सजदा -ए- तिलावत का बयान | Sajda E Tilawat Ka Tarika


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सजदा -ए- तिलावत का बयान | Sajda E Tilawat Ka Tarika

सहीह मुस्लिम शरीफ़ में हज़रते अबू हुरैरा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से मरवी है कि नबी -ए- करीम ﷺ इरशाद फ़रमाते हैं कि जब इब्ने आदम आयते सजदा पढ़ कर सजदा करता है, शैतान हट जाता है और रो कर कहता है हाय हाय बरबादी मेरी! इब्ने आदम को सजदे का हुक्म हुआ उस ने सजदा किया, उस के लिये जन्नत है और मुझे हुक्म हुआ मैने इंकार किया, मेरे लिये दोज़ख़ है।

सजदा की 14 आयतें हैं क़ुरआने करीम में | Sajda Ki Kitni Ayat Hai?

  • پارہ 9، الاعراف:206
  • پارہ 13، الرعد:15
  • پارہ 14، النحل:49
  • پارہ 15، بنی اسرائیل:108، 109
  • پارہ 16، مریم:58
  • پارہ 17، الحج:18
  • پارہ 19، الفرقان:60
  • پارہ 19، النمل:25، 26
  • پارہ 21، السجدۃ:15
  • پارہ 23، ص24، 25
  • پارہ 24، حم السجدۃ:37، 38
  • پارہ 27، النجم:62
  • پارہ 30، الانشقاق:20، 21
  • پارہ 30، العلق:19

मस्अले:

आयते सजदा सुनने या पढ़ने से सजदा वाजिब हो जाता है। पढ़ने का मतलब ये कि इतनी आवाज़ होनी चाहिये कि अगर कोई उज़्र ना हो तो खुद सुन सके। सुनने वाले के लिये ये ज़रूरी नहीं कि जान बूझ कर ही सुनी हो बल्कि बिला क़स्द सुनने से भी सजदा वाजिब हो जाता है।

सजदा वाजिब होने के लिये पूरी आयत पढ़ना ज़रूरी नहीं बल्कि वो लफ्ज़ जिस में सजदा का मद्दा पाया जाता है और इस के पहले या बाद का कोई लफ्ज़ मिला कर पढ़ना काफ़ी है।

अगर इतनी आवाज़ से आयत पढ़ी कि सुन सकता था पर शोरो गुल या बहरे होने की वजह से ना सुनी तो भी सजदा वाजिब हो गया और अगर महज़ होंट हिले पर आवाज़ पैदा ना हुयी तो वाजिब नहीं।

क़ारी ने आयत पढ़ी मगर दूसरे ने ना सुनी तो अगर्चे उसी मजलिस में हो, उस पर सजदा वाजिब ना हुआ अलबत्ता नमाज़ में इमाम ने आयत पढ़ी तो मुक़्तदियों पर वाजिब हो गया, अगर्चे मुक़्तदी ने ना सुनी हो बल्कि अगर आयत पढ़ते वक़्त मौजूद भी ना था और बाद पढ़ने के सजदे से पहले शामिल हुआ और अगर इमाम से आयत सुनी मगर इमाम के सजदा करने के बाद उसी रकअत में शामिल हुआ तो इमाम का सजदा उसके लिये भी है और दूसरी रकअत में शामिल हुआ तो नमाज़ के बाद सजदा करे।

यूँ ही अगर जमाअत में शामिल ही ना हुआ जब भी सजदा करे। इमाम ने आयत पढ़ी और सजदा ना किया तो मुक़्तदी भी उसकी मुताबिअत में सजदा ना करेगा, अगर्चे आयत सुनी हो। मुक़्तदी ने अगर आयत पढ़ी ना इमाम पर सजदा वाजिब है ना खुद पर।

