इमामे अहले सुन्नत, मुजद्दिद मुहूद्दिस मुहक्किक, मुफ़्ती आलाहज़रत मौलाना अहमद रज़ा (रहमतुल्लाहि अलैह) की शानदार किताब "फ़तावा रज़विया" (नई वाली) के जिल्द 20 में पेज 233 से 241 तक का खुलासा है कि: "हलाल जानवर की सब चीजें खा सकते हैं, मगर 22 चीजें ऐसी हैं जिनको नहीं खाना चाहिये, इनमें से कुछ को खाना हराम और नाजाइज़ है, कुछ को खाना मकरूह (बुरा) और कुछ को खाना मना।"
और इसी "फ़्तावा रज़विया" के जिल्द 14 में पेज 708 और दूसरी जगह पर है कि: "आंतें और ओझड़ियां खाना नाजाइज़ है, ना किसी को दें ना गोश्त के साथ तक़सीम करें, बल्कि ज़मीन में दबा दे| आलाहज़रत का एक ज़बानी जवाब "अल मल्फूज़" में पेज 461 पर है कि: गुर्दे (Kidney) खाना जाइज़ है (खा सकते हैं) मगर अल्लाहके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खुद पसंद ना फ़रमाया, क्यूंकि पेशाब गुर्दों से होकर ही मसाने में जाता है।
समझदार क़साई लोग ना खाई जाने वाली कुछ चीज़ें निकाल दिया करते हैं, मगर कुछ के बारे में उनको भी मालूमात नहीं होती या ला परवाई से काम लेते हैं। इसलिये आजकल आम तौर पर जानकारी ना होने की वजह से जो चीज़ें पकाई खाई जाती हैं,
उनमें से कुछ की पहचान मैं (मुफ़्ती मुहम्मद शाहिद बरकाती) अर्ज़ करता हूं।
ज़िबह के वक़्त जो ख़ून निकलता है वोह नापाक होता है, उसका खाना पीना हराम है। ज़िबह के बाद जो ख़ून गोश्त में रह जाता है, जैसे कि गरदन के कटे हुवे हिस्से पर, दिल के अंदर, कलेजी और तिल्ली में, और गोश्त की छोटी छोटी नसों में, येह ख़ून नापाक तो नहीं, मगर इसका खाना भी मना है। इसलिये पकाने से पहले सफ़ाई कर लेना चाहिये। गोश्त में कई जगह छोटी छोटी नसों में ख़ून होता है उसकी देख भाल काफ़ी मुश्किल है, पकने के बाद वोह नसे काले डोरे की तरह हो जाती हैं, ख़ासकर सिरी, पाये और मुर्गी की रान, और बाज़ू के गोश्त में बारीक बारीक काली डोरियां देखने में आती हैं, खाते वक़्त उनको निकाल देना चाहिये। मुर्गी का दिल भी साबुत (पूरा का पूरा) ना पकाया करें, लम्बाई में चार चीरे करके उसका ख़ून अच्छी तरह पहले साफ़ कर लिया करें।
हराम मग़ज़ (रीढ़ की हडी का गूदा, Spinal Marrow) सफ़ेद डोरे की तरह होता है, जो भेजे से शुरू होकर गरदन के अंदर से लोग गरदन और रीढ़ की हड्डी के बीच से दो टुकड़े करके हराम मग़ज़ निकालकर फेंक देते हैं। मगर बहुत बार ला परवाई की वजह से थोड़ा बहुत रह जाता है, और सालन या बिरयानी वग़ैरह में पक भी जाता है। तो चाहिये कि गरदन, चांप और कमर का गोश्त धोते वक़्त हराम मग़ज़ तलाश करके निकाल दिया करें। येह मुर्गी और दुसरे परिंदों (पक्षियों) की रीढ़ की हड्डी में भी होता है, पकाने से पहले इसको निकालना बड़ा मुश्किल होता है, इसलिये खाते वक़्त निकाल देना चाहिये।
गरदन की मज़बूती के लिये उसकी दोनों तरफ़ पीले रंग के दो लम्बे लम्बे होते हैं, जो कंधों तक खिंचे होते हैं, इनका खाना मना है। गाये पुट्ठे और बकरी के तो आसानी से नज़र आ जाते हैं मगर मुर्गी और दुसरे परिंदों (पक्षियों) के पुट्ठे आसानी से नज़र नहीं आते, खाते वक़्त ढूंढकर या किसी जानने वाले से पूछकर निकाल दिया करें।
