नमाज़े जनाज़ा में इमाम का मय्यित के सीने के सामने खड़ा होना मुस्तहब है इस के अलावा मय्यित के किसी और जुज़ के सामने खड़ा होना भी जाइज़ है चुनाँचे अल्लामा शामी लिखते हैं :
इमाम का मर्द और औरत के सीने के सामने खड़ा होना मुस्तहब है वरना मय्यित के किसी भी एक जुज़ (हिस्से) के सामने खड़ा होना ज़रूरी है।
अगर कई जनाज़े इकठ्ठे हो जायें तो इमाम को उनके रखने में इख़्तियार है चाहे तो लंबाई में एक ही लाइन में रखे और चाहे तो किब्ला की सिम्त में एक के बाद एक को रखे चुनाँचे फ़तावा आलमगीरी में है : इमाम को जनाज़ा रखने में इख़्तियार है चाहे तो लंबाई में एक लाइन में रखे और इन में से अफ़ज़ल के पास खड़ा हो और चाहे तो किब्ला की सिम्त में एक के बाद एक को रखे। (انوار الفتاوی، ص251، 252)
क़तरे जिस्म से पानी में जायें तो टब या बाल्टी का पानी पाक रहता है इस से ग़ुस्ल करना दुरुस्त है गो कि वक़्ते ग़ुस्ल मुस्तमिल पानी के क़तरात टब या बाल्टी में पड़ते हों इसलिये कि मुस्तमिल पानी अगर अच्छे पानी में मिल जाये मस्लन वुज़ू या ग़ुस्ल करते वक़्त क़तरे लोटे या टब में टपकें तो हुकम ये है कि अच्छा पानी अगर ज़्यादा हो तो ये वुज़ू और ग़ुस्ल के काबिल है वरना सब बेकार हो गया ऐसा ही बहारे शरीअत जिल्द 2 सफहा 49 पर है :
ज़ाहिर है कि ग़ुस्ल करते वक़्त टब या बाल्टी का पानी मुस्तमिल पानी से उमूमन ज़ाइद ही होता है इसीलिये इस से वुज़ू और ग़ुस्ल जाइज़ है। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص77)
बारिश का पानी सिर्फ नजासतों से गुज़र जाना नजासत का मोजिब नहीं (यानी इस से पानी नापाक नहीं होगा)
अलबत्ता बारिश का पानी अगर नापाक जगहों से बहकर एक जगह इकट्ठा हुआ तो देखा जायेगा कि इसका रंग, बू, मज़ा बदल गया है या नहीं। पहली सूरत में पानी ना पाक है इस से वुज़ू वग़ैरा जाइज़ नहीं और दूसरी सूरत में पाक है इस से वुज़ू वग़ैरा करना जाइज़ है। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص79)
क्या फरमाते हैं उलमा -ए- दीनो मिल्लत इस मसअले में : ज़ैद मस्नूई दाँत लगा कर रखा है तो क्या ज़ैद को वुज़ू और ग़ुस्ल में इन मस्नूई दाँतों को निकाल कर इन की तह पानी पहुँचाना ज़रूरी होगा? और दाँत फिक्स हो तो क्या हुक्म है?
ग़ुस्ल करते वक़्त मस्नूई दाँतों को निकलने में अगर कोई हर्ज व दुश्वारी ना हो बल्कि बा आसानी निकल सकते हैं तो इन्हें निकाल कर तह तक पानी पहुंचाना ज़रूरी है और वुज़ू में फ़र्ज़ नहीं कि इस में कुल्ली करना सुन्नत है और अगर निकालना बाइसे हर्ज हो तो इन तक पानी पहुँचाना ग़ुस्ल में भी लाज़िम नहीं है। यही हुक्म फिक्स दाँतों का भी है कि इन्हें निकलने में ज़रर है।
फ़तावा रज़विय्या में है "हिलता दाँत अगर तार से जुड़ा है माफी होनी चाहिये अगर्चे पानी तार के नीचे ना बहे कि बार बार खोलने में ज़रर देगा ना इस से हर वक़्त बंदिश हो सकेगी। यूँ ही अगर खड़ा हुआ दाँत किसी मसाले मस्लन बुरादा -ए- आहिन व मिक़्नतिस वग़ैरह से जमाया गया है जमे हुये चीन की मिसाल इस की भी माफ़ी होनी चाहिये। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص85)
क्या फरमाते हैं उलमा -ए- दीन व मिल्लत इस मसअले में: अगर औरतों के नाखून पर नाखून पॉलिश या मेहन्दी लगी हो तो वुज़ू या ग़ुस्ल होगा या नहीं?
औरतों के नाखून पर लगी नाखून पॉलिश इतनी गाड़ी है कि इस कि एक तह नाखून पर जम जाती है जिस की वजह से पानी नाखून तक सरय्यत नहीं कर पाता इसीलिये वुज़ू व ग़ुस्ल करते वक़्त अगर नाखून पर लगी रह गयी और इस को छुड़ाया ना गया तो वुज़ू होगा और ना ही ग़ुस्ल।
रही मेहन्दी तो नाखून पर इस की तह नहीं जमती बल्कि इस का रंग चढ़ता है ये माने'अ वुज़ू व ग़ुस्ल (यानी हो जायेगा) अगर हाथ या पाऊँ पर इस का जर्म लगा रह गया और खबर ना हुई तो वुज़ू और ग़ुस्ल हो जायेगा मगर मालूम हो जाये तो इसे छुड़ा कर वहाँ पानी बहा दें। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص87)
ऐसे पानी से वुज़ू करना जाइज़ है इसीलिये कि पाइप लाइन के ज़रिये जो पानी आता है वो मा-ए-जारी (बहते पानी) के हुक्म में है और मा-ए-जारी का रंग या बू या मज़ा अगर नजासत की वजह से बदल जाये तो ज़रूर नापाक हो
जायेगा, लेकिन अगर ये तहक़ीक़ ना हो कि ये तब्दीली किस वजह से है तो हुक्म जवाज़ का ही होगा और महज़ शक की बुनियाद पर इस पानी के नापाक होने फिर इस से वुज़ू के नाजाइज़ होने का हुक्म ना होगा।
असल हुक्म जो बेहतर है वो ये है कि जब कभी पानी में ऐसी कैफ़िय्यत पैदा हो जाये और तहक़ीक़ ना हो सके तो टोटी खोल दें ताकि पानी बहता रहे यहाँ एक कि बे बू (Smell) ज़ाइल हो जाये। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص81)
धूप से गर्म होने वाले पानी को वुज़ू, ग़ुस्ल या किसी और काम में इस्तिमाल करने से इस वक़्त अंदेशा -ए- बर्स (यानी सफ़ेद दाग़ की बीमारी का अंदेशा) है जब कि वो पानी गर्म मुल्क में गर्म मौसम में चाँदी के अलावा किसी और धात की टंकी या बर्तन में धूप से गर्म हुआ हो जब तक ठंडा ना हो जाये इस वक़्त तक किसी तरह बदन पर पहुँचने से बर्स की बीमारी होने का अंदेशा है। अलबत्ता जो टंकिया, धात के अलावा प्लास्टिक, फाइबर, ईंट, पत्थर वग़ैरा से बनाई जाती हैं इन में धूप से गर्म होने वाले पानी का इस्तिमाल करने में कोई हर्ज नहीं और अगर कहीं मस्जिदों में या घर में लोहे या इस जैसी धात से बनी हुयी टंकिया पाई जाती हों तो इन में धूप से गर्म होने वाला पानी जब तक ठंडा ना हो जाये इस्तिमाल ना किया जाये और अगर मुमकिन हो तो इन्हें फाइबर की टंकी से बदल दें। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص82)
अशया (चीज़ों) में असल तहारत व इबादत है (यानी अपनी असल के ऐतबार से हर शय मुबाह है) लिहाज़ा जहाँ तक साबुन में ना पाक चीज़ की मिलावट का यक़ीन ना हासिल हो इसे पाक ही जाना जायेगा।
अगर साबुन के ताल्लुक़ से यक़ीन हो जाये कि इस में मुरदार या नापाक जानवर की चर्बी का इस्तिमाल किया गया है तो ज़रूर वो नापाक क़रार दिया जायेगा और इस का इस्तिमाल नाजाइज़ होगा।
बहारे शरीअत में जो है कि इस्लामी कारखाना हो तो वो मुस्तहब है यानी बेहतर यही है कि ग़ुस्ले मय्यित के लिये मुसलमानों के हाथों से बनाया साबुन इस्तिमाल किया जाये लिहाज़ा आज कल जो साबुन बाज़ार में नहाने और धोने के लिये दस्तयाब हैं जब तक इन में किसी नजिस चीज़ के वजूद का यक़ीन ना हो वो पाक है इसका इस्तिमाल जाइज़ और इन से धोये हुए कपड़े पहन के नमाज़ पढ़ना भी जाइज़। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص83)
अशया (चीज़ों) में असल तहारत व इबादत है (यानी अपनी असल के ऐतबार से हर शय मुबाह है) लिहाज़ा जहाँ तक साबुन में ना पाक चीज़ की मिलावट का यक़ीन ना हासिल हो इसे पाक ही जाना जायेगा।
अगर साबुन के ताल्लुक़ से यक़ीन हो जाये कि इस में मुरदार या नापाक जानवर की चर्बी का इस्तिमाल किया गया है तो ज़रूर वो नापाक क़रार दिया जायेगा और इस का इस्तिमाल नाजाइज़ होगा।