अगर मुक़्तदी ने आयते सजदा पढ़ी तो नमाज़ के बाद भी सजदा वाजिब नहीं अलबत्ता अगर किसी ऐसे शख्स ने सुन ली जो उस के साथ नमाज़ में शरीक ना था ख्वाह वो अकेला हो या दूसरे इमाम का मुक़्तदी या दूसरा इमाम तो उन पर सजदा बादे नमाज़ वाजिब है। यूँ ही उस पर वाजिब है जो नमाज़ में ना हो और आयत सुने।

जो शख्स नमाज़ में नहीं उसने आयते सजदा पढ़ी और नमाज़ी ने सुनी तो नमाज़ के बाद सजदा करे, नमाज़ में ना करे और नमाज़ ही में कर लिया तो काफी ना होगा, नमाज़ के बाद फिर करना होगा मगर नमाज़ इससे फ़ासिद नहीं होगी और अगर तिलावत करने वाले के साथ सजदा किया और इत्तिबा का क़स्द भी किया तो फ़ासिद हो जायेगी।

जो नमाज़ में नहीं था, आयते सजदा पढ़ कर नमाज़ में शामिल हो गया तो सजदा साक़ित हो गया। रुकूअ या सुजूद में आयते सजदा पढ़ी तो सजदा वाजिब हो गया और उसी रुकूअ या सुजूद से अदा भी हो गया और तशह्हूद में पढ़ी तो सजदा वाजिब हो गया, सजदा करे।

आयते सजदा पढ़ने वाले पर उस वक़्त सजदा वाजिब होता है कि वो जब नमाज़ का अहल हो यानी अदा या क़ज़ा का उसे हुक्म हो लिहाज़ा अगर काफ़िर या मज्नून या नाबालिग या हैज़ो निफास वाली औरत ने आयत पढ़ी तो उन पर सजदा वाजिब नहीं और मुसलमान आक़िल बालिग अहले नमाज़ ने उनसे सुनी तो उस पर वाजिब हो गया और जुनून अगर एक दिन रात से ज़्यादा ना हो तो मज्नून पर सुनने या पढ़ने से वाजिब है।

बे-वुज़ू या नापाक ने आयत पढ़ी या सुनी तो सजदा वाजिब है, नशा वाले ने आयत सुनी या पढ़ी तो सजदा वाजिब है। अगर सोते हुये सजदा वाली आयत पढ़ी और उठने पर किसी ने खबर दी तो सजदा करे। नशे वाले या सोने वाले शख्स से आयत सुनी तो सजदा वाजिब नहीं। औरत ने नमाज़ में आयते सजदा पढ़ी और सजदा न किया कि यहाँ तक हैज़ आ गया तो सजदा साकित हो गया।

नफ़्ल पढ़ने वाले ने आयत पढ़ी और सजदा भी कर लिया फिर नमाज़ फ़ासिद हो गयी तो उसकी क़ज़ा पढ़ते वक़्त सजदा को दोहराना ज़रूरी नहीं और नमाज़ में ना किया था तो नमाज़ के बाहर कर ले। फारसी या किसी और ज़ुबान में सजदे वाली आयत का तर्जुमा सुना या पढ़ा तो सजदा वाजिब हो गया।

आयते सजदा का तर्जुमा सुनने वाले ने समझा हो या ना नहीं कि आयते सजदा का तर्जुमा है तो भी सजदा वाजिब है अलबत्ता ये ज़रूर है कि उसे मालूम ना हो तो बता दिया गया हो कि आयते सजदा का तर्जुमा था और आयत पढ़ी गयी हो तो इसकी जरूरत नहीं कि सुनने वाले को बताया गया हो।

अगर कुछ लोगों ने एक एक हर्फ़ पढ़ा और वो सब मिला कर आयते सजदा हो गया तो किसी पर भी सजदा वाजिब नहीं यूँ ही आयत के हिज्जे करने से या उसे सुनने से सजदा वाजिब ना होगा। यूँ ही अगर परिंदे से आयते सजदा सुनी या पहाड़ वग़ैरह में किसी की आवाज़ की गूँज सुनी तो सजदा वाजिब नहीं। आयते सजदा पढ़ने के बाद म'आज़ अल्लाह मुर्तद हो गया और फिर मुसलमान हुआ तो वो सजदा वाजिब ना रहा। आयते सजदा लिखने या उसकी तरफ देखने से सजदा वाजिब नहीं होता।

