ज्र या अस्र हो मगरिब में और ना मिलाये कि चार पूरी हो गयीं।
नफ़्ल का हर क़ादा क़ादा -ए- आखिरा है यानी फ़र्ज़ है अगर क़ादा ना किया और भूल कर खड़ा हो गया तो जब तक उस रकअत का सजदा ना कर ले लौट आये और सजदा -ए- सह्व करे और वाजिब नमाज़ मस्लन वित्र फ़र्ज़ के हुक़्म में है, लिहाज़ा वित्र का क़ादा -ए- ऊला भूल जाये तो वही हुक़्म है जो फ़र्ज़ के क़ादा -ए- ऊला भूल जाने का है।
अगर बाक़द्रे तशह्हुद क़ादा -ए- आखिरा कर चुका है और खड़ा हो गया तो जब तक उस रकअत का सजदा ना किया हो लौट आये और सजदा -ए- सह्व कर के सलाम फेर दे और अगर क़ियाम ही की हालत में सलाम फेर दिया तो भी नमाज़ हो जायेगी मगर सुन्नत तर्क होगी और इस सूरत में अगर इमाम खड़ा हो गया तो मुक़्तदी उस का साथ ना दें बल्कि बैठे हुये इंतज़ार करें अगर लौट आया साथ हो लें और ना लौटा और सजदा कर लिया तो मुक़्तदी सलाम फेर दें और इमाम एक रकअत और मिलाये कि ये दो नफ़्ल हो जायें और सजदा -ए- सह्व कर के सलाम फेरें और ये दो रकअतें सुन्नते ज़ुहर या इशा के क़ाइम मक़ाम ना होगी और अगर इन दो रकअतों में किसी ने इमाम की इक़्तिदा की यानी अब शामिल हुआ तो ये मुक़्तदी भी 6 पढ़े और अगर उसने तोड़ दी तो दो रकअतों की क़ज़ा पढ़े और अगर इमाम चौथी पर ना बैठा था ये मुक़्तदी 6 रकअतों की क़ज़ा पढ़े। और अगर इमाम ने इन रकअतों को फ़ासिद कर दिया तो उस पर मुत्लक़न क़ज़ा नहीं।
चौथी पर क़ा'दा कर के खड़ा हो गया और किसी फ़र्ज़ पढ़ने वाले ने उसकी इक़्तिदा की तो इक़्तिदा सहीह नहीं अगर्चे लौट आया और क़ा'दा ना किया था तो जब तक पाँचवीं का सजदा ना किया इक़्तिदा कर सकता है कि अभी तक फ़र्ज़ ही में है। दो रकअत की निय्यत थी और उन में सह्व हुआ और दूसरी के क़ा'दा में सजदा -ए- सह्व कर लिया तो उस पर नफ़्ल की बना मक़रूहे तहरीमी है।
मुसाफिर ने सजदा -ए- सह्व के बाद इक़ामत की निय्यत की तो चार पढ़ना फ़र्ज़ है और आखिर में सजदा -ए- सह्व का इआदा करे। क़ादा -ए- ऊला में तश्हूद के बाद इतना पढ़ा اَللّٰھُمَّ صَلِّ عَلٰی مُحَمَّدٍ तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है उस वजह से नहीं कि दुरूद शरीफ़ पढ़ा बल्कि उस वजह से कि तीसरी के क़ियाम में ताखीर हुयी तो अगर इतनी देर तक सुक़ूत किया जब भी सजदा -ए- सह्व वाजिब है जैसे क़ा'दा व रुकूअ व सुजूद में क़ुरआन पढ़ने से सजदा-ए- सह्व वाजिब है, हालाँकि वो कलामे इलाही है। इमामे आज़म रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने नबी ﷺ को ख्वाब में देखा, हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया : "दुरूद पढ़ने वाले पर तुमने क्यूँ सजदा वाजिब बताया?" अर्ज़ की, इस लिये की उस ने भूल कर पढ़ा, हुज़ूर ﷺ ने तहसीन फरमायी।
किसी क़ा'दा में अगर तशह्हुद में से कुछ रह गया, सजदा -ए- सह्व वाजिब है, नमाज़े नफ़्ल हो या फ़र्ज़। पहली दो रकअतों के क़ियाम में अल्हम्द के बाद तशह्हुद पढ़ा सजदा -ए- सह्व वाजिब है और अल्हम्द से पहले पढ़ा तो नहीं। पिछ्ली रकअतों के क़ियाम में तशह्हुद पढ़ा तो सजदा वाजिब ना हुआ और अगर क़ा'दा -ए- ऊला में चंद बार तशह्हुद पढ़ा सजदा वाजिब हो गया। तशह्हुद पढ़ना भूल गया और सलाम फेर दिया फिर याद आया तो लौट आये तशह्हुद पढ़े और सजदा -ए- सह्व करे। यूँ ही अगर तशह्हुद की जगह अल्हम्द पढ़ी सजदा वाजिब हो गया।