गरदन पर और हल्क़ में और कहीं कहीं चरबी वग़ैरह में छोटी बड़ी, कहीं लाल, कहीं मटियाले रंग की गोल गोल गठि होती हैं, इन्हें भी नहीं खाना चाहिये, पकाने से पहले ढूंढकर निकाल दिया करें। पके हुवे गोश्त में भी नज़र आ जायें तो निकाल दें।
कपूरे को उर्दू में ख़ुस्या, फ़ोता या बैज़ा और हिंदी में अंड या आंड, और इंग्लिश में Testicles कहते हैं, इनको खाना मकरूह तहरीमी (नाजाइज़, गुनाह) है। येह बकरे और बड़े जानवर में साफ़ देखने में आते हैं। मुर्गे (नर) का पेट खोलकर आंतें हटायेंगे तो कमर की अंदरूनी दीवार पर अंडे की तरह दो छोटे छोटे सफ़ेद बीज जैसे दिखाई देंगे, इनको निकाल दिया करें।
ओझड़ी को पेटा, और इंग्लिश में (Stomach) कहते हैं, इसके अंदर गंदगी और नापाकी भरी होती है, बहुत से मुसलमान इसको शौक़ से खाते हैं, जबकि इसको खाना मकरूह तहरीमी (नाजाइज़ और गुनाह) है।
सभी गोश्त काटने, बेचने, पकाने वालों बल्कि सभी मुसलमानों को चाहिये कि हलाल जानवरों की ना खाई जाने वाली चीज़ों की मालूमात हासिल करने केलिये फ़तावा रज़विया (नई वाली) की जिल्द 20 के पेज 233 से 241 तक को ज़रूर पढ़ लें या पढ़वाकर सुन लें, समझ में ना आये तो आलिमों और मुफ़्तियों से पूछ लें। साथ ही किसी गोश्त काटने और बेचने वाले से मिलकर इन चीज़ों की पहचान कर लें। पढ़ना फ़ायेदेमंद होता है मगर साथ में तजरिबा भी हो तो सोने पे सुहागा.
कुछ बकरे, बकरियां और बड़े जानवर या मुर्गे- मुर्गियां वग़ैरह गंदा खाने लगते हैं, इनको अरबी और उर्दू में "जल्लाला" कहते है, इनके | जिस्म और गोश्त में बदबू पैदा हो जाती है, हदीस शरीफ़ में ऐसे जानवरों का दूध और गोश्त इस्तेमाल करने से मना फ़रमाया है।
कुछ भरोसेमंद लोगों से हमें मालूम हुवा है कि मुर्गा-मुर्गी पालने वाले उनको शराब पिलाते हैं, मुसलमानों को ऐसा करना गुनाह है, शराब पीना हराम है तो किसी इंसान या जानवर को पिलाना भी गुनाह है, बल्कि इंसान या जानवर के ज़ख़्म पर भी शराब लगाना जाइज़ नहीं।
ऐसे जानवरों को ज़िबह करने से पहले कई दिन बांधकर रखें कि गंदा ना ना खा पी सकें, और साफ़ खाने पर पल जायें, जब बदबू दूर हो जाये तो ज़िबह करके खायें।
ऐसा बकरा जिसको ख़स्सी (बधिया, Castrate) ना किया गया हो, पेशाब पीने का आदी हो जाता है और उसमें सख़्त बदबू पैदा हो जाती है, ऐसे बकरे केलिये भी यही हुक्म है कि कुछ दिन बांधकर ध्यान रखें कि पेशाब ना पीने पाये, और जिस्म की बदबू भी दूर हो जाये, तो ज़िबह करके खा सकते हैं, वरना मकरूह है।
जो मुर्गियां आज़ाद फिरती हैं अगर गंदा खाने की आदी ना हों और उनमें बदबू भी ना हो तो उनको बंद करना ज़रूरी तो नहीं, मगर बेहतर है कि उनको भी कुछ वक़्त बंद रखकर ज़िबह करें।
ऐसे जानवर जो गंदा खाते-पीते हों, जबतक उनके जिस्म से बदबू दूर ना हो उनकी कुर्बानी अदा तो हो जायेगी मगर बग़ैर मजबूरी ऐसा करना मकरूह है, यानी सवाब कम हो जायेगा।
दूध वाले और गाभन जानवरों की क़ुर्बानी दुरुस्त है, यानी अदा तो हो जायेगी, मगर ऐसा करना पसंदीदा नहीं, हदीस शरीफ़ में इस से मना फ़रमाया है। जिस इंसान पर क़ुर्बानी वाजिब (ज़रूरी) थी, यानी साहिबे निसाब अगर ऐसा जानवर कुर्बानी की नियत से ख़रीदकर लाया या पले हुवे जानवर की कुर्बानी का इरादा कर लिया तो उसी जानवर की भी क़ुर्बानी कर सकता है मगर बेहतर है कि दूसरा बदल दे, और दूसरे जानवर की कुर्बानी का इरादा करने से पहले क़ुर्बानी के जानवर के दूध और ऊन वग़ैरह को बेचना या अपने काम में लेना मकरूह (यानी जाइज़ है मगर बेहतर नहीं) है। और जब दूसरे जानवर की क़ुर्बानी का इरादा कर ले तो हर तरह छूट है कि, पहले वाले जानवर के दूध ऊन से फ़ायेदा उठाये, बेचे या पाले।