सजदा -ए- तिलावत के लिये तहरीमा के सिवा तमाम वो शराइत हैं जो नमाज़ के लिये हैं मस्लन तहारत, किब्ला की तरफ़ मुँह, निय्यत, वक़्त यानी सजदा वाजिब होने के बाद और सित्रे औरत लिहाज़ा अगर पानी पर क़ादिर है तो तयम्मुम कर के सजदा करना जाइज़ नहीं। इस में निय्यत शर्त नहीं कि फुलां आयत का सजदा है बल्कि मुत्लक़न निय्यत काफी है कि आयत का सजदा है। जो चीज़ें नमाज़ को फ़ासिद करती हैं उनसे सजदा भी फ़ासिद हो जायेगा मस्लन नापाकी, कलाम करना और हँसना क़हक़हा लगा कर।

सजदा -ए- तिलावत का तरीका | Sajda E Tilavat Ka Tarika in Hindi

सजदे का मस्नून तरीक़ा ये है कि खड़ा हो कर अल्लाहु अकबर कहता हुआ सजदा में जाये और कम से कम तीन बार सुब्हान रब्बीयल आला कहे फ़िर अल्लाहु अकबर कहता हुआ खड़े हो जाये, पहले पिछले दोनों बार अल्लाहु अकबर कहना सुन्नत है और खड़े हो कर सजदे में जाना और सजदे के बाद खड़ा होना ये दोनों कियाम मुस्तहब हैं।

मुस्तहब ये है कि तिलावत करने वाला आगे और सजदा करने वाले उस के पीछे सफ़ बांध कर सजदा करें और ये भी मुस्तहब है कि सुनने वाले इस से पहले सर ना उठायें और अगर इसके ख़िलाफ़ किया मस्लन अपनी जगह पर सजदा किया अगर्चे तिलावत करने वाले के आगे या उस से पहले सजदा किया या सर उठा लिया या तिलावत करने वाले ने उस वक़्त सजदा ना किया और सुनने वालों ने कर लिया तो हर्ज नहीं और तिलावत करने वाले का सजदा फ़ासिद हो जाये तो उन के सजदों पर उस का कोई असर नहीं क्योंकि ये हक़ीक़तन इक़्तिदा नहीं है।

औरत ने अगर तिलावत की तो मर्दों की इमाम यानी सजदा में आगे हो सकती है और औरत मर्द के बराबर हो जाये तो फ़ासिद ना होगा। अगर सजदे से पहले या बाद में खड़ा ना हुआ या अल्लाहु अकबर ना कहा या "सुब्हान" ना पढ़ा तो हो जायेगा मगर तकबीर छोड़ना ना चाहिये कि ये सलफ़ के ख़िलाफ़ है।

अगर तन्हा सजदा करे तो सुन्नत ये है कि तकबीर इतनी आवाज़ से कहे कि खुद सुन ले और दूसरे लोग भी उसके साथ हों तो मुस्तहब ये है कि इतनी आवाज़ से कहे कि दूसरे भी सुनें।

ये जो कहा गया कि सजदा -ए- तिलावत में "सुब्हान रब्बीयल आला' पढ़े, ये फ़र्ज़ नमाज़ में है और नफ़्ल नमाज़ में सजदा किया तो चाहिये कि ये पढ़े या और दुआयें जो अहादीस में आयी हैं वो पढ़े मस्लन:سَجَدَ وَجْھِیَ لِلَّذِیْ خَلَقَہٗ وَصَوَّرَہٗ وَشَقَّ سَمْعَہٗ وَبَصَرَہٗ بِحَوْلِہٖ وَقُوَّتِہٖ فَتَبَارَکَ اللہ اَحْسَنُ الْخَالِقِیْنَ