रुकूअ की जगह सजदा किया या सजदा की जगह रुकूअ या किसी ऐसे रुक्न को दोबारा किया जो नमाज़ में मुकर्रर मसरू'अ ना था या किसी रुक़्न को मुक़द्दम या मुअख्खर किया तो इन सब सूरतों में सजदा -ए- सह्व वाजिब है। क़ुनूत या तक्बीरे क़ुनूत यानी किरअत के बाद क़ुनूत के लिये जो तक्बीर कही जाती है भूल गया सजदा -ए- सह्व करे। ईदैन की सब तक्बीरें या बा'ज़ भूल गया या ज़ाइद कहीं या गैर महल में कहीं (यानी जहाँ नहीं कहना था वहाँ पर कहीं) इन सब सूरतों में सजदा-ए- सह्व वाजिब है।
इमाम तक्बीराते ईदैन भूल गया और रुकूअ में चला गया तो लौट आये और मस्बूक़ रुकुअ में शामिल हुआ तो रुकूअ ही में तक्बीरें कह ले। ईदैन में दूसरी रकअत की तक्बीरे रुकूअ भूल गया तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है और पहली रकअत की तक्बीरे रुकूअ भूला तो नहीं। जुम्आ व ईदैन में सह्व वाक़ेअ हुआ और जमाअत कसीर हो तो बेहतर ये है कि सजदा -ए- सह्व ना करे यानी इमाम से कोई वाजिब तर्क हो गया और जमाअत में बहुत ज्यादा लोग हैं तो यहाँ सजदा -ए- सह्व को तर्क कर दे। इमाम ने जहरी नमाज़ में बा क़द्रे जवाज़े नमाज़ यानी एक आयत आहिस्ता पढ़ी या सिर्री में ज़ोर से तो सजदा-ए- सह्व वाजिब है और एक कलिमा आहिस्ता या ज़ोर से पढ़ा तो मुआफ़ है।
मुन्फरिद ने सिर्री नमाज़ में जहर से पढ़ा तो सजदा वाजिब है और जहरी में आहिस्ता तो वाजिब नहीं। सना व दुआ व तशह्हुद बुलंद आवाज़ से पढ़ा तो खिलाफ़े सुन्नत हुआ मगर सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं। किरअत वग़ैरह करते हुये किसी मौके पर सोचने लगा कि बाक़द्रे एक रुक्न यानी तीन बार सुब्हान अल्लाह कहने का वक़्फा हुआ सजदा -ए- सह्व वाजिब है। यानी किसी जगह रुक कर या सोचने लगा कि अब क्या करना है तो अगर तीन बार तस्बीह पढ़ने में जितनी देर लगती है उतनी देर रुका रहा तो अब सजदा -ए- सह्व वाजिब हो गया।
इमाम से सह्व हुआ और सजदा -ए- सह्व किया तो मुक़्तदी पर भी सजदा वाजिब है अगर्चे मुक़्तदी सह्व वाक़ेअ होने के बाद जमाअत में शामिल हुआ और अगर इमाम से सजदा साकित हो गया तो मुक़्तदी से भी साकित फिर अगर इमाम से साकित होना उस के किसी फेल के सबब हो तो मुक़्तदी पर भी नमाज़ का ईआदा वाजिब वरना मुआफ़।
अगर मुक़्तदी से इक़्तिदा की हालत में सह्व वाक़ेअ हुआ तो सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं। मस्बूक़ इमाम के साथ सजदा -ए- सह्व करे अगर्चे उसके शरीक होने से पहले सह्व हुआ हो और अगर इमाम के साथ सजदा ना किया और जो बाक़ी हैं उन्हें पढ़ने खड़ा हो गया तो आखिर में सजदा -ए- सह्व करे और अगर उस मस्बूक़ से अपनी नमाज़ में भी सह्व हुआ तो आखिर के यही सजदे उस सह्व इमाम के लिये भी काफी हैं।