येह मसाइल इन किताबों में मौजूद हैं: 1) फ़तावा रज़विया (उर्दू, नई वाली) 2) बहारे शरीअत (उर्दू), हिस्सा 15/हलाल व हराम जानवरों का बयान 3) दूर्रे मुख्तार (अरबी) 4) फ़तावा आलमगीरी फ़तावा हिंदिय्या (अरबी) 5) रद्दुल मोहतार फ़तावा शामी (अरबी) ।
जानवर को उल्टी करवट पर इस तरह लिटायें कि ज़िब करने वाले का मूंह काबे की तरफ़ हो तो जानवर की कमर ज़िबह करने वाले की तरफ़, पैर आगे की तरफ़, सिर उल्ले हाथ की तरफ़ और दुम सीधे हाथ की तरफ़ हो, फिर ज़िबह करने वाला सीधे हाथ में छरी पकड़े और अपना सीधा पैर जानवर की गरदन के क़रीब कंधे पर रखे, ख़ासकर बड़े जानवर के कंधे पर पैर रखना सुन्नत है, फिर गरदन के ऊपर वाले हिम्से पर उभरी हुवी गांठ जैसी हड्डी के नीचे जहां जोड़ मालूम हो छरी रखकर दवाव के साथ चलाते हुवे बिस्मिल्लाहि अल्लाहू अकबर केहकर ज़िबह करें, सिर्फ़ बिस्मिल्लाहि कहना वाजिब (ज़रूरी) है इतना कहने से भी जानवर हलाल हो जायेगा, अल्लाहु अकवर मिलाना सुन्नत है।
ज़िबह में गले की चार नसों का कटना ज़रूरी है, खाने - पीने वाली नस, सांस वाली नस, और इन दोनों के अग़ल ब्गल में गले के दोनों तरफ़ खून वाली नस। इनमें से तीन नसें पूरी कट जायें, या चारों नसों का कम से कम दो तिहाई हिस्सा कट जाना ज़रूरी है। इस से कम कटने पर जानवर हलाल नहीं माना जायेगा।
गला कटते वक्त जितने लोगों का छुरी पर हाथ आये सबका बिस्मिल्ला पढ ना ज़रुरी है, वरना ज़ानवर हलाल ना होगा। एक ने भी जान बूझकर या ये सोचकर विस्मिल्लाह छोड़ दी कि औरों ने कह लिया होगा, तो ना जानवर हलाल होगा ना कुर्बानी दुरुस्त।
हर मुसलमान (नेक, गुनहगार, मर्द, औरत समझदार बच्चा, बै बुजू, बे गुस्ल, पाक, नापाक) के हाथ का ज़िबह किया हुवा जानवर हलाल और कुरबानी दुरस्त है, चाहे बिस्मिल्लाह कहना भूल जाये। जिन लोगों के हाथ का ज़िबह किया हुवा हलाल नहीं वोह येह हैं:
औरत, बच्चे और बूढ़े से ज़िबह कराना या रात में ज़िबह करना जबकि ग़लती का अंदेशा हो मकरूह है, यानी गुनाह नहीं, ना कराना बेहतर। मगर जानवर हलाल है और कुर्बानी भी दुरुस्त। और जब ग़लती का अंदेशा ना हो या कोई ज़रूरत और मजबूरी हो जो शख्म गुमराह (भटका, बहका हुवा) हो मगर उसकी गुमाराही कुफ्र की हद्द तक ना पहुंची हो, बगैर ज़रूरत उस से ज़िबह कराना बेहतर नहीं, मगर जानवर हलाल और कुर्बानी दुरुस्त हो जायेगी।
येह सारे मसाइल हमने अलग अलग किताबों से लेकर आपकी सहुलत और फायदे के लिये अपने अलफ़ाज़ और अंदाज़ में पेश किये हैं, जिनमें से कुछ् किताबे येह हैं; 1) फ़तावा रज़्वीयाह (उद्द नई बाली) जिल्द 20, पेज 213 से 260 तक, 2) बहारे शरीअत (उ्रदु : हिस्सा 15, ज़िबह का बयान, 3) दुर्रे मुख्तार (अरबी), 4 ) फ़्तावा आलमगीरी फ़तावा हिदिय्या (अरबी), 5) रद्द्लु मोहतार फ़तावा शामी (अरबी)। इनके अलावा बीसियों किताबों में येह मसाइल मौजूद हैं।