फिर ये पढ़ें: اَللّٰھُمَّ اکْتُبْ لِیْ عِنْدَکَ بِھَا اَجْرًا وَّ ضَعْ عنَیِّ بِھَا وِزْرًا وَّاجْعَلْھَا لِیْ عِنْدَکَ زُخْرًا وَّ تَقَبَّلْھَا مِنِّیْ کَمَا تَقَبَّلْتَھَا مِنْ عَبْدِکَ دَاوٗدَ

फिर ये पढ़े: سُبْحٰنَ رَبِّنَا اِنْ کَانَ وَعْدُ رَبِّنَا لَمَفْعُوْلًا

नमाज़ के बाहर सजदा करे तो चाहे ये पढ़े या सहाबा व ताबईन से जो आसार मरवी हैं वो पढ़े मस्लन इब्ने उमर रदिअल्लाहु त'आला अन्हुमा से मरवी है, वो कहते थे:اَللّٰھُمَّ لَکَ سَجَدَ سَوَادِیْ رَبِّکَ اٰمَنَ فُؤَادِیْ اَللّٰھُمَّ ارْزُقْنِیْ عِلْمًا یَّنْفَعُنِیْ وَعَمَلًا یَّرْفَعُنِیْ

सजदा -ए- तिलावत के लिये अल्लाहु अकबर कहते वक़्त ना हाथ उठाना है और ना इस में तशह्हुद है ना सलाम।

आयते सजदा नमाज़ के बाहर पढ़ी तो फौरन सजदा कर लेना वाजिब नहीं, हाँ बेहतर है कि फौरन कर ले और वुज़ू हो तो ताखीर करना मकरूहे तंज़ीही। उस वक़्त अगर किसी वजह से सजदा ना कर सके तो तिलावत करने वाले और सुनने वाले को ये कह लेना मुस्तहब है।

سَمِعْنَا وَ اَطَعْنَا غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَ اِلَیْكَ الْمَصِیْرُ

सजदा -ए- तिलावत नमाज़ में फौरन करना वाजिब है, ताखीर करेगा गुनाहगार होगा

मस्अले | Sajda E Tilavat Ke Masail

नमाज़ में सजदा -ए- तिलावत करना भूल गया तो जब तक कोई ऐसा काम ना किया हो जिस से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है तो कर ले, अगर्चे सलाम फेर चुका हो फिर सजदा -ए- सह्व कर ले। ताखीर से मुराद तीन आयत दे ज़्यादा पढ़ लेना है, कम में ताखीर नहीं मगर आखिर सूरत में अगर सजदा वाकेअ है तो सूरत पूरी कर के सजदा करेगा जब भी हर्ज नहीं।

नमाज़ में आयते सजदा पढ़ी तो नमाज़ में ही सजदा वाजिब है, नमाज़ के बाहर नहीं हो सकता और जान बूझ कर नहीं किया तो गुनाहगार होगा तौबा करे बाशर्ते आयते सजदा के बाद फौरन रुकूअ व सजदा ना किया हो, नमाज़ में आयते सजदा पढ़ी और सजदा ना किया फिर वो नमाज़ फ़ासिद हो गयी या जान बूझ कर फ़ासिद की तो नमाज़ के बाहर सजदा कर ले और सजदा नमाज़ में कर लिया था तो अब हाजत नहीं।

अगर आयत पढ़ने के बाद फ़ौरन नमाज़ का सजदा कर लिया यानी आयते सजदा के बाद तीन आयत से ज़्यादा ना पढ़ा और रुकूअ कर के सजदा किया तो अगर्चे सजदा -ए- तिलावत की निय्यत ना हो पर सजदा अदा हो जायेगा।

नमाज़ का सजदा -ए- तिलावत, सजदे से भी अदा हो जाता है और रुकूअ से भी मगर रुकूअ से जब अदा होगा कि फौरन करे फौरन ना किया तो सजदा करना ज़रूरी है और जिस रुकूअ से सजदा -ए- तिलावत अदा किया ख़्वाह वो रुकूअ नमाज़ का रुकूअ हो या इस के अलावा, अगर नमाज़ का रुकूअ है तो सजदे की निय्यत कर ले और अगर खास सजदे के लिये ही ये रुकूअ किया तो इस रुकूअ से उठने के बाद मुस्तहब ये है कि दो तीन आयतें या ज़्यादा पढ़ कर नमाज़ का रुकूअ करे, फौरन ना करे और अगर आयते सजदा पर सूरत खत्म है और सजदे के लिये रुकूअ किया तो दूसरी सूरत की आयतें पढ़ कर रुकूअ करे।

आयते सजदा बीच सूरत में है तो अफ़ज़ल ये है कि उसे पढ़ कर सजदा करे फिर कुछ और आयतें पढ़ कर रुकूअ करे और अगर सजदा ना किया और रुकूअ कर लिया और उस रुकूअ में अदा -ए- सजदा की भी निय्यत कर ली तो काफी है और अगर ना सजदा किया ना रुकूअ बल्कि सूरत खत्म कर के रुकूअ किया तो अगर्चे निय्यत करे, ना काफी है और जब तक नमाज़ में है सजदा की क़ज़ा कर सकता है।

सजदा पर सूरत खत्म है और आयते सजदा पढ़ कर सजदा किया तो सजदा से उठने के बाद दूसरी सूरत की कुछ आयतें पढ़ कर रुकूअ करे और बग़ैर पढ़े रुकूअ कर दिया तो भी जाइज़ है। अगर आयते सजदा के बाद सूरत खत्म होने में दो तीन आयतें बाक़ी हैं तो चाहे फौरन रुकूअ कर दे या सूरत खत्म होने के बाद फौरन सजदा कर ले फिर बाक़ी आयतें पढ़ कर रुकूअ में जाये या सूरत खत्म कर के सजदे में जाये, जो चाहे कर सकता है मगर जब दूसरी सूरत (यानी सजदा करने) में सजदे से उठ कर कुछ आयतें दूसरी सूरत की पढ़ कर रुकूअ करें।

रुकूअ जाते वक़्त सजदा की निय्यत नहीं की बल्कि रुकूअ में या उठने के बाद की तो ये निय्यत काफी नहीं।

तिलावत के बाद इमाम रुकूअ में गया और आयते सजदा के सजदे की निय्यत कर ली और मुक़्तदियों ने ना की तो उनका सजदा अदा ना हुआ लिहाज़ा इमाम जब सलाम फेरे तो मुक़्तदी सजदा कर के क़ादा करें और सलाम फेरें और इस क़ादा में तशह्हुद वाजिब है और क़ादा ना किया तो नमाज़ फ़ासिद हो गयी कि क़ादा जाता रहा, ये हुक्म जहरी नमाज़ का है, सिर्री नमाज़ में चूँकि मुक़्तदी को इल्म नहीं लिहाज़ा माज़ूर है और अगर इमाम ने रुकूअ से सजदा -ए- तिलावत की निय्यत ना की तो उसी सजदा -ए- नमाज़ से मुक़्तदियों का भी सजदा -ए- तिलावत अदा हो गया अगर्चे निय्यत ना हो लिहाज़ा इमाम को चाहिये कि रुकूअ में सजदा की निय्यत ना करे कि मुक़्तदियों ने अगर निय्यत ना की तो उन का सजदा अदा ना होगा और रुकूअ के बाद जब इमाम सजदा करेगा तो उस से सजदा -ए- तिलावत बहर हाल अदा हो जायेगा, निय्यत करे या ना करे फिर निय्यत की क्या हाजत।

जहरी नमाज़ (जिन में बुलंद आवाज़ से किरअत वाजिब है) में इमाम ने आयते सजदा पढ़ी तो सजदा करना औला है और दूसरी में रुकूअ करना कि मुक़्तदियों को धोका ना लगे।

नमाज़ पढ़ने वाला सजदा -ए- तिलावत भूल गया तो रुकूअ या सजदा या क़ा'दा में याद आया तो उसी वक़्त कर ले फिर जिस रुक्न में था उस की तरफ लौट आये यानी रुकूअ में था तो सजदा कर के रुकूअ में वापस हो और अगर उस रुक्न को ना दोहराया जब भी नमाज़ हो गयी मगर आखिरी क़ा'दे को दोहराना फ़र्ज़ है कि सजदा से क़ा'दा बातिल हो जाता है।

एक मजलिस में सजदे की एक आयत को बार बार पढ़ा या सुना तो एक सजदा ही वाजिब होगा, अगर्चे चंद शख़्सों से सुना हो। यूँ ही अगर आयत पढ़ी और वही आयत दूसरे से सुनी भी जब भी एक ही सजदा वाजिब होगा। पढ़ने वाले ने कई मजलिसों में एक आयत बार-बार पढ़ी और सुनने वाले की मजलिस ना बदली तो पढ़ने वाला जितनी मजलिसों में पढ़ेगा उस पर उतने ही सजदे वाजिब होंगे और सुनने वाले पर एक और अगर इसका अक्स है यानी पढ़ने वाला एक मजलिस में बार बार पढ़ता रहा और सुनने वाले की मजलिस बदलती रही तो पढ़ने वाले पर एक सजदा वाजिब होगा और सुनने वाले पर उतने कि जितनी मजलिसों में सुना।

मजलिस में आयत पढ़ी या सुनी और सजदा कर लिया फिर उसी मजलिस में वही आयत पढ़ी या सुनी तो वही पहला सजदा काफी है। एक मजलिस में चंद बार आयत पढ़ी या सुनी और आखिर में इतनी ही बार सजदा करना चाहे तो ये भी ख़िलाफ़े मुस्तहब है बल्कि एक ही बार करे, बखिलाफ़ दुरूद शरीफ़ के, कि नामे अक़दस लिया या सुना तो एक बार दुरूद शरीफ़ वाजिब और हर बार मुस्तहब।

दो एक लुक़्मा खाने, दो एक घूँट पीने, खड़े हो जाने, दो एक कदम चलने, सलाम का जवाब देने, दो एक बात करने, मकान के एक गोशे से दूसरी तरफ चले जाने से मजलिस ना बदलेगी, हाँ अगर मकान बड़ा है जैसे शाही महल तो ऐसे मकान में एक गोशे से दूसरे में जाने से मजलिस बदल जायेगी।

कश्ती में है और कश्ती चल रही है, मजलिस ना बदलेगी। ट्रैन का भी यही हुक्म होना चाहिये जानवर पर सवार है और वो चल रहा है तो मजलिस बदल रही है हाँ अगर सवारी पर नमाज़ पढ़ रहा है तो ना बदलेगी। तीन लुक़्मे खाने, तीन घूँट पीने, तीन कलिमे बोलने, तीन क़दम मैदान में चलने, निकाह या खरीदो फ़रोख़्त करने, लेट कर सो जाने से मजलिस बदल जायेगी।

Kisi Majlis Mein Der Tak Baithna, Qira'at, Tasbeeho Tehleel, Dars Wa Waaz Mein Mashgool Hona Majlis Ko Nahin Badlega Aur Agar Dono Baar Padhne Ke Darmiyan Koi Dunya Ka Kaam Kiya Maslan Kapda Seena Waghaira To Majlis Badal Gayi

Aayat -e- Sajda Namaz Ke Baahar Tilawat Ki Aur Sajda Kar Ke Phir Namaz Shuru Ki Aur Namaz Mein Phir Wahi Aayat Padhi To Iske Liye Dobara Sajda Kare Aur Agar Pehle Na Kiya Tha To Yahi Uske Bhi Qaayim Maqaam Ho Gaya Basharteke Aayat Padhne Aur Namaz Ke Darmiyan Koi Ajnabi Fa'el Faasla Na Bana Ho Aur Agar Na Pehle Sajda Kiya Na Namaz Mein To Dono Saaqit Ho Gaye Aur Gunahgar Hua, Tauba Kare

Ek Rakat Mein Baar Baar Wahi Aayat Padhi To Ek Hi Sajda Kaafi Hai, Khwah Chand Baar Padh Kar Sajda Kiya Ya Ek Baar Padh Kar Sajda Kiya Phir Dobara Ya Usse Zyada Baar Aayat Padhi Yun Hi Ek Namaz Ki Sab Rakato Mein Ya Do Teen Mein Wahi Aayat Padhi To Sab Ke Liye Ek Sajda Kaafi Hai

नमाज़ में सजदे वाली आयत पढ़ी और सजदा कर लिया फिर सलाम फेरने के बाद उसी मजलिस में वो आयत दोबारा पढ़ी तो अगर कलाम ना किया था तो वही नमाज़ वाला सजदा काफी है और कलाम कर लिया था तो दोबारा सजदा करे और अगर नमाज़ में सजदा ना किया था फिर सलाम फेरने के बाद वही आयत पढ़ी तो एक सजदा करे, नमाज़ वाला साकित हो गया।

नमाज़ में सजदे वाली आयत पढ़ी और सजदा किया और सलाम फेरने के बाद बे वुज़ू हुआ और वुज़ू कर के बिना की (जोड़ दिया) फिर वही आयत पढ़ी तो दूसरा सजदा वाजिब ना हुआ और अगर बिना के बाद दूसरे से वही आयत सुनी तो दूसरा सजदा वाजिब है और ये दूसरा सजदा नमाज़ के बाद करे।

एक मजलिस में सजदे वाली चंद आयतें पढ़ी तो उतने ही सजदे करे, एक काफी नहीं। पूरी सूरत पढ़ना और सजदे वाली आयत छोड़ देना मकरूहे तहरीमी है और सिर्फ़ सजदे वाली आयत पढ़ने में कराहत नहीं मगर बेहतर ये है कि दो एक आयत पहले या बाद की मिला ले। सजदे की आयत पढ़ी गयी मगर काम में मशगूल होने के सबब ना सुनी तो सहीह ये है कि सजदा वाजिब नहीं, मगर बहुत से उलमा कहते हैं कि अगर्चे ना सुनी पर सजदा वाजिब हो गया।

फाइदा : जिस मक़्सद के लिये एक मजलिस में सजदा की सब आयतें पढ़ कर सजदे करे अल्लाह अज़्ज़वजल उस का मक़्सद पूरा फ़रमा देगा ख़्वाह एक एक आयत पढ़ कर उस का सजदा करता जाये या सब को पढ़ कर आखिर में 14 सजदा कर ले। ज़मीन पर आयते सजदा पढ़ी तो सवारी पर ये सजदा नहीं कर सकता मगर खौफ़ की हालत हो तो हो सकता है और सवारी पर आयत पढ़ी तो सफ़र की हालत में सवारी पर सजदा कर सकता है।

मर्ज़ की हालत में इशारे से भी सजदा अदा हो जायेगा। यूँ ही सफ़र में सवारी पर इशारे से हो जायेगा। जुम्आ, ईदैन और सिर्री नमाज़ों में और जिस नमाज़ में बड़ी जमाअत हो वहाँ इमाम को आयते सजदा पढ़ना मकरूह है। हाँ अगर आयत के बाद फ़ौरन रुकूअ व सुजूद कर दे और रुकूअ में सजदा -ए- तिलावत की निय्यत ना करे तो हर्ज नहीं।

मिम्बर पर आयते सजदा पढ़ी तो खुद उस पर और सुनने वालों पर सजदा वाजिब है और जिन्होंने ना सुनी उन पर नहीं। सजदा -ए- शुक्र मस्लन औलाद पैदा हुयी या माल पाया या गुमी हुयी चीज़ मिल गयी या मरीज़ ने शिफ़ा पायी या मुसाफ़िर वापस आया ग़र्ज़ किसी नैमत पर सजदा करना मुस्तहब है और इस का तरीक़ा वही है जो सजदा -ए- तिलावत का है। सजदा -ए- बे सबब जैसा अक्सर आवाम करते हैं ना सवाब है ना मकरूह।