बहारे शरीअत में जो है कि इस्लामी कारखाना हो तो वो मुस्तहब है यानी बेहतर यही है कि ग़ुस्ले मय्यित के लिये मुसलमानों के हाथों से बनाया साबुन इस्तिमाल किया जाये लिहाज़ा आज कल जो साबुन बाज़ार में नहाने और धोने के लिये दस्तयाब हैं जब तक इन में किसी नजिस चीज़ के वजूद का यक़ीन ना हो वो पाक है इसका इस्तिमाल जाइज़ और इन से धोये हुए कपड़े पहन के नमाज़ पढ़ना भी जाइज़। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص83)
कपड़े धोने से मक़सूद इसे साफ करना है और उमूमन पाक पानी से साबुन से कपड़े का मैल दूर होकर कपड़ा साफ हो जाता है लिहाज़ा कपड़ा पाक पानी से इस तरह धोये कि वो साफ हो जाये फटे ना कमज़ोर हो, पानी का इस्तिमाल भी ज़रूरत से ज्यादा ना हो बाज़ कपड़ों की धुलाई के लिये पेट्रोल की ज़रूरत होती है ये भी जाइज़ है।
नजिस कपड़े को पाक करने का तरीका ये है कि नजासते मुरैया (गाढ़ी नजासत जो पानी की तरह ना हो) लगी है इस से ज़ाइल कर दे अगर एक मर्तबा में ज़ाइल हो जाये तो एक ही मर्तबा धोये वरना तीन बार या उस से भी ज्यादा की ज़रूरत हो तो तीन बार या ज़्यादा धोये।
अगर नजासत ग़ैर मुरैया है (यानी गढ़ी नहीं) और कपड़े पर लग जाये और वो निचोड़ने के क़ाबिल है तो तीन बार धोये और हर बार निचोड़े और निचोड़ने की हद ये है कि अगर फिर निचोड़े तो कतरा ना टपके और इस में खुद की क़ुव्वत का ऐतबार है अगर दूसरा जो ज़्यादा क़वी है कि इस के निचोडने से कतरा टपकेगा तो क़वी के लिये कपड़ा पाक ना होगा और कमज़ोर के लिये पाक होगा। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص91)
ग़ुस्ल खाने में कोई दुआ नहीं पढ़नी चाहिये, ख्वाह लेट्रिन हो या ना हो। मुफ़्ती -ए- आज़मे हिन्द अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं: "ग़ुस्ल खाने में कोई दुआ नहीं पढ़ना चाहिये। (फ़तावा मुस्तफ़विय्या)
रही ये बाय कि दुआ ना पढ़ी तो भूल जाने का खतरा है तो इस का हल ये है कि ग़ुस्ल खाने में वुज़ू ही ना करें ऐसी जगह वुज़ू का एहतिमाम करे जहाँ इसे वुज़ू की दुआ पढ़ने की इजाज़त हो। ग़ुस्ल खाने वुज़ू के लिये नहीं है तो इसे वुज़ू कर लिये इस्तिमाल ना करे ताकि दुआ ना पढ़ने पर भूलने का खतरा ही पैदा ना हो। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص92)
लैंस लगा कर नमाज़ पढ़ना जाइज़ है यूँ ही इसे लगाकर वुज़ू व ग़ुस्ल भी सही है अगर्चे उतारने में दुश्वारी ना हो, क्यों कि लैंस आँखों के अंदर चस्पा होता है, जहाँ वुज़ू और ग़ुस्ल में पानी पहुँचाने का हुक्म नहीं।
इसके मुताल्लिक़ अल्लामा मुफ़्ती शरीफुल हक़ अमजदी अलैहिर्रहमा लिखते हैं कि खास ऐनक के निकालने में अगर दुश्वारी ना भी होती हो तो भी इसके होते हुये वुज़ू व ग़ुस्ले जनाबत सही होगा, इसीलिये कि वुज़ू ग़ुस्ल में आँख के अंदर का हिस्सा धोना ज़रूरी या वाजिब नहीं। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص 92,93)
वुज़ू का पानी यानी वुज़ू करते वक़्त जो पानी गिरता है, वो ताहिर ग़ैर मुतहर है यानी खुद ताहिर है पर अब उसे तहारत के काम में नहीं ला सकते इस के सिवा सिंचाई और दूसरे ऐसे कामों में इस्तिमाल कर सकते हैं जिन में पानी नजासत से आलूदा ना हो, यूँ ही खाद अगर पाक चीजों से तैयार की जाये तो इस में भी वुज़ू का पानी बहा सकते हैं।
इस सिलसिले में अब ये बात ज़हन में रहे कि इसे नापाक चीज़ में ना बहाया जाये, ना मिलाया जाये, पाक चीजों और जगहों में इस्तिमाल करना जाइज़ है वजह ये है कि पानी ग़ैर मुताहर होने के बावजूद भी मुहतरहम है। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص95)
दस्ताने लगाकर बे वुज़ू क़ुरआने मजीद छूना हराम है जिस तरह कुर्ते की आस्तीन से छूना हराम और इसी तरह जिस रुमाल का एक सिरा इस के मूँढे पर हो दूसरे सिरे से छूना कि ये सब इस के ताबे है और तफ़्सीर की किताबों का बे वुज़ू छूना मकरूह है मगर वाज़ेह आयत पर इस में भी हाथ रखना हराम है। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص96)
सर के लटके बालों पर मसह करने से मसह नहीं होता कि मसह में सर के चौथाई हिस्से का तर करना फ़र्ज़ है लिहाज़ा वुज़ू में सिर्फ सर के पीछे हिस्से में नीचे बंधी हुई गोल चोटी पर मसह करने से मसह नहीं होगा। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص97)
बच्चे को दूध पिलाने से वुज़ू नहीं टूटता कि पाक रुतूबातें जो बदन से निकलती हैं वो नाकिसे वुज़ू नहीं है।
जो चीज़ आदतन खारिज होती हो और नाकिस ना हो तो ख़्वाह कितनी मिक़दार में क्यों ना हो नाकिसे वुज़ू ना होगी और वो ख्वाह बीमारी ही क्यों ना समझी जाये जैसे पसीना वुज़ू को नहीं तोड़ता है। अब अगर ये बहुत ज़्यादा हो जाये जैसे बुखार की सूरत में या दूसरे अमराज़ में तो भी नाकिसे वुज़ू ना होगा यही हाल आँसू, थूक और दूध का भी है। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص97)
ग़ुस्ल खाने में जाने से पहले बिस्मिल्लाह शरीफ़ पढ़ें, ग़ुस्ल खाने में जा कर कोई दुआ नहीं पढ़नी चाहिये।
ग़ुस्ल के बाद नमाज़ के लिये दोबारा वुज़ू करने की ज़रूरत नहीं जब कि बादे ग़ुस्ल कोई हदस लाहिक़ ना हुआ हो जैसा कि हदीस शरीफ़ में उम्मुल मुमिनीन हज़रते आइशा सिद्दीका रदिअल्लाहु त'एआला अन्हा से रिवायत है फरमाती हैं कि रसूलुल्लाह ग़ुस्ल के बाद वुज़ू नहीं फरमाते। (مطلب سنن الفسل، ص156، ج1)
और दूसरी हदीस में है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया जो शख्स ग़ुस्ल के बाद वुज़ू करे तो वो मेरे तरीके पर नहीं। (کنز العمل حدیث نمبر 26249، ج9)
चूड़ी दार पजामा मर्द व औरत दोनों के लिये मम्नूअ है।
जैसा कि फतावा रज़विय्या शरीफ़ में है: चूड़ी दार पजामा पहनना मम्नूअ है कि वज़'अ फासिक़ों की है।
शैख़ मुहक़्किक़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस दहेल्वी रहमतुल्लाह अलैह आदाबुल लिबास में फरमाते हैं: सलवार जो अज़मी इलाक़ों में मशहूर व मारूफ़ है, अगर टखनो से नीचे हो या दो तीन इंच (सिकन) नीचे हो तो बिदत व गुनाह है। (نصف اول، ج9، ص107)
अब अगर कपड़ा मोटा है जिस से बदन छुप जाता है, झलकता नहीं है मगर वो बदन से इस क़दर चिमटा हुआ है कि बदन की बनावट ज़ाहिर होती है तो ऐसे कपड़े में जो कि नमाज़ हो जायेगी, मगर ऐसा कपड़ा लोगों के सामने पहनना औरतों को नाजाइज़ व गुनाह है और मर्दों को भी ना चाहिये। (فتوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص133)
एक नमाज़ का फिदिया एक सा जौ या आधा सा गेहूँ है।
एक सा का वज़न 4 किलो 97 ग्राम है और आधा सा का वज़न 2 किलो 47 ग्राम है और अगर उस की क़ीमत का फिदिया अदा करना चाहें तो बाज़ार में मुतवस्त गेहूँ या जौ की जो क़ीमत हो वो अदा की जाये।
फ़तावा अमजदिय्या में है : एआला हज़रत किब्ला क़ुद्स सिर्रहुल अज़ीज़ की तहक़ीक़ ये है कि आधा सा की मिक़दार 1 सौ 75 रुपैया अठनी भर ऊपर है। लिहाज़ा अगर गेहूँ दें तो आधा सा जिसकी मिक़दार ज़िक्र की गई और अगर जौ देना चाहें तो पूरा एक सा जिस की मिक़दार 3 सौ 51 भर रुपैया भर है और अगर किसी दूसरे गल्ले से सदक़ा देना चाहें तो आधा सा गेहूँ या एक सा जौ की क़ीमत का वो गल्ला दें या क़ीमत ही को सदक़ा -ए- फित्र में दे दें।(ج1، ص383)