मस्बूक़ ने अपनी नमाज़ बचाने के लिये इमाम के साथ सजदा -ए- सह्व ना किया यानी जानता है कि अगर सजदा करेगा तो नमाज़ जाती रहेगी मस्लन नमाज़े फज़्र में आफताब तुलूअ हो जायेगा या जुम्आ में वक़्ते अस्र आ जायेगा या मा'ज़ूर है और वक़्त खत्म हो जायेगा या मोज़ा पर मसह की मुद्दत गुज़र जायेगी तो इन सूरतों में इमाम के साथ सजदा ना करने में कराहत नहीं। बल्कि बाक़द्रे तश्ह्हुद बैठने के बाद खड़ा हो जाये।
मस्बूक़ ने इमाम के सह्व में इमाम के साथ सजदा -ए- सह्व किया फिर जब अपनी पढ़ने खड़ा हुआ और और उस में भी सह्व हुआ तो उस में भी सजदा -ए- सह्व करे। मस्बूक़ को इमाम के साथ सलाम फेरना जाइज़ नहीं अगर क़स्दन फेरेगा नमाज़ जाती रहेगी और अगर सहवन फेरा और सलाम इमाम के साथ में बिना वक़्फा था तो उस पर सजदा -ए- सह्व नहीं और अगर सलाम इमाम के कुछ भी बाद फेरा (यानी इमाम के सलाम फेरने के बाद थोड़ी देर बाद फेरा) तो खड़ा हो जाये अपनी नमाज़ पूरी करके सजदा -ए- सह्व करे।
इमाम के एक सजदा करने के बाद शरीक हुआ तो दूसरा सजदा इमाम के साथ करे और पहले की क़ज़ा नहीं और अगर दोनों सजदों के बाद शरीक हुआ तो इमाम के सह्व का इस के ज़िम्मे कोई सजदा नहीं।
इमाम ने सलाम फेर दिया और मस्बूक़ अपनी पूरी करने खड़ा हुआ अब इमाम ने सजदा -ए- सह्व किया तो जब तक मस्बूक़ ने उस रकअत का सजदा ना किया हो लौट आये और इमाम के साथ सजदा करे जब इमाम सलाम फेरे तो अब अपनी पढ़े और पहले जो क़ियाम व किरअत व रुकूअ कर चुका है उसका शुमार ना होगा बल्कि अब फिर से वो अफआल करे और अगर ना लौटा और अपनी पढ़ ली तो आखिर में सजदा -ए- सह्व करे और अगर उस रकअत का सजदा कर चुका है तो ना लौटे, लौटेगा तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।
इमाम के सह्व से लाहिक़ (यानी जिस ने इमाम के साथ पहली रकअत में इक़्तिदा की पर उस के बाद पूरी या कुछ रकअतें फौत हो गयीं, छुट गयीं, ऐसे शख्स) पर भी सजदा -ए- सह्व वाजिब है मगर लाहिक़ अपनी आखिर नमाज़ में सजदा -ए- सह्व करेगा और इमाम के साथ अगर सजदा किया तो आखिर में इआदा करे।
अगर तीन रकअत में मस्बूक़ हुआ और एक रकअत में लाहिक़ तो एक रकअत बिला कराअत पढ़ कर बैठे और तशह्हूद पढ़ कर सजदा -ए- सह्व करे फिर एक रकअत भारी पढ़ कर बैठे कि ये उस की दूसरी रकअत है फिर एक भारी और एक खाली पढ़ कर सलाम फेर दे और अगर एक में मस्बूक़ है और तीन में लाहिक़ तो तीन पढ़ कर सजदा -ए- सह्व करे फिर एक भारी पढ़ कर सजदा -ए- सह्व करे फिर एक भारी पढ़ कर सलाम फेर दे।
मुक़ीम ने मुसाफिर की इक़्तिदा की और इमाम से सह्व हुआ तो इमाम के साथ सजदा -ए- सह्व करे फिर अपनी दो पढ़े और उन में भी सह्व हुआ तो आखिर में भी सजदा -ए- सह्व करे।
इमाम से सलातुल खौफ़ में (जिस का बयान और तरीक़ा इन्शा अल्लाह त'आला मज़कूर होगा) सह्व हुआ तो इमाम के साथ दूसरा गिरोह सजदा -ए- सह्व करे और पहला गिरोह उस वक़्त करे जब अपनी नमाज़ खत्म कर चुके।
इमाम को हदस हुआ और पेश्तर सह्व भी वाक़ेअ हो चुका है और उस ने खलीफा बनाया तो खलीफा सजदा -ए- सह्व करे और अगर खलीफा को भी हालते खिलाफ़त में सह्व हुआ तो वही सजदे काफी हैं और अगर इमाम से तो सह्व ना हुआ मगर खलीफा से उस हालत में सह्व हुआ तो इमाम पर भी सजदा -ए- सह्व वाजिब है और अगर खलीफा का सह्व खिलाफ़त से पहले हुआ तो सजदा वाजिब नहीं ना उस पर ना इमाम पर।
जिस पर सजदा -ए- सह्व वाजिब है अगर सह्व होना याद ना था और ब-निय्यते क़तअ सलाम फेर दिया तो अभी नमाज़ से बाहर ना हुआ बशर्ते ये कि सजदा -ए- सह्व कर ले, लिहाज़ा कलाम या हदस या आमद, या मस्जिद से खुरूज या और कोई फेल मनाफी -ए- नमाज़ ना किया हो उसे हुक़्म है कि सजदा कर ले और अगर सलाम के बाद सजदा -ए- सह्व ना किया तो सलाम फेरने के वक़्त से नमाज़ से बाहर हो गया, लिहाज़ा सलाम फेरने के बाद अगर किसी ने इक़्तिदा की और इमाम ने सजदा -ए- सह्व कर लिया तो इक़्तिदा सहीह है और सजदा ना किया तो सहीह नहीं और अगर याद था कि सह्व हुआ है और ब-निय्यते क़तअ सलाम फेर दिया तो सलाम फेरते ही नमाज़ से बाहर हो गया और सजदा -ए- सह्व नहीं कर सकता, इआदा करे और अगर उस ने गलती से सजदा किया और उस में कोई शरीक हुआ तो इक़्तिदा सहीह नहीं।
सजदा -ए- तिलावत बाक़ी था या क़ा'दा -ए- आखिरा में तशह्हुद ना पढ़ा था मगर बा-क़द्रे तशह्हुद पढ़ चुका था और ये याद है कि सजदा -ए- तिलावत या तशह्हुद बाक़ी है मगर क़स्दन सलाम फेर दिया तो सजदा साकित हो गया और नमाज़ से बाहर हो गया, नमाज़ फासिद ना हुयी कि तमाम अराकान अदा कर चुका है मगर बा-वजहे तर्के वाजिब मकरूहे तहरीमी हुयी।
यूँही अगर उस के ज़िम्मे सजदा -ए- सह्व व सजदा -ए- तिलावत है और दोनों याद हैं या सिर्फ़ सजदा -ए- तिलावत याद है और क़स्दन सलाम फेर दिया तो दोनों साकित हो गये अगर सजदा -ए- नमाज़ व सजदा -ए- सह्व दोनों बाक़ी थे या सिर्फ़ सजदा -ए- नमाज़ रह गया था और सजदा -ए- नमाज़ याद होते हुये सलाम फेर दिया तो नमाज़ फासिद हो गयी और अगर सजदा -ए- नमाज़ व सजदा -ए- तिलावत बाक़ी थे और सलाम फेरते वक़्त दोनों याद था या एक जब भी नमाज़ फासिद हो गयी।
सजदा -ए- नमाज़ या सजदा -ए- तिलावत बाक़ी था या सजदा -ए- सह्व करना था और भूल कर सलाम फेरा तो जब तक मस्जिद से बाहर ना हुआ करले और मैदान में हो तो जब तक सफों से मुतजव्वज़ ना हुआ या आगे को सजदा की जगह से ना गुज़रा कर ले।
रुकुअ में याद आया कि नमाज़ का कोई सजदा रह गया है और वहीं से सजदा को चला गया या सजदा में याद आया और सर उठा कर वो सजदा कर लिया तो बेहतर ये है कि उस रुकुअ व सुजूद का इआदा करे और सजदा -ए- सह्व करे और अगर उस वक़्त ना किया बल्कि आखिर में नमाज़ में किया तो उस रुकुअ व सुजूद का इआदा नहीं सजदा -ए- सह्व करना होगा।
कोई ज़ुहर की नमाज़ पढ़ रहा था और ये ख्याल कर के कि चार पूरी हो गयीं दो रकअत पर सलाम फेर दिया तो चार पूरी कर ले और सजदा -ए- सह्व करे और अगर ये गुमान किया कि मुझ पर दो ही रकअतें हैं, मस्लन अपने को मुसाफिर तसव्वुर किया या ये गुमान हुआ कि नमाज़े जुम्आ है या नया मुसलमान है समझा कि ज़ुहर के फर्ज़ दो ही हैं या नमाज़े इशा को तरावीह तसव्वुर किया तो नमाज़ जाती रही। यूँ ही अगर कोई रुक्न फौत हो गया और याद होते हुये सलाम फेर दिया, तो नमाज़ गयी।
जिस को शुमारे रकअत में शक हो (कि कितनी रकअत पढ़ी हैं), मस्लन तीन हुयीं या चार और बुलूग के बाद ये पहला वाकिया है तो सलाम फेर कर या कोई अमल मनाफ़ी -ए- नमाज़ (ऐसा अमल जिस से नमाज़ फासिद हो जाती है) कर के तोड़ दे या गालिब गुमान कि बमोजिब पढ़े महज़ तोड़ने की निय्यत काफी नहीं और अगर ये शक पहली बार नहीं बल्कि पेश्तर भी हो चुका है तो अगर गालिब गुमान किसी तरफ़ हो तो उस पर अमल करे वरना कम की जानिब को इख्तियार करे यानी तीन और चार में शक हो तो तीन क़रार दे, दो और तीन में शक हो तो दो, व अला हाज़ल अल कियास और तीसरी-चौथी दोनों में क़ा'दा करे कि तीसरी रकअत का चौथी होना मुहतमिल है और चौथी में क़ादा के बाद सजदा -ए- सह्व कर के सलाम फेरे और गुमान गालिब की सूरत में सजदा -ए- सह्व नहीं मगर जबकि सोचने में बा-क़द्रे एक रुक्न के वक़्फा किया हो तो सजदा -ए- सह्व वाजिब हो गया।
नमाज़ पूरी करने के बाद शक हो तो उस का कुछ ऐतबार नहीं और अगर नमाज़ के बाद यक़ीन है कि कोई फ़र्ज़ रह गया मगर उस में शक है कि वो क्या है तो फिर से पढ़ना फ़र्ज़ है। ज़ुहर पढ़ने के बाद एक आदिल शख्स ने ख़बर दी कि तुम ने तीन रकअतें पढ़ी तो इआदा करे अगर्चे उस के ख्याल में ये खबर ग़लत हो और अगर कहने वाला आदिल ना हो तो उस की खबर का ऐतबार नहीं और अगर मुसल्ला को शक हो और दो आदिल ने खबर दी तो उन की खबर पर अमल करना ज़रूरी है।
अगर तादादे रकअत में शक ना हो मगर खुद उस नमाज़ की निस्बत शक है मस्लन ज़ुहर की दूसरी रकअत में शक है कि ये अस्र की नमाज़ पढ़ता हूँ और तीसरी में नफ़्ल का शुब्हा हुआ और चौथी में ज़ुहर का तो ज़ुहर ही है। तश्ह्हुद के बाद ये शक हुआ कि तीन हुयीं या चार और एक रुक़्न की क़द्र खामोश रहा और सोचता रहा, फिर यक़ीन हुआ कि चार हो गयीं तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है और अगर एक तरफ सलाम फेरने के बाद ऐसा हुआ तो कुछ नहीं और अगर उसे हदस हुआ और वुज़ू करने गया था कि शक वाक़ेअ हुआ और सोचने में वुज़ू से कुछ देर तक रुका रहा तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है।
ये शक वाक़ेअ हुआ कि उस वक़्त की नमाज़ पढ़ी या नहीं, अगर वक़्त बाक़ी है इआदा करे वरना नहीं। शक की सब सूरतों में सजदा -ए- सह्व वाजिब है और गलबा -ए- जन में नहीं मगर जब कि सोचने में एक रुक़्न का वक़्फ़ा हो गया तो वाजिब हो गया। बे-वुज़ू होने या मसह ना करने का यक़ीन हुआ और ऐसी हालत में एक रुक़्न अदा कर लिया तो सिरे से नमाज़ पढ़े अगर्चे फिर यक़ीन हुआ कि वुज़ू था और मसह किया था। नमाज़ में शक हुआ कि मुक़ीम है या मुसाफ़िर तो चार पढ़े और दूसरी के बाद क़ा'दा ज़रूरी है।
वित्र में शक हुआ कि दूसरी है या तीसरी तो उस में क़ुनूत पढ़ कर क़ा'दा के बाद एक रकअत और पढ़े और उस में भी क़ुनूत पढ़े और सजदा -ए- सह्व करे। इमाम नमाज़ पढ़ रहा है दूसरी में शक हुआ कि पहली है या दूसरी या चौथी और तीसरी में शक हुआ और मुक़्तदियों की तरफ़ नज़र की कि वो खड़े हों तो खड़ा हो जाऊं बैठें तो बैठ जाऊं तो उस में हर्ज नहीं और सजदा -ए- सह्व वाजिब ना हुआ।
ये सजदा -ए- सह्व के बारे में मसाइल बयान किये गये, अब मरीज़ की नमाज़ के मुताल्लिक़ मसाइल बयान किये जायेंगे। सजदा -ए- सह्व के जो मसाइल यहाँ समझ में नहीं आये या जो बयान ना हो सके तो मुतफर्रिक़ात के बयान में मज़ीद तफ़सील के साथ नक़्ल किये जायेंगे।