नमाज़ हर मुकल्लफ़ पर फर्ज़ है। मुकल्लफ़ उसे कहते हैं जिस पर शरीअ़त का हुक्म लागू होता हो या जिस पर शरई हुक्म की पाबन्दी लाज़िम हो। अगर कोई नाबालिग है या पागल है तो वो मुकल्लफ़ नहीं यानी शरीअ़त का हुक्म उस पर लागू नहीं होता।
ये ऐसा फर्ज़ है कि जो इस की फर्ज़िय्यत का इंकार करे यानी कोई कहे कि मैं नमाज़ को फर्ज़ नहीं मानता तो वो काफ़िर हो जायेगा। नमाज़ ना पढ़ना अलग बात है लेकिन इसे फर्ज़ ना मानना अलग बात है।
जो जान बूझ कर नमाज़ छोड़ते हैं यानी कोई मजबूरी या उज़्र उन के पास नहीं होता तो ऐसा शख्स फासिक़ है। इस्लामी हुकूमत होती तो ऐसे लोगों को क़ैद करने का हुक्म है बल्कि क़त्ल करने का हुक्म भी है, इस से मालूम होता है कि नमाज़ की अहमिय्यत क्या है।
नमाज़ के बारे में शरीअ़त का हुक्म ये है कि जब बच्चा 7 साल का हो जाये तो उसे नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा सिखायें (अगर खुद जानते हैं तो) आज कल जो खुद नहीं जानते वो भी दूसरों को सिखाने निकल पड़ते हैं। अगर आप नहीं जानते तो पहले अच्छी तरह सीख लें, ताकि बच्चे को सिखा सकें।
जब बच्चा 10 साल का हो जाये तो उसे नमाज़ पढ़ने का कहें, उस पर नर्मी बर्तें और अगर ना माने तो सिद्दत इख्तियार करें और मार मार कर नमाज़ पढ़वायें। आज कल देखा ये जाता है कि लोग नमाज़ पढ़ने के लिये तो नहीं मारते लेकिन स्कूल भेजते वक़्त काफ़ी सिद्दत दिखाते हैं। हमने देखा है कि कई लोग अपने बच्चों को घसीट कर स्कूल ले जाते हैं लेकिन नमाज़ की बात आये तो बस इतना कह देंगे "बेटा नमाज़ पढ़ा करो" और इस से ज़्यादा कहने की हिम्मत इसीलिये भी नहीं करते क्योंकि दूसरों को कहने से पहले खुद को भी देखना ज़रूरी है। अब जो बाप खुद बे नमाज़ी हो, वो नमाज़ के लिये बेटे के साथ कभी मार पीट कर सकता है? बेटा भी पलट कर कह सकता है कि आप क्यों नहीं पढ़ते?
नमाज़ के हवाले से नर्मी के साथ सख्ती की भी ज़रूरत है। जहाँ आप अपने बच्चों को दूसरे कामों के लिये मजबूर करते हैं वहीं नमाज़ के लिये भी उन पर खास प्रेसर दें। उन्हें इसकी अहमिय्यत समझायें और पहले खुद भी अ़मल करें।
नमाज़ एक ऐसी इबादत है कि इस में नाइबत जारी नहीं हो सकती यानी आप किसी को अपना नाइब (Vice) नहीं बना सकते कि मेरे बदले में तुम पढ़ देना बल्कि जिस पर फर्ज़ है, उसे ही अदा करनी होगी।
अगर किसी ने अपनी ज़िन्दगी में कई नमाज़ें क़ज़ा की और इन्तिक़ाल कर गया और वसीयत की कि उस की तरफ़ से फिदया अदा किया जाये तो ये किया जा सकता है और इसे आगे तफ़सील से बयान करेंगे।
अब हम पहले नमाज़ के शराइत (Conditions) बयान करेंगे। इन शराइत में से किसी एक में भी कमी हुई तो नमाज़ होना तो दूर की बात, नमाज़ शुरू'अ़ ही नहीं होगी। ये ऐसी चीज़ें हैं कि अगर आप इन्हें पूरा करते हैं तो ही आप नमाज़ पढ़ने के क़ाबिल कहलायेंगे, वरना आप नमाज़ शुरू'अ़ ही नहीं कर सकते। फिर नमाज़ शुरू'अ़ हो जाने के बाद जो कंडीशन हैं (जिसे फराइज़े नमाज़) कहते हैं, वो अलग हैं।
नमाज़ पढ़ने वाला, उस का जिस्म नजासतों से, उस के कपड़े और जिस जगह नमाज़ पढ़ रहा है, सब का पाक होना ज़रूरी है।
पाकी नापाकी के बहुत सारे मसाइल हैं, मस्लन हदसे अकबर क्या है? हदसे असगर क्या है? और इन के लिये कौन सी तहारत ज़रूरी है? फिर नजासते खफीफ़ा और गलीज़ा का फर्क़ भी जानना ज़रूरी है कि एक दिरहम और एक चौथाई का क़द्रे माना होना समझ आ जाये।
सब से पहले आसान लफ्ज़ों में जान लीजिये कि नापाकी दो तरह की होती है, एक को हदसे असगर और एक को हदसे अकबर कहते हैं। इसे आप यूँ समझ लें कि एक छोटी नापाकी होती है जिसका हुक्म हल्का होता है और एक बड़ी नापाकी होती है जिसका हुक्म भारी होता है।
छोटी नापाकी से पाकी हासिल करने के लिये तहारते सुगरा यानी वुज़ू काम आता है और बड़ी नापाकी को दूर करने के लिये तहारते कुबरा यानी गुस्ल।
अगर छोटी नापाकी हुई तो छोटी तहारत से पाक होंगे और बड़ी नापाकी हुई तो बड़ी तहारत से पाक होंगे।