मुहक़्किके अस्र हज़रत मुफ़्ती निज़ामुद्दीन साहब बरकाती एक सवाल के जवाब में तहरीर फरमाते हैं, गेहूँ से सदक़ा -ए- फित्र की मिक़दार 2 किलो 46 ग्राम है इसी पर उलमा -ए- अहले सुन्नत मुदर्रिसे अहले सुन्नत व आवामे अहले सुन्नत का ताम्मुल है और अंदल तहक़ीक़ यही हक़ व सहीह है। लिहाज़ा मुसलमान इसी पर अमल करें और किसी शक व शुब्हा में ना बढ़ें। (ماہنامہ اشرفیہ اگست 2004 ص7)
नर्म फ़र्श मस्लन क़ालीन कम्बल वग़ैरह पर सजदा करना उस वक़्त जाइज़ है जब उस पर नाक और पेशानी खूब अच्छे तरीके से जम जायें यानी इतना दब जाये कि अब दबाने से ना दबे वरना नहीं और जब सजदा नहीं होगा तो नमाज़ भी नहीं होगी क्योंकि सजदा फ़राइज़े नमाज़ से है।
ऐसा ही फ़तावा हिंदिया, जिल्द 1, सफहा 70 और बहारे शरीअत हिस्सा सोम में है। (فتوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص139)
जिन नमाज़ों के बाद सुन्नतें हैं उन में सलाम के बाद मुख्तसर दुआओं पर इक्तिफा करना चाहिये ताकि सुन्नतों में ज़्यादा ताखीर ना हो कि ज़्यादा ताखीर को फुक़हा -ए- किराम ने मकरूह फ़रमाया है। (در مختار میں ہے، ج1 ص530)
रही तस्बीहे फ़ातिमा तो उस की फ़ज़ीलत अहादीसे करीमा में सौ मर्तबा पढ़ने के साथ खास है लिहाज़ा इस का शुमार अज़्कारे तवीला में होगा। इसीलिए सुन्नतों के बाद पढ़ना अफज़ल है और फ़ज्र व अस्र में चूँकि फ़र्ज़ नमाज़ के बाद सुन्नत नहीं है इसीलिये क़ब्ले दुआ पढ़ना बेहतर है और सलातो सलाम अगर लोग इज्तिमाई तौर से पढ़ रहे हो तो सलातो सलाम पढ़ना अफ़ज़ल है कि जमाअत में बरकत है बशर्ते कि लोग उस वक़्त नमाज़ में मशगूल ना हों वरना उन की नमाज़ में खलल होगा और दुआ -ए- मजमा -ए- मुस्लिमीन अक़रब बकौल उलमा फरमाते हैं, जहाँ चालीस मुस्लमान जमा होते हैं, उन में एक वली अल्लाह ज़रूर होता है। (ایسا ہی فتاویٰ رضویہ ج9، ص175، میں ہے)
वो गुमराह इमाम जिस की गुमराही हद्दे कुफ्र को पहुँच गयी हो जैसे राफ़ज़ी, देवबंदी, वहाबी, नज्दी वग़ैरह कि ये लोग अल्लाह और नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तौहीन करते हैं या तौहीन करने वालों को अपना पेशवा या कम अज़ कम मुसलमान ही जानते हैं, इन के पीछे नमाज़ पढ़ने से सवाब मिलना तो दरकिनार नमाज़ ही नहीं होती।
और अगर गुमराही हद्दे कुफ्र को पहुँची हो तो ऐसे इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ना गुनाह व मकरूहे तहरीमी वाजिबुल इआदा है ख्वाह हालते इख़्तियार में पढ़ना या इस्तिराब में। लिहाज़ा ऐसे इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले तो तौबा व इस्तिग़फ़ार करें और जितनी नमाजें पढ़ चुके हैं उन का इआदा करें । (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص149)
इमाम मुन्फरिद की तरह करेगा क्योंकि वो बज़ाते खुद मुन्फरिद की मंज़िल में है और इमाम को इमामत की निय्यत करना ज़रूरी नहीं है, बग़ैर इस के भी मुक़्तदियों की नमाज़ सही है मगर फ़ज़ीलते जमाअत के हुसूल के लिये वो हाज़िरीन की भी निय्यत करे मस्लन फ़ज्र की निय्यत यूँ करे, निय्यत की मैने आज की दो रकअत नमाज़े फ़ज्र की और हाज़िरीन की इमामत की।
बहारे शरीअत में है, इमाम को निय्यते इमामत मुक़्तदी की नमाज़ सही होने के लिये जरूरी नहीं है, यहाँ तक कि अगर इमाम ने ये क़स्द कर लिया कि फलाँ का इमाम नहीं हूँ और इस ने इस की इक़्तिदा की नमाज़ हो गयी। मगर इमाम ने इमामत की निय्यत ना की तो सवाबे जमाअत ना पायेगा।(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص149)
जवाब : बकर का ये कहना सहीह नहीं कि "ज़ैद की नज़र चली गयी है इसीलिये ज़ैद के पीछे नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं" अगर वो सुन्नी सहीहुल अक़ीदा, सहीहुल किरअत है तब तो उसकी इक़्तिदा में नमाज़ बिला शुब्हा जाइज़ व दुरुस्त है और कोई अदना सी कराहत भी नहीं, हाँ अगर वो नाबीना हो गया होता और जमाअत में कोई दूसरा इस से बेहतर होता तो इस सूरत में उस की इमामत ख़िलाफ़े अवला होती मगर नाजाइज़ अब भी ना होती कि ख़िलाफ़े अवला जाइज़ होता है गो कि इस से बचना बेहतर हो।
बकर गलत मसअला बताने की वजह से सख्त गुनाहगार हुआ उस पर लाज़िम है कि तौबा करे और आइंदा बगैर इल्म के मसअला ना बताने का पुख्ता अहद करे। हदीस शरीफ में है कि : जो बगैर जानकारी के मसअला बताये उस पर आसमान व ज़मीन के फिरिश्ते लानत करते हैं। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص152)
बाज़ उलमा -ए- बय्यिना मुतकल्लिम की आवाज़ मानते हैं और बाज़ नहीं मानते तो अगर लाउड स्पीकर से अज़ान हो और लाउड स्पीकर की आवाज़ मुतकल्लिम की आवाज़ ना मानें तो खामोश रहने और जवाब देने के बारे में वो हुक्म ना होगा जो अज़ान की असल आवाज़ पर है और अगर मुतकल्लिम ही की आवाज़ मानें तो फिर वही हुक्म होगा जो अज़ान की असल आवाज़ पर है कि जब अज़ान हो तो इतनी देर के लिये सलाम, कलाम और जवाबे सलाम तमाम काम काज छोड़ दिये जायें और अज़ान को गौर से सुना जाये और अज़ान का जवाब दिया जाये कि जो अज़ान के वक़्त बातों में मशगूल रहता है उस पर माज़ अल्लाह ख़ातिमा बुरा होने का अंदेशा है कि अज़ान के वक़्त खामोश रहें, ख्वाह लाउड स्पीकर से अज़ान हो या बगैर लाउड स्पीकर के।(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص159)
अगर इस से तस्वीब मुराद है यानी अज़ान के बाद नमाज़ के लिये दोबारा ऐलान करना जैसे "الصلوۃ والصلاۃ یا قامت قامت یا الصلاۃ والسلام علیک یا رسول اللہ" अपने अपने उर्फ के मुताबिक़ तो ये मुस्तहसन है सिवाये मग़रिब के।
ये अज़ान से पहले दुरूद शरीफ़ पढ़ना ये भी दुरुस्त है अज़ान के कलिमात में इज़ाफ़ा नहीं, दुरूद शरीफ़ पढ़ने से रोकने के लिये वहाबिया ने तरह तरह के शुब्हात लोगों में फैला रखे हैं लेकिन सुन्नियों को इन के बहकावे में ना आना चाहिये। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1)
जवाब : अगर ज़ैद में ये सारी खराबियाँ हैं तो ज़ैद फासिके मुअल्लिन है, उसे मुअज़्जिन बनाना जाइज़ नहीं, बल्कि माज़ूल करना लाज़िम है। हदीस शरीफ़ में है इमाम ज़ामिन और मुअज़्ज़िन अमानतदार। (سنن ابو داؤد شریف ص77)
और ज़ाहिर है कि फ़ासिक़ अमीन नहीं हो सकता लिहाज़ा मक़सूदे अज़ान के आलामे बावक़्ते नमाज़ सहरी व इफ़्तार है जो फ़ासिक़ की अज़ान से हासिल नहीं हो सकता बल्कि इसकी अज़ान मकरूह है दोबारा अज़ान दी जाये।
बहारे शरीअत में है खुंसा व फ़ासिक़ अगर्चे आलिम ही हो और नशा वाले और पागल और ना समझ बच्चे और जुनुब की अज़ान मकरूह है। इन सब की अज़ान का इआदा किया जाये। (ج3، ص31)
कंज़ुल ईमान में शाया शुदा मसअला दुरुस्त है यानी غَیرِ المغضوب को غَیرُ المغضوب या ء के ज़ुम्मा के साथ पढ़ लिया तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी वजह ये है कि लहन से नमाज़ उसी वक़्त फ़ासिद होगी जब माना फ़ासिद हो जाये अगर माना फ़ासिद ना हो तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी अलबत्ता ऐसा लहन मकरूह है।
