अल्लाह त'आला फ़रमाता है
रोज़ों की गिनती पूरी करो और अल्लाह की बढ़ाई बोलो कि उस ने तुम्हें
हिदायत फ़रमायी। (बक़रा:185)
और फ़रमाता है कि :
अपने रब के लिये नमाज़ पढ़ और क़ुरबानी कर। (अल कौसर:2)
ईदैन की नमाज़ वाजिब है मगर सब पर नहीं बल्कि उन्हीं पर जिन पर जुम्आ वाजिब है और इस की अदा की वही शर्तें हैं जो जुम्आ की हैं फ़र्क़ इतना है कि जुम्आ में ख़ुत्बा शर्त है और ईदैन में सुन्नत।
अगर जुम्आ में खुत्बा ना पढ़ा तो जुम्आ ना हुआ पर इस में ना पढ़ा तो नमाज़ हो गयी पर बुरा किया।
दूसरा फ़र्क़ ये है कि जुम्आ का ख़ुत्बा नमाज़ के पहले है और ईदैन में नमाज़ के बाद अगर पहले पढ़ लिया तो बुरा किया मगर नमाज़ हो गयी लौटाई नहीं जायेगी और ख़ुत्बा भी नहीं दोहराना है। ईदैन में ना अज़ान है ना इक़ामत सिर्फ दो बार इतना कहने की इजाज़त है :
الصلوۃ جامعۃ
(देखिये बहारे शरीअत)
गाँव में ईदैन की नमाज़ पढ़ना मकरूहे तहरीमी है।
तीन, सात, पाँच या कम बेश पर ताक़ (Odd) हों। खजूरें ना हों तो कोई मीठी चीज़ खा ले। नमाज़ से पहले कुछ ना खाया तो गुनाहगार ना हुआ मगर इशा तक ना खाया तो इताब किया जायेगा यानी सरज़निश।
सवारी पर भी जाने में हर्ज नहीं मगर जो पैदल चलने पर क़ादिर हो तो ईदगाह तक पैदल जाना अफ़ज़ल है और वापसी पर सवारी में आने पर हर्ज नहीं।
ईदगाह में नमाज़ के लिये जाना सुन्नत है अगर्चे मस्जिद में गुंजाइश हो और ईदगाह में मिम्बर बनाने या मिम्बर ले जाने में हर्ज नहीं। (देखिये बहारे शरीअत)
खुशी ज़ाहिर करना।
नमाज़े ईद से क़ब्ल नफ़्ल नमाज़ मुत्लक़न मकरूह है, ईदगाह में हो या घर में, इस पर ईद की नमाज़ वाजिब हो या ना हो यहाँ तक कि औरत अगर चाश्त की नमाज़ घर में पढ़ना चाहे तो ईद की नमाज़ हो जाने के बाद पढ़े और नमाज़े ईद के बाद ईदगाह में नफ़्ल पढ़ना मकरूह है, घर में पढ़ सकता है बल्कि मुस्तहब है कि चार रकअतें पढ़े। ये अहकाम खवास के हैं, आवाम अगर नफ़्ल पढ़ें अगर्चे नमाज़े ईद से पहले अगर्चे ईदगाह में उन्हें मना ना किया जाये। (देखिये बहारे शरीअत)
ईदुल फ़ित्र में देर करना और ईदे अज़्हा में जल्द पढ़ लेना मुस्तहब है और सलाम फेरने के पहले ज़वाल का वक़्त आ गया तो नमाज़ जाती रही।
नमाज़े ईद का तरीक़ा ये है कि दो रकअत वाजिब ईदुल फ़ित्र या ईदुल अज़्हा की निय्यत कर के कानों तक हाथ उठाये और अल्लाहु अकबर कह कर हाथ बाँध ले फ़िर सना पढ़े फ़िर कानों तक हाथ उठाये और अल्लाहु अकबर कहता हुआ हाथ छोड़ दे फिर हाथ उठाये और अल्लाहु अकबर कह कर हाथ छोड़ दे फिर हाथ उठाये और अल्लाहु अकबर कह कर हाथ बाँध ले यानी पहले तकबीर में हाथ बाँधे, इसके बाद दो तकबीरो में हाथ लटकाये फिर चौथी में बाँध ले। (देखिए बहारे शरीअत)
इस को यूँ याद रखें कि जहाँ तकबीर के बाद कुछ पढ़ना है वहाँ हाथ बाँध लिये जायें और जहाँ पढ़ना नहीं वहाँ हाथ छोड़ दिये जायें। फ़िर इमाम اعوذ باللہ और بسم اللہ पढ़ कर الحمد للہऔर सूरत बुलंद आवाज़ से पढ़े फिर रुकूअ व सुजूद करे, दूसरी रकअत में पहले الحمد और सूरत पढ़े फिर तीन बार कान तक हाथ ले जा कर अल्लाहु अकबर कहे और हाथ ना बाँधे और चौथी बार बगैर हाथ उठाये अल्लाहु अकबर कहता हुआ रुकूअ में जाये।
इस से मालूम हो गया कि ईदैन में ज़ाइद तकबीरें 6 हुयीं, तीन पहली में किरअत से पहले और तकबीरे तहरीमा के बाद और तीन दूसरी में किरअत के बाद और रुकूअ से पहले और इन 6 तकबीरों में हाथ उठाये जायेंगे और हर दो तकबीरों के दरमियान तीन तस्बीह की क़द्र सकता करे यानी रुके और ईदैन में मुस्तहब ये है कि पहली रकअत में सूरहे जुम्आ और दूसरी में मुनाफ़िक़ून पढ़े या पहली में : سَبِّحِ اسْمَ और दूसरी में : ھَلْ اَتٰکَ इमाम ने 6 तकबीरों से ज़्यादा कही तो मुक़तदी भी इमाम की पैरवी कर मगर 13 से ज़्यादा में इमाम की पैरवी ना करे। (देखिये बहारे शरीअत)
पहली रकअत में इमाम के तक्बीर कहने के बाद मुक़्तदी शामिल हुआ तो उसी वक़्त तीन तक्बीरे कह ले अगर्चे इमाम ने क़िरअत शुरु कर दी हो और तीन ही कहे अगर्चे इमाम ने तीन से ज़्यादा कही हो और अगर उसने तक्बीरें ना कही कि इमाम रुकूअ में चला गया तो खड़े-खड़े ना कहे बल्कि इमाम के साथ रुकूअ में चला जाये और रुकूअ में कह ले।
अगर इमाम को रुकूअ में पाया और गालिब गुमान है कि तक्बीरें कह कर इमाम को रुकूअ में पा लेगा तो खड़े खड़े तक्बीरें कहे फिर रुकूअ में जाये वरना अल्लाहु अकबर कह कर रुकूअ में जाये और रुकूअ में तक्बीरे कहे फिर अगर उसने रुकूअ में तक्बीरें पूरी ना की थी कि इमाम ने सर उठा लिया तो बाक़ी साक़ित हो गयी।
अगर इमाम के रुकूअ से उठने के बाद शामिल हुआ तो अब तक्बीरें ना कहे बल्कि जब अपनी पढ़े उस वक़्त कहे और रुकूअ में जहाँ तक्बीर कहना बताया गया है, इस में हाथ ना उठाये और अगर दूसरी रकअत में शामिल हुआ तो पहली रकअत की तक्बीरें अब ना कहे बल्कि जब अपनी बची हुयी पढ़ने के लिये खड़ा हो तो उस वक़्त कहे और अगर दूसरी रकअत की तक्बीरें इमाम के साथ पा जाये तो अच्छा है वरना इस में भी वही तफ्सील है जो पहली रकअत के बारे में मज़्कूर हुआ। (देखिये बहारे शरीअत)
जो शख्स इमाम के साथ शामिल हुआ फिर सो गया या उस का वुज़ू जाता रहा, अब जो पढ़े तो तक्बीरें इतनी कहे जितनी इमाम ने कही, अगर्चे इसके मज़हब में इतनी ना थी।
इमाम तक्बीर कहना भूल गया और रुकूअ में चला गया तो क़ियाम की तरफ़ ना लौटे ना रुकूअ में तक्बीर कहे।
पहली रकअत में इमाम तक्बीरें भूल गया और क़िरअत शुरु कर दी तो क़िरअत के बाद कह ले या रुकूअ में और क़िरअत का इयादा ना करे।
इमाम ने ज़ाइद तक्बीरो में हाथ ना उठाये तो मुक़्तदी उसकी पैरवी ना करे बल्कि हाथ उठाये। (देखिये बहारे शरीअत)
नमाज़ के बाद इमाम दो खुत्बे पढ़े और खुत्बा -ए- जुम्आ में जो चीज़ें सुन्नत हैं ईदैन में भी सुन्नत हैं और जो वहाँ पर मकरूह वो यहाँ भी मकरूह सिर्फ दो बातो में फर्क़ है, एक ये कि जुम्आ के पहले खुत्बे से पेश्तर खतीब का बैठना सुन्नत था और इस में ना बैठना सुन्नत है दुसरी ये कि इस में पहले खुत्बा से पेश्तर 9 बार और दूसरे के पहले 7 बार और मिम्बर से उतरने के पहले 14 बार अल्लाहु अकबर कहना सुन्नत है और जुम्आ में नहीं।
ईदुल फित्र के खुत्बे में सदक़ा -ए- फित्र के अहकाम की तालीम करे, वो पांच बातें हैं
बल्कि मुनासिब ये है कि ईद से पहले जो जुम्आ पढ़े, उस में भी ये अहकाम बता दिये जायें कि पेश्तर से लोग वाक़िफ़ हो जायें और ईदुल अज़्हा के खुत्बे में क़ुरबानी के अहकाम और तक्बीराते तशरीक़ की तालीम दी जाये। (देखिये बहारे शरीअत)
इमाम ने नमाज़ पढ़ ली और कोई शख्स बाक़ी रह गया ख़्वाह वो शामिल ही ना हुआ था या शामिल तो हुआ मगर उसकी नमाज़ फ़ासिद हो गयी तो अगर कहीं दूसरी जगह नमाज़ मिल जाये तो पढ़ ले वरना नहीं पढ़ सकता, हाँ बेहतर ये है कि ये शख्स चार रकअत चाश्त की नमाज़ पढ़े।
किसी उज़्र के सबब ईद के दिन नमाज़ ना हो सकी (मस्लन सख्त बारिश हुयी या अब्र के सबब चाँद नहीं देखा गया और गवाही ऐसे वक़्त गुज़री कि नमाज़ ना हो सकी या अब्र था और नमाज़ ऐसे वक़्त खत्म हुयी कि ज़वाल हो चुका था) तो दूसरे दिन पढ़ी जाये और दूसरे दिन भी ना हुयी तो ईदुल फ़ित्र की नमाज़ तीसरे दिन नहीं हो सकती और दूसरे दिन भी नमाज़ का वही वक़्त है जो पहले दिन था और बिला उज़्र ईद की नमाज़ पहले दिन ना पढ़ी तो दूसरे दिन नहीं हो सकती। (देखिये बहारे शरीअत)
तमाम अहकाम में ईदुल फ़ित्र की तरह है, सिर्फ बाज़ बातों में फ़र्क़ है, इस में मुस्तहब ये है कि नमाज़ से पहले कुछ ना खाये अगर्चे क़ुरबानी ना करे और खा लिया तो कराहत नहीं और रास्ते में बुलंद आवाज़ से तकबीर कहता जाये और ईदुल अज़्हा की नमाज़ उज़्र की वजह से 12वीं तारीख़ तक बिला कराहत मुअक्खर कर सकते हैं, 12वीं के बाद फिर नहीं हो सकती और बिल उज़्र 10वीं के बाद मकरूह है।
क़ुरबानी करनी हो तो मुस्तहब ये है कि पहली से दसवीं ज़िल्हिज्जा तक ना हजामत बनवाये, ना नाखून तरशवाये।
अरफ़ा के दिन यानी नवीं ज़िलहिज्जा को लोगों का किसी जगह जमा होकर हाजियों की तरफ वुक़ूफ़ करना और ज़िक्रो दुआ में मश्गूल रहना इस में मुज़ाइक़ा नहीं जबकि इसे लाज़िम व वाजिब ना जाने और अगर किसी दूसरी ग़र्ज़ से जमा हुये मस्लन नमाज़े इस्तिस्क़ा पढ़नी है जब तो बिला इख़्तिलाफ़ जाइज़ है। (देखिये बहारे शरीअत)
बाद नमाज़े ईद मुसाफ़ा और मुआनिका करना जैसा उमूमन मुसलमानों में राइज है बेहतर है कि इस में इज़हारे मसर्रत है।
नवीं ज़िल्हिज्जा की फ़ज्र से 13वीं की अस्र तक हर नमाज़े फ़र्ज़ पंजगाना के बाद जो जमाअते मुस्तहब्बा के साथ अदा की गयी एक बार तकबीर बुलंद आवाज़ से कहना वाजिब है और तीन बार अफ़ज़ल, इसे
तकबीरे तशरीक़ कहते हैं वो ये है
اللہ اَکْبَرْ اللہ اَکْبَرْ لَآ اِلٰـہَ اِلَّا اللہ وَاللہ اَکْبَرْ اللہ اَکْبَرْ وَللہ
الْحَمْدُ
(देखिये बहारे शरीअत)
तकबीरे तशरीक़ सलाम फेरने के फौरन बाद वाजिब है यानी जब तक कोई ऐसा फेल ना किया हो कि अब उस नमाज़ में बिना (यानी नमाज़ में और रकअतों को जोड़ सके) ना कर सके, अगर मस्जिद से बाहर हो गया या क़स्दन वुज़ू तोड़ दिया या कलाम किया अगर्चे सहवन तो तकबीर साकित हो गयी और बिला क़स्द वुज़ू टूट गया तो कह ले।
तकबीरे तशरीक़ उस पर वाजिब है जो शहर में मुक़ीम हो या जिस ने उसकी इक़्तिदा की अगर्चे औरत या मुसाफ़िर या गाँव का रहने वाला और अगर इस की इक़्तिदा ना करें तो इन पर वाजिब नहीं। (देखिये बहारे शरीअत)
नफ़्ल पढ़ने वाले ने फ़र्ज़ पढ़ने वाले की इक़्तिदा की तो इमाम की पैरवी में उस मुक़तदी पर भी तकबीरे तशरीक़ वाजिब है अगर्चे इमाम के साथ उस ने फ़र्ज़ ना पढ़े और मुक़ीम ने मुसाफ़िर की इक़्तिदा की तो मुक़ीम पर वाजिब है अगर्चे इमाम पर वाजिब नहीं।
ग़ुलाम पर तकबीरे तशरीक़ वाजिब है और औरतों पर वाजिब नहीं अगर्चे जमाअत से नमाज़ पढ़ी अगर औरत ने मर्द के पीछे नमाज़ पढ़ी और इमाम ने उस औरत के इमाम होने की निय्यत की तो औरत पर भी वाजिब है पर आहिस्ता कहे।
नफ़्ल व सुन्नत व वित्र के बाद तकबीर नहीं और जुम्आ के बाद वाजिब है और नमाज़े ईद के बाद भी कह ले। (देखिये बहारे शरीअत)
मस्बूक़ और लाहिक़ पर तकबीर वाजिब है मगर जब खुद सलाम फेरें उस वक़्त कहें और इमाम के साथ क़ह ली तो नमाज़ फ़ासिद ना हुई और नमाज़ खत्म करने के बाद तकबीर का इआदा भी नहीं है।
और दिनों में नमाज़ क़ज़ा हो गयी थी और अय्यामे तशरीक़ में उस की क़ज़ा पढ़ी तो तकबीर वाजिब नहीं, यूँ ही इन दिनों की नमाज़ें और दिनों में पढ़ें जब भी वाजिब नहीं। यूँ ही गुज़िश्ता साल के अय्यामे तशरीक़ की नमाज़ें इस साल के अय्यामे तशरीक़ में पढ़े जब भी वाजिब नहीं हाँ अगर इस साल के अय्यामे तशरीक़ की क़ज़ा नमाज़ें इसी साल के इन्हीं दिनों में जमाअत से पढ़े तो वाजिब है। (देखिये बहारे शरीअत)
मुन्फरिद यानी अकेले नमाज़ पढ़ने वाले पर तकबीरे तशरीक़ वाजिब नहीं मगर मुन्फरिद भी कह ले क्योंकि साहिबैन के नज़दीक उस पर भी वाजिब है।
इमाम ने तकबीर ना कही जब भी मुक़तदी पर कहना वाजिब है अगर्चे मुक़तदी मुसाफ़िर, या देहाती या औरत हो।
इन तारीखों में अगर आम लोग बाज़ारों में बा ऐलान तकबीरें कहें तो उन्हें मना ना किया जाये। (देखिये बहारे शरीअत)