रह गयी बात फैले हराम के बावजूद नमाज़ के सहीह होने की तो ये ऐसे ही है जैसे कोई शख्स नमाज़ में किरअत जान बूझ कर बे तरतीब पढ़ दे तो अगर्चे इस का ये फेल हराम है और वो अपने इस फेले हराम के सबब गुनाहगार होगा लेकिन नमाज़ हर हाल में अदा हो जायेगी। (فتاویٰ مرکز تربیت افتا ج1، ص169)
जवाब : जिस शख्स ने नमाज़ की किरअत ایاک نستعین में काफ़ ज़मीरे मुंफसिल के ज़बर को खींचकर पढ़ दिया कि वो अलिफ़ के मानिंद हो गया तो उसकी नमाज़ हो जायेगी क्योंकि यह अलिफ़ की ज़्यादती से मानी में कोई तग़य्युर वाकेअ नहीं है इस बाब में क़ायदा ए कुल्लिया ये है कि अगर ऐसी ग़लती हो जिस से मानी बदल जाये तो नमाज़ फ़ासिद हो जाएगी वरना नहीं और अगर एराबी ग़लती ऐसी हो जिस से माना बदल जाये तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी जैसे وَاَنْھٰی عَنِ الْمُنْکَرِ ने "ر" के बाद "ی" ज़्यादती है उस के बावजूद भी नमाज़ फ़ासिद नहीं होती कि तग़य्युर माना नहीं है।(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص169)
जवाब : इमाम के "وَحُصِّلَ مَا فِی الصُّدُوْرِ" के बाद सूरह क़ुरैश की आयत पढ़ने से नमाज़ फ़ासिद ना होगी और ना सजदा ए सह्व की ज़रूरत क्योंकि नमाज़ उस वक़्त फ़ासिद होती है जब कि माना फ़ासिद हो जाये और सूरते मज़कूरा में माना फ़ासिद नहीं होता लिहाज़ा नमाज़ फ़ासिद ना हुई। हाँ अगर आयत याद करने में बा क़द्रे रुक्न साकित रहा तो सजदा ए सह्व वाजिब है वरना नहीं। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص170)
जिस शख्स से अरबी का सहीह तलफ़्फ़ुज़ अदा ना हो तो वो किसी और ज़ुबान में अरबी का तर्जुमा वग़ैरह हरगिज़ नहीं पढ़ सकता बल्कि इस पर हुरूफ़ की सहीह अदायगी की कोशिश वाजिब है और कोशिश के बावजूद सहीह हुरूफ़ अदा नही होते तो इस कोशिश के दौरान नमाज़ वग़ैरह सहीह व दुरूस्त है अगर कोशिश तर्क कर दी तो गुनाहगार होगा और नमाज़ फ़ासिद होगी जैसा कि दुर्रे मुख्तार में है (ج1، ص582)
जवाब : अत्तहिय्यात के शुरू में बिस्मिल्लाह पढ़ना मकरूहे तहरूमी है कि ये आयते क़ुरआनी है जो कियाम के सिवा किसी और रुक्न में पढ़ना जाइज़ नहीं।
फ़तावा रज़विय्या में है : कियाम के सिवा रुकूअ व सुजूद क़ुऊद किसी जगह बिस्मिल्लाह पढ़ना जाइज़ नहीं कि वो आयते क़ुरआनी है और नमाज़ में कियाम के सिवा और जगह कोई आयत पढ़नी मम्नूअ है। (ج3، ص134)
अगर बायीं जानिब मुक़तदी कुछ कम हों तो आने वालों के लिये बायीं जानिब खड़ा होना अफ़ज़ल है वो अक़रब अलल इम्कान और अगर इमाम के दोनों जानिब मुक़तदी बराबर हों तो दायीं जानिब खड़ा होना अफ़ज़ल है।
रहा किसी के लिये सफ़ में जगह छोड़ना तो ये मम्नूअ व नाजाइज़ व मकरूहे तहरीमी है। आला हज़रत रदीअल्लाहु त'आला अन्हु फ़रमाते हैं : वस्ले सुफूफ और उन की रुख्ना बंध अहम ज़रूरिय्यात से है और तर्क फर्जा मम्नूअ व नाजाइज़ है। (فتاوی رضویہ، ج3، ص316)
और इसी में सफ़ह 318 पर है "किसी सफ़ में फर्जा रखना मकरूहे तहरीमी है।
हदीस शरीफ में है : सफ़े दुरुस्त करो और अपने काँधे सब एक सीध में रखो और सफ़ के रुख्ने बन्द करो और मुसलमानों के हाथों में नर्म हो जाओ और सफ़ में शैतान के लिये खिड़कियाँ ना छोड़ो और जो शख्स सफ़ को मिलायेगा अल्लाह त'आला उसे मिलायेगा और जो शख्स सफ़ को काटेगा अल्लाह त'आला उसे काटेगा। (ابو داؤد شریف ج1، ص97) (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص188)
पीर साहब का कहना दुरुस्त है कि "अगर अजनबी जगह गये जमाअत खड़ी है मालूम नहीं कि इमाम सुन्नी है या देवबंदी तो नमाज़ पढ़ लें बाद में मालूम हुआ कि इमाम देवबंदी है तो नमाज़ दोहरानी पड़ेगा। इसी तरह एक सवाल के जवाब में आला हज़रत लिखते हैं।
"जब कि शुब्हा की कोई वजह क़वी ना हो जमाअत से पढ़े फिर अगर तहक़ीक़ हो कि इमाम वहाबी था तो नमाज़ फेरे। (فتاوی رضویہ، ج3، ص250) (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص.)
अगर किसी को ऐसा उज़्र हो गया कि वो कियाम पर क़ादिर नहीं तो वो माज़ूर है बैठ कर नमाज़ पढ़ने की इजाज़त है। सफ़ में जहाँ जगह मिले वहाँ बैठ सकता है इस की वजह से क़त'अ सफ़ ना होगा और अदमे जवाज़ की कोई वजह पाई नहीं जाती इसीलिये सफ़ के दरमियान या किनारे जहाँ से जगह मिले वहाँ बैठ कर नमाज़ पढ़े। (فتاویٰ مرکز تربیت افتا، ج1 ص261)
पेशाब या पखाना की हाजत शदीद मालूम होने की हालत में नमाज़ पढ़ना मकरूहे तहरीमी है, इसीलिये रफ़ा ए हाजत के बाद ही नमाज़ पढ़े और अगर वक़्त इतना तंग है कि रफ़ा ए हाजत और वुज़ू करने में वक़्त निकल जाने का अंदेशा हो तो उसी हालत में नमाज़ अदा कर ले लेकिन अगर उस का ज़न ग़ालिब है कि नमाज़ ही की हालत में पेशाब या पख़ाना हो जाएगा तो रफ़ा ए हाजत करे उस के बाद उस नमाज़ की क़ज़ा करे।(فتاویٰ مرکز تربیت افتا، ج1 ص240،241)
जाड़े के मौसम में ऊनी टोपी मोड़ कर पहनने का जो रिवाज है वो शरअन कफे सौब नहीं क्योंकि फुक़हा की इस्तिलाह में "कफे सौब" (कपड़ा मोड़ना) ये है कि आदत के ख़िलाफ़ कपड़ा को मोड़ कर इस्तिमाल किया जाये और यहाँ ऐसा नहीं है। टोपी आम तौर पर मोड़ कर ही इस्तिमाल करने की आदत है बल्कि बहुत सी टोपियाँ यूँ ही मोड़ कर ही पहनी जाती हैं इसीलिए जाइज़ है और इस की वजह से नमाज़े में ज़र्रा बराबर भी कराहत ना आयेगी। आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तहरीर फरमाते हैं कि किसी कपड़े को ऐसा ख़िलाफ़े आदत पहनना जिसे मुहज़्ज़ब आदमी मजमा ना कर सके और करे तो अदब ख़फ़ीफुल हरकात समझा जाये ये भी मकरूह है। (فتاویٰ مرکز تربیت افتا، ج1 ص242)
क़ज़ा नमाज़ों का फिदिया ज़िंदगी में नहीं अदा किया जा सकता कि फिदिया मर्द की जानिब से उस के वुरसा की मौत के बाद अदा करते हैं चुनाँचे हदीसे पाक में है: जो कोई मार जाये और उस पर रोज़े की क़ज़ा बाक़ी हो तो उस की जानिब से हर दिन के बदले एक मिस्कीन को खाना खिलाया जाये नीज़ सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम इरशाद फरमाते हैं: कोई किसी की जानिब से रोज़ा रखे नमाज़ पढ़े हाँ उस की तरफ से खाना खिला दे।
इमाम तहतावी फरमाते हैं : यानी फिदिया दे कर रोज़ा साकित करने के बारे में नस वारिद है और मशाइख़ इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इस मसअले में नमाज़ रोज़ा के मिस्ल है इसीलिये कि वो रोज़े से अहम है।
अल्लामा हस्कफ़ी रहमतुल्लाह त'आला अलैह फरमाते हैं : अगर किसी की वफ़ात हो गयी और उस के जिम्मे क़ज़ा नमाज़ें हैं और कफ़्फ़ारे की वसिय्यत कर गया तो हर नमाज़ और हर रोज़ा के बदल निस्फ सा गेहूँ सदक़ा ए फित्र की मिक़दार उस के तिहाई माल में से दिया जाये और अगर मय्यित ने कुछ माल ना छोड़ा तो उस का वारिस निस्फ सा गेहूँ लेकर एक नमाज़ या एक रोज़े के बदल किसी गरीब को दे फिर वो गरीब उसी वारिस को वापस कर दे और इसी तरह इतनी बार लौट फेर करे कि सब नमाज़ों और रोज़ों का फिदिया अदा हो जाये।
लिहाज़ा जो शख्स मर जाये और उस के जिम्मे नमाज़ और रोज़े हों तो उन के बदले फिदिया दे सकता है लेकिन ज़िन्दा ये चाहे कि मै ज़िंदगी में ही फिदिया दे कर कज़ा नमाज़ों से बरीउज़्ज़िमा हो जाऊँ तो ऐसा नहीं हो सकता। अहादीसे पाक में मौत के बाद फिदिये की अदायगी का हुक्म दिया गया है।
लिहाज़ा बकर का क़ौल सहीह है कि बादे मौत वसिय्यत या बग़ैर वसिययत वुरसा का मय्यित के जिम्मे क़ज़ा नमाज़ों और रोज़ों का फिदिया देना सहीह है। इसीलिये ज़ैद के जिम्मे वो नमाज़ें बादस्तूर बाक़ी हैं उसे चाहिए कि उन्हें अदा कर और अगर सहीह कोशिश के बावजूद ना कर सके तो बादे मौत अपने वुरसा को फिदिया की अदायगी की वसिय्यत कर जाये। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص287-288)
बेशक कुछ वाजिबात ऐसे हैं कि सजदा ए सह्व वाजिब होने के बाद भी साकित हो जाता है मस्लन वक़्त में गुंजाइश ना हो तो सजदा ए सह्व साकित हो जायेगा। जैसा कि फ़क़ीहे आज़मे हिन्द हुज़ूर सदरुश्शरिया रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं : सजदा ए सह्व उस वक़्त वाजिब है कि वक़्त में गुंजाइश हो अगर वक़्त ना हो मस्लन नमाज़े फ़ज्र में सह्व वाकेअ हो और पहला सलाम फेरा और सजदा अभी किया कि आफताब तुलू कर आया तो सजदा साकित हो गया यूँ ही अगर क़ज़ा पढ़ता था और सजदा से पहले क़रसे आफताब ज़र्द हो गया सजदा साकित हो गया। जुम्आ या ईद का वक़्त जाता रहेगा जब भी यही हुक्म है। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص292-293)
ऐसी सूरत में ज़ैद दुरुदे इब्राहीम पूरा करने के बाद सजदा ए सह्व करे इसके लिये अहवाल (ज़्यादा मुहतात) तरीक़ा यही है कि अत्तहिय्यात पढ़ने के बाद दूरूद शरीफ भी पढ़े इस के बाद सजदा ए सह्व करे फिर अत्तहिय्यात व दुरूद शरीफ़ वग़ैरह पढ़कर सलाम फेरे। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص294)
मुसाफ़िर पर जमात वाजिब है या नहीं इस सिलसिले में उलमा का इख़्तिलाफ़ है कोई वुजूब और कोई अदम-ए-वुजूद का क़ौल करता है मगर आला हज़रत क़ुद्स सिर्रहु ने इन दोनों क़ौल के दरमयान तत्बीक़ फ़रमाई कि अगर मुसाफ़िर हालत-ए-क़रार में है तो जमात वाजिब है और अगर हालत-ए-फ़रार में है तो वाजिब नहीं। अलबत्ता हालत-ए-क़रार में होते हुए अगर मुसाफ़िर जमात तर्क करे तो उस पर फ़िस्क़ का हुक्म ब-निस्बत मुक़ीम के हल्का होगा। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص, 295)
खतीब जब खुत्बा में नबी पाक सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम का इस्मे पाक ले या आयते सलातो पढ़े तो सामईन को दिल में दूरूद दुरूद शरीफ पढ़ने का हुक्म है। उस वक़्त ज़ुबान से पढ़ने की इजाज़त नहीं। और मुजद्दिदे आज़म इमाम अहमद रज़ा खान अलैहिर्रहमा फरमाते हैं : और ख़ुत्बे में हुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम का इस्म पाक सुनकर दिल में दुरूद पढ़ें ज़ुबान से सुकूत फ़र्ज़ है। (فتاوی رضویہ، ج3، ص709)
ऐसा ही फ़तावा मुस्तफविय्या सफ़हा 220, बहारे शरीअत जिल्द 4, सफ़हा 103 में भी है। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص300)
मुसाफ़िर को जुम्आ की नमाज़ मुआफ़ है लेकिन जुम्आ के दिन ज़वाल के बाद सफर करना मकरूह है और ज़वाल से पहले भी सफर करना अच्छा नहीं और आला हजरत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं कि जिधर सफर को जाये जुमेरात या पीर का दिन हो और सुबह का वक़्त मुबारक है और अहले जुम्आ को रोज़े जुम्आ क़ब्ले जुम्आ सफर करना अच्छा नहीं। (فتاوی رضویہ، ج4، ص292)
अलबत्ता अगर किसी मजबूरी या खास वजह से सफर करना पड़े और वापसी में भी जुम्आ के दिन अस्र की नमाज़ से क़ब्ल पहुँचे तो उस वक़्त मुसाफ़िर पर ज़ुहर की नमाज़ अदा करना फ़र्ज़ है। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص308)
एक मस्जिद में दो मर्तबा जुम्आ की नमाज़ पढ़ना नाजायज़ है। इसीलिए कि नमाज़ -ए- जुम्आ के लिए ज़रूरी है कि इमाम ख़ुद सुलताने इस्लाम हो या उस का मुक़र्रर कर्दा वमाज़िन हो और ये ना हो तो ब-ज़रूरत वहां के मुसलमानों ने जिसे इमामते जुम्आ के लिए मुअय्यन व मुक़र्रर किया हो और मस्जिदे वाहिद के लिए दो इमाम की ज़रूरत नहीं, कि अवाम अज़ ख़ुद मुक़र्रर कर लें हाँ अगर मस्जिद तंग हो और वहाँ कोई सुन्नी जामे मस्जिद भी ना हो तो अराकीने मस्जिद सुन्नी क़ाज़ी के यहाँ उस की दरख्वास्त पेश करें अगर क़ाज़ी ज़रूरत समझे तो एक और लाइके इमाम शख़्स को इमामते जुम्आ की हैसियत से मुक़र्रर कर दे, अब ब-वजहे ज़रूरत बारी बारी दोनों की इक़्तिदा में नमाज़ दुरुस्त होगी लेकिन एक इमाम की इक़्तिदा में दो जमा'अत हरगिज़ जायज़ नहीं। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1, ص 318)
अगर मुक़ीम इमाम की इक़्तिदा में मुसाफ़िर ने जुम्आ अदा की तो जुम्आ की नमाज़ सही है और ज़ुहर उस के ज़िम्मे से साक़ित होगी। जुम्आ पढ़ने के लिए 6 शर्तें हैं, उनमें से एक भी शर्त मफ़क़ूद हो तो होगा ही नहीं।
(1) मिस्र या फ़ना-ए-मिस्र।
(2) सुलताने इस्लाम या उस का नायब जिसे जुम्आ क़ायम करने का हुक्म दिया।
(3) वक़्ते ज़ुहर।
(4) ख़ुत्बा।
(5) जमात यानी इमाम के इलावा कम से कम तीन मर्द।
(6) इज़्ने आम यानी मस्जिद का दरवाज़ा खोल दिया जाये कि जिस मुसलमान का जी चाहे आए कोई रोक टोक ना हो।
मज़ीद तफ़सील के लिए बहारे शरीयत, जिल्द 4, सफ़ा - 83 का मुताला करें! (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص, 319)
ख़ुदकुशी करने वाला अगर मुसलमान है तो उस की नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाएगी यही सही है। और आला हज़रत रदीअल्लाहु त'आला अन्हु ने यही लिखा है कि उस की नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाएगी, इस वक़्त अल-मल्फ़ूज़ जो दस्तयाब है उस में ना-जायज़ वाली बात नहीं लिखी है और अगर किसी क़दीम नुस्ख़ा में ना-जायज़ लिखा हो तो उसे किताबत व तबा'अत की ग़लती समझें! (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص, 327)
अगर हिजड़ा मुसलमान है तो बिला शुब्हा उस की नमाज़े जनाज़ा पढ़ना जायज़ व दुरुस्त बल्कि फ़र्ज़-ए-किफ़ाया है अगर्चे वो कैसा ही गुनाहगार व मुर्तकिब-ए-कबीरा हो अगर्चे उसने ज़िंदगी में कभी नमाज़ ना पढ़ी हो - (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص, 342)
अगर मनी अपनी जगह से शहवत के साथ जुदा नहीं होती तो पेशाब के साथ निकलने से ग़ुस्ल वाजिब ना होगा अलबत्ता वुज़ू टूट जाएगा । जैसा के सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं : "अगर मनी पतली पड़ गई कि पेशाब के वक़्त या वैसे कुछ फितरात बिला शहवत निकाल आई तो ग़ुस्ल वाजिब नहीं अलबत्ता वुज़ू टूट जाएगा । (فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص70)
जवाब: जै़द का क़ौल सही है बेशक माए मुस्ता'मल से हर नापाक कपड़ा पाक किया जा सकता है ख़्वाह कैसी भी नजासत लगी हो ना कि सिर्फ वो नजासत दूर की जा सकती है जो सूखने पर नज़र आए। हाँ उस से सिर्फ वुज़ू व ग़ुस्ल नहीं हो सकता है ऐसा ही फ़तावा रज़विय्यह जिल्द: 1, स़फ़ा 264 के हाशिया और बहारे शरीअ़त, जिल्द 2, स़फ़ा 102 पर है!
और बकर का क़ौल सही नहीं वो तौबा करे कि उसने बे-इल्म फ़तवा दिया। हदीस शरीफ़ में है यानी जिसने बे-इल्म फ़तवा दिया उस पर आसमान व ज़मीन के मलाइका ला'नत करते हैं। (کنز العمال، ج10، ص193)
जवाब: इस्तिन्जा का बेहतर तरीक़ा ये है कि बादे पेशाब पाक मिट्टी, कंकर या फटे पुराने कपड़े से पेशाब सुखाये फिर पानी से धो डाले लेकिन अगर सिर्फ पानी ही इस्तिमाल करे तो भी दुरूस्त है इस में कोई हर्ज नहीं और उस के पीछे नमाज़ पढ़ना बिला चूँ चिरा जायज़ है कि ढेले से इस्तिन्जा करना सुन्नत है फ़र्ज़ व वाजिब नहीं और ढेले के इस्तिमाल के बाद पानी का इस्तिमाल अफ़ज़ल है।
अलबत्ता अगर किसी को बा'द-ए-पेशाब क़तरा की शिकायत हो तो उस पर इस्तिबरा करना यानी ढेले वग़ैरा का इस्तिमाल करना वाजिब है।
और जै़द ने जो ये बात कही है कि जो इमाम बग़ैर ढेले के इस्तिन्जा करता है उस के पीछे नमाज़ नहीं होती हरगिज़ सही नहीं उस पर तौबा व इस्तिग़फ़ार लाज़िम कि उसने बग़ैर इल्म फ़तवा दिया दीस शरीफ़ में है जिसने बग़ैर इल्म फ़तवा दिया उस पर ज़मीन व आसमान के फिरिश्ते ला'नत करते हैं। (کنزل عمال، ج10، ص73)
और वो इस बुनियाद पर इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ना छोड़कर जमा'अत तर्क करता है तो वो फ़ासिक़ व मरदूद शहादत है। ऐसा ही फ़तावा रज़विय्या जिल्द 3, स़फ़ा: 380 पर है। (فتاوی فقیہ ملت،ج1، ص 73)
हर नमाज़ के लिये वुज़ू करते वक़्त मिस्वाक करना सुन्नते ग़ैरे मुअक्किदा है। हाँ अगर मुँह में बदबू हो तो इसे दूर करने के लिये मिस्वाक करना सुन्नते मुअक्किदा है। जैसा कि इमाम अहमद रज़ा खान बरेलवी कुद्दस सिर्रहू तहरीर फरमाते हैं कि "मिस्वाक वुज़ू की सुन्नते क़ब्लिया है, हाँ सुन्नते मुअक्किदा उस वक़्त है जब कि मुँह में तग़य्युर हो। (فتاوی رضویہ، ج1، ص155) (فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص73)
नजिस कपड़ा पहन कर ग़ुस्ल नहीं करना चाहिए क्योंकि पानी पड़ने के बाद नजासत फैल जायेगी हाथ में लग जायेगी फिर बे एहतियाती से सारा बदन बल्कि बर्तन भी नजिस हो जायेगा, लिहाज़ा पाक कपड़ा ही पहन कर ग़ुस्ल करना चाहिये अगर कोई दूसरा पाक कपड़ा मौजूद ना हो तो पहले इस की नजासत दूर कर ले अगर नजासत वाले कपड़े को पहन कर पानी के बाहर ग़ुस्ल किया और अब पानी डाला तो अब वो कपड़ा पाक हो गया क्योंकि ज़्यादा पानी डालना तीन बार धोने और निचोड़ने के क़ाइम मक़ाम हो जायेगा और अगर तालाब या नदी में खूब ग़ुस्ल करे तो भी पाक हो जाएगा और दबाव पड़ने से भी नाजासत दूर हो जायेगी और अगर नजासत खुश्क है तो इसे रगड़ना ज़रूरी है क्योंकि बग़ैर रगड़े ऐसी नजासत का ज़वाल (खत्म होना) मुश्किल है महज़ मरूर माए (पानी का गुज़रना) या बार बार दबाव काफी नहीं। (فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص75)
जब मर्द बैठ कर नमाज़ पढ़े तो वो रुकूअ में इतना झुकेगा के पेशानी झुक कर घुटनो के मुक़ाबिल आ जाये और इतना करने के लिये सुरीन उठाने की ज़रूरत नही तो सुरीनोंं को उठा कर पाँव की उंगलियो को क़िब्ले की तरफ़ मुतवज्जह भी नही करेगा। जैसा कि आला हज़रत अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं "बैठ कर नमाज़ पढ़ना तो इसका दर्जा ए कमाल व तरीक़ा ए आ'अदाल ये है कि पेशानी झुक कर घुटनों के मुक़ाबिल आ जाये इस क़द्र के लिये सुरीन उठाने की हाजत नही तो क़द्रे आ'अदाल से जिस क़द्र ज़ायद होगा बेकार व बेजा में दाखिल हो जायेगा"। (فتاوی رضویہ، ج3، ص51) (فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص 100)
इमाम से पहले अगर तशह्हुद, दुरूद शरीफ़ और दुआ से फारिग हो जाये तो खामोश बैठा रहे या तशह्हुद को शुरु से फिर पढ़े या कलिमा ए शहादत की तकरार करे या कोइ दुआ पढ़े जो याद हो। और सहीह ये है कि पढ़ने में जल्दी ना करे इस तरह पढ़े की इमाम के साथ फारिग हो। (فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص101)
फिक़्ह की किताबो में नमाज़ की सुन्नतो की तादाद मुख्तलिफ़ है। दुर्रे मुख्तार मा शामी जिल्द अव्वल में इसकी तादाद 23 है, फतावा आलमगीरी में 26 है, मज्मउल अनहर शरह मुल्तक़ी अल बहर में 22, बहरुर रायिक़ शरह कंजूल दक़ाइक़ में 23, मिराक़िल फलाह शरह नूरुल ईज़ाह में 51 और किताबुल फिक़्ह अलल मज़ाहिबुल रबा में 40 है जब कि बहारे शरीअत जिल्द 3 में इनकी तादाद 90 है। लिहाज़ा किताबे फिक़्ह में सुन्नतो की तादाद मुख्तलिफ़ होने से ज़ाहिर यही है की बहारे शरीअत में बतायी गयी नमाज़ की सुन्नतें मुअक्कदा और गैर मुअक्कदा दोनों हैं। (فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص102)
नमाज़ में दोनों सजदे करना फ़र्ज़ है, लिहाज़ा जो सजदा भुल जाए हुक्म ये है कि अगर नमाज़ के आखिर में याद आया तो सजदा कर ले फिर अत्तहिय्यात पढ़ कर सजदा सह्व करे और अगर क़ादा या सलाम के बाद कलाम से पहले याद आया तो सजदा करके अत्तहिय्यात पढ़ कर सजदा सह्व करे और क़ादा भी करे वो क़ादा बातिल हो गया। हुज़ूर सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं कि " किसी रकअत का कोई सजदा रह गया आखिर में याद आया तो सजदा कर ले फिर अत्तहिय्यात पढ़ कर सजदा सह्व करे और सजदा के पहले जो अफ़आले नमाज़ अदा किये बातिल ना होंगे। हाँ अगर क़ादा के बाद वो नमाज़ वाला सजदा किया तो जरूर वह क़ादा जाता रहा। (بہار شریعت، ج4، ص51)
और अगर सलाम वा कलाम के बाद याद आया कि एक सजदा रह गया है तो फिर से नमाज़ पढ़े। (فتاوی فقیہ ملت، ج4، ص51)
अगर इमाम को रुकू में पायें और ये गालिब गुमान हो कि सना पढ़ेगा तो रुकू छूट जाएगा तो ऐसी सूरत मे सीधा खड़े होने की हालत में तकबीरे तहरीमा कहे और बगैर सना पढ़े तकबीर कहता हुआ रुकू में चला जाये और अगर इमाम का हाल मालूम हो कि रुकू में देर करता है सना पढ़ कर भी शामिल हो जाऊँगा तो सना पढ़ कर रुकू में जाये कि ये सुन्नत है और तकबीरे तहरीमा खड़े होने की हालत में ही कहना फ़र्ज़ है। बाज़ लोग जो नही जानते वो ये करते है कि इमाम अगर रुकू में है तो तकबीरे तहरीमा कहते हुये झुकते हैं। अगर इतना झुकने से पहले अल्लाहु अकबर खत्म ना किया कि हाथ फेलाए तो घुटने तक पहुँच जाए तो नमाज़ ना होगी। ऐसा ही फतावा रज़विय्या जिल्द सोम सफहा 193 में है।
और हदीस शरीफ में है : जिस ने इमाम को (रुकू में) पाया और इमाम के सर उठाने से पहले रुकू कर लिया तो उसे वो रकअत मिल गयी। (بیہقی شریف جلد دوم صفحہ128)
जवाब : ज़ैद का कहना दुरुस्त है कि इस आयत को बतौरे दुआ पढ़ना और मुक़्तदी पीछे आमीन कहें जाइज नही अल्बता कोई शख्स किसी परेशानी में मुब्तिला हो तो इस आयत को बतौरे वज़ीफ़ा पढ़ कर अल्लाह तआला से दुआ करे तो वो दुआ कुबूल फरमा लेता है। मगर आला हज़रत इमाम अहले सुन्नत सैय्यिदुना इमाम अहमद रजा मुहद्दिस बरेलवी رَحْمَۃُ اللہِ تَعَالٰی عَلَیْہِ का क़ौल इसके मुतालिक़ नज़र से नही गुज़रा। (فتاوی فقیہ ملت، ج1،ص107)
आला हज़रत علیہ الرحمۃ والرضوان इसी तरह के एक सवाल का जवाब देते हुये तहरीर फरमाते है : रसूलुल्लाह صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم ने इरशाद फरमाया "शैतान तुम्हारे कपड़े अपने इस्तिमाल में लाता है तो कपड़ा उतार कर तह कर दिया करो कि इस का दम रास्त् हो जाये कि शैतान तह किये हुए कपड़े को नही पहनता।" (۔ (کنز العمال، ج15، ص299)
और इब्ने अबिददुनिया में है " जहाँ कोई बिछौना बिछा हो जिस पर कोई सोता ना हो उस पर शैतान सोता है। इन अहादिस से इस की अस्ल निकलती है और पुरा लपेट देना बेहतर।" (فتاوی رضویہ، ج3، ص75)
बाकी ये कि शैतान इस पर नमाज़ पढता है, ये बात सहीह नही है। (فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص108)
जवाब: घर की दीवार या किसी खंबे के सामने नमाज़ पढ़ी जाये और अगर ये मुमकिन ना हो तो कम से कम एक हाथ यानी देढ़ फीट ऊंची और उंगली के बराबर मोटी कोई चीज़ सामने रख ली जाये तो इसके पीछे से गुज़र जाना जायज़ होगा।
बिला उज़्रे शरई घर में नमाज़ पढ़ने और जमाअत को छोड़ने वाला फासिक़ मर्दूदशहदा है। जमाअत छोड़ने का उज़्र है कि मरीज़ जिसे मस्जिद तक जाने में मशक़्क़त हो, अपाहिज़ जिसका पाँव कट गया हो, जिस पर फालिज हुआ, इतना बूढ़ा कि मस्जिद तक जाने से आजिज़ हो, अंधा अगरचे कोई ऐसा हो जो इसे मस्जिद तक पहुँचा दे, सख्त बारिश और सख्त कीचड़ का हाइल होना, सख्त सर्दी, सख्त तारीकी, आँधी, माल या खाने के तलफ होने का अंदेशा, क़र्ज़ ख्वाह का खौफ और ये रंग दस्त है ज़ालिम का खौफ़, पख़ाना पेशाब या रीह की सख्त हाजत है, खाना हाज़िर है और नफ़्स को इस ख्वाहिश हो, मरीज़ की तीमार दारी कि जमाअत के लिये जाने से उस को तकलीफ़ होगी और घबराएगा, ऐसा ही बहारे शरीअत, जिल्द 3, सफ़हा 131 पर है। (فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص149)
फरमाया खौफ या मर्ज़ और एक रिवायत में है जो अज़ान सुने और बिला उज़्र हाज़िर ना हो उसकी नमाज़ ही नहीं। (بہار شریعت ج3، ص146)
और आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु फरमाते हैं :जमा'अत हर मुसलमान पर वाजिब है यहाँ तक कि तर्के जमा'अत पर सहीह हदीस में फरमाया ज़ुल्म और कुफ्र है और निफ़ाक़ ये है कि आदमी अल्लाह के मुनादी को पुकारता सुने और हाज़िर ना हो। (فتاوی رضویہ، ج6، ص38)
और हज़रत फ़क़ीहे आज़मे हिन्द अलैहिर्रहमा व रिदवान दुर्रे मुख्तार, रद्दुल मुहतार और गुनिया के हवाले से फरमाते हैं : जमाअत वाजिब है बिला उज़्र एक बार भी छोड़ने वाला गुनाहगार और मुस्तहिके सज़ा है और कई बार तर्क करे तो फ़ासिक़ मरदूदुश्शहादा और उसको सख्त सज़ा दी जायेगी अगर पड़ोसियों ने सुकूत किया वो भी गुनाहगार हुये। (بہار شریعت ج3، ص130)
जवाब : सूरते मसऊला में जब कि सफे अव्वल में मिंबर की वजह से दो मुक़्तदियों की जगह खाली रहती है तो ये बेशक क़तअ सफ है और सफ क़तअ करना हराम है। हदीस शरीफ़ में है : रसूलुल्लाह सल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अपनी सफो को सीधे रखो और कंधे से कंधा मिलाओ और अपने भाईयो के साथ आराम से खड़े हो और दरमियान जगह को पुर करो सफ में शैतान के लिए फराखी ना छोड़ो और जिस ने सफ़ को मिलाया उस को अल्लाह मिलायेगा और जिस ने सफ़ को क़तअ किया उस को अल्लाह अलाहिदा कर देगा। (مشكوة شريف،ص99)
लिहाज़ा जब मेहराब में छोटा मिंबर बनाया जा सकता है तो मिंबर का वो हिस्सा जिस से क़तअ सफ हो उस को तोड दिया जाए और मिंबर बना दिया जाए या मिंबर के सामने की जगह छोड़ कर सफ बंदी की जाए और ज़माना ए नबी सल्लाहू तआला अलैहि वसल्लम बल्कि खुल्फा ए राशिदीन के ज़माने में वस्त मस्जिद का दस्तूर ना था बाद की ईजाद है जैसा कि आला हज़रत तहरीर फरमाते हैं " ताक़ जिसे अब मेहराब कहते हैं हादिस है ज़माना ए अक़दस व ज़माना ए खुलफा राशिदीन में ना था। (فتاوی رضویہ،ج3،ص362) (فتاوی فقیہ ملت ج1،ص153)
अगर बच्चे मर्दों की सफ में खड़े हो तो नमाज़ में कोई खलल ना आएगा नमाज़ हो जाएगी लेकिन बेहतर ये है कि बच्चो को उससे रोका जाए और पीछे खड़े होने की तलक़ीन की जाए और सिर्फ एक बच्चा हो तो उलमा ने उसे सफ़ में दाखिल होने और मर्दों के दरमियान खड़े होने की इजाज़त दी है।
हाँ अगर बच्चे नमाज़ से खूब वाक़िफ हो तो उन्हें सफ़ से नहीं हटाना चाहिए और कुछ बे इल्म जो ये ज़ुल्म करते हैं कि लड़का पहले से नमाज़ में शामिल है अब ये आए तो उसे निय्यत बांधा हुआ हटा कर किनारे कर देते हैं और खुद बीच में खड़े हो जाते हैं ये महज़ जिहालत है और कुछ लोगो का ये खयाल है कि लड़का अगर बराबर खड़ा हो तो मर्द की नमाज़ ना होगी ग़लत है जिसकी कुछ असल नहीं, ऐसा ही फतावा रज़विय्या, जिल्द 3, सफह 73, पर है। (فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص154)
नमाज़ शुरू करके तोड़ना बिला उज़्रे शरई सख़्त नाजाइज़ व हराम है। खुदा -ए- त'आला का इरशाद है : "ولا تبطلوا اعمالکم" यानी अपने आमाल बातिल ना करो। (پارہ 26 سورہ محمد آیت 33)
हज़रते सदरुल अफ़ाज़िल अलैहिर्रहमा इस आयत की तफ़्सीर करते हुये तहरीर फ़रमाते हैं कि "इस आयत में अमल के बातिल करने की मुमानिअत फरमायी गयी तो आदमी जो अमल शुरू करे ख़्वाह वो नफ़्ल ही नमाज़ या रोज़ा या और कोई, लाज़िम है कि उस को बातिल ना करें। (تفسیر خزائن العرفان)
और आला हज़रत मुजद्दिदे आज़म सैय्यिदुना इमाम अहमद रज़ा खान अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "निय्यत तोड़ना बे ज़रूरते शरईया सख़्त हराम है।" (فتاوی رضویہ، ج3، ص383)
लिहाज़ा सूरते मसूऊला में अगर हल्की बारिश हुई या आँधी आई या ज़लज़ला का सिर्फ़ झटका महसूस किया तो इन सूरतों में नमाज़ तोड़ना जाइज़ नहीं, हाँ अगर सख्त बारिश या इतनी शदीद आँधी आई कि नमाज़ तोड़े बग़ैर चारा कोई नहीं या ज़लज़ला का झटका इतना सख़्त लगा कि जान जाने का खतरा है इन सूरतों में निय्यत तोड़ना जाइज़ है। (فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص159)
सूरते मसऊला में अगर इमाम पर सजदा ए सह्व वाजिब था जिस के लिये वो दाहिनी जानिब सलाम फेर रहा था या उसे सह्व याद ना रहा इसीलिये वो क़तअ की निय्यत से दाहिनी जानिब सलाम फेरने के बाद बायीं जानिब सलाम में मश्गूल था फिर कोई फेल नमाज़ के मनाफ़ी करने से पहले सजदा ए सह्व कर लिया तो इन सूरतों में सलाम फेरते वक़्त आने वाला जमाअत में शरीक हो तो उस की शिरकत सहीह है। और अगर सजदा ए सह्व वाजिब ना था मगर उस के लिये सलाम फेर रहा था, सह्व होना याद था उस के बावजूद निय्यते क़त'अ व सलाम में मशरूफ था या इख़्तितामे नमाज़ के लिये सलाम फेर रहा था इन सूरतों में मुक़्तदी का जमाअत में शरीक होना सहीह नहीं।
हज़रते सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा फ़रमाते हैं कि पहली बार लफ़्ज़े सलाम कहते ही इमाम नमाज़ से बाहर हो गया अगर्चे अलैकुम ना कहा हो उस वक़्त कोई शरीक हुआ तो इक़्तिदा सहीह ना हुई हाँ अगर सलाम के बाद सजदा ए सह्व किया तो इक़्तिदा सहीह हो गयी। (بہار شریعت، ج3، ص89)
और आला हज़रत रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तहरीर फरमाते हैं कि "सजदा में फ़र्ज़ है कि कम अज़ कम पाऊँ की एक उंगली का पेट ज़मीन पर लगा हो और पाऊँ की अक्सर उंगलियों का पेट ज़मीन पर जमा होना वाजिब है। यूँ ही नाक की हड्डी ज़मीन पर लगना वाजिब है। पाऊँ को देखिये उंगलियों के सिरे ज़मीन पर होते हैं किसी उंगली का पेट बिछा नहीं होता सजदा बातिल नमाज़ बातिल। (فتاوی رضویہ، ج1، ص55)
सैय्यिदुना आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "मस्जिदे कबीर सिर्फ़ वो है जिस में मिस्ले सेहरा इत्तिसाले सुफ़ूफ़ शर्त है जैसे मस्जिदे खवारिज्म के सोलह हज़ार सुतून हैं बाक़ी आम मसाजिद अगर्चे दस हज़ार गज़ मुकस्सर हो मस्जिदे सग़ीर है और इन में दीवार किब्ला तक बिला हाइल गुज़रना नाजाइज़। (فتاوی رضویہ، ج3، ص401)
लिहाज़ा हिंदुस्तान में ऐसी कोई बड़ी मस्जिद नहीं है जिस में नमाज़ी के सामने से गुज़रना जाइज़ है। (فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص169)
हज़रत अल्लामा इब्ने आबीदिन शामी रहीमहुल्लाह त'आला तहरीर फ़रमाते हैं : अब्दुल वहाब के मानने वाले नज्द से निकले और मक्का -ए- मुअज़्ज़मा व मदीना पर जबरदस्ती क़ब्ज़ा कर लिया वो लोग अपना मज़हब हम्बली बताते हैं। लेकिन इन का अक़ीदा ये है कि सिर्फ़ वही लोग मुसलमान हैं और जो इन के ऐतिक़ाद की मुखालिफ़त करे वो काफिर व मुशरिक हैं इसीलिये इन लोगों ने अहले सुन्नत व जमा'अत और इन के आलिमों के क़त्ल को जाइज़ ठहराया। (درا المحتار، ج4، ص262)
और देवबंदी मसलक के शैखुल इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद तांडवी लिखते हैं कि "मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब का अक़ीदा था कि जुमला अहले आलम और तमाम मुसलमान मुशरिक व काफिर हैं और इन से क़त्लो क़िताल करना और इन के अम्वाल को इन से छीन लेना हलाल और जाइज़ बल्कि वाजिब है।" (شہاب ثاقب صفحہ 43)
देवबंदी मसलक के दूसरे मशहूर मौलाना खलील अहमद अमेठी लिखते हैं : "मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब के वहाबी चेलों ने उम्मत को काफ़िर कहा।" (المہند صفحہ 37)
और जो किसी मुसलमान को काफ़िर कहे वो काफ़िर ना हो तो इससे काफ़िर कहने वाला खुद काफ़िर हो जाता है। जैसा कि हदीस शरीफ़ में है। हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: जिस ने अपने भाई को काफ़िर कहा तो वो कुफ्र खुद इस पर पलट आया। (مشکوۃ ص411)
लिहाज़ा मज़्कूर मस्जिदों के इमाम अगर वहाबी हैं तो इन के पीछे नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती। आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि वहाबिया क़तअन बे दीन इन के पीछे नमाज़ जाइज़ नही। (فتاوی رضویہ، ج3، ص240)
अगर उस के पास दूसरा कपड़ा पूरा आस्तीन का मौजूद है तो मकरूह है वरना बिला कराहत जाइज़ है। हज़रत सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस के पास कपड़ा मौजूद हो और सिर्फ़ आधी आस्तीन या बनियान पहन कर नमाज़ पढ़ता है तो कराहते तंज़ीही है और कपड़ा मौजूद नहीं तो कराहत भी नहीं, मुआफ़ है और अगर कुर्ते या अचकन की आस्तीन मोड़ कर नमाज़ पढ़ता है तो नमाज़ मकरूहे तहरीमी है। (فتاویٰ امجدیہ، ج1، ص193)
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "ऊंगरखे जो सदरी या चुग्गा पहनते हैं और उर्फ़े आम में उनका कोई बोताम भी नहीं लगाते और उसे मा'यूब भी नहीं समझते तो इस में भी हर्ज नहीं होना चाहिये कि ख़िलाफ़े मो'ताद नहीं। (فتاوی رضویہ، ج3، ص447)
लिहाज़ा इस तरह कपड़ा पहन कर नमाज़ पढ़ा कि नीचे कुर्ते का सारा बटन बंद है और ऊपर शेरवानी या सदरी का कुल या बाज़ बटन खुला रहे तो हर्ज नहीं। और जो बहारे शरीअ़त में मकरूहे तन्ज़ीही का हुक्म किया गया है आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा की मज़कूरा बाला तहरीर से ज़ाहिर है कि वो उस सूरत में है जहाँ सदरी या शेरवानी के कुल या बाज़ बटन के खुला रहने को मायूब समझा जाता हो। ( فتاویٰ فقیہ ملت، ج1، ص174)
हुज़ूर सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं कि :" हुज़ूर ﷺ के मुऐ मुबारक कभी निस्फ कान तक कभी कान की लौ तक होते और जब बढ़ जाते तो शाने मुबारक से छू जाते"। (بہارِ شریعت،16،ص199)
और आला हज़रत मुहद्दिस बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "बाल निस्फ़ कान के काँधों तक बढ़ाना शर'अन जाइज़ है। (فتاویٰ رضویہ، ج9، ص32)
लिहाज़ा मज़कूरा तरीके पर बाल रखना अज़ रू -ए- शर'अ दुरूस्त है और इस से नमाज़ में कोई कराहत नहीं आती अगर्चे रुकू व सुजूद की हालत में बाल से उन की दाढ़ी और कान ढक जाते हैं और लटक कर रुख़सार तक पहुँच जाते हैं।
जूड़ा बांध कर नमाज़ नमाज़ पढ़ना मर्द के लिये जाइज़ नहीं अलबत्ता औरतों के लिये जाइज़ है। सैय्यिदी आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तहरीर फरमाते हैं: "जूड़ा बांधने की कराहत मर्द के लिये ज़रूर है।" (فتاویٰ رضویہ ح3، ص417)
हदीस में है: नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने मर्द को जूड़ा बांध कर नमाज़ पढ़ने से मना फरमाया। (عمدۃ الرعایہ حاشیہ شرح وقایہ ج1، ص167)
फक़ीहे आज़मे हिंद हुज़ूर सदरुश्शरिया अलैहीर्रहमा व रिज़्वान मकरुहाते तहरीमा के बयान में तहरीर फरमाते हैं : "कपड़ा समेटना मसलन सजदा में जाते वक़्त आगे या पीछे से उठा लेना अगर्चे गर्द से बचने के लिये किया हो और बिला वजह हो तो और ज्यादा मकरूह।" (بہارِ شریعت، ح3 ص165) (فتاویٰ عالمگیری مع خانیہ ج1، ص105)
सोने चाँदी के अलावा काँच (शीशा) और प्लास्टिक का ज़ेवर भी औरतों को पहनना जाइज़ है और दूसरी तमाम धातों का ज़ेवर पहनना जाइज़ नहीं, आला हज़रत इमाम अहमद रजा़ मुहद्दिस बरेलवी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से सवाल किया गया कि औरतों को काँच की चूड़ियाँ पहनना जाइज़ है या नहीं? इस के जवाब में आप तहरीर फरमाते है : जाइज़ है, बल्कि औरत के लिए सिंगार की निय्यत से मुस्तहब, बल्कि शौहर या माँ बाप का हुक्म हो तो वाजिब और धातों के मुतल्लिक़ तहरीर फरमाते है : चाँदी सोने के सिवा लोहे, पीतल तांबे रंग का ज़ेवर औरतों को भी मुबाह नहीं, और तहरीर फरमाते है : तांबा पीतल कांसा लोहा तो औरतों को भी पहनना ममनूअ है और इस से नमाज़ उन की भी मकरूह है। (فتاویہ رضویہ)
लिहाज़ा काँच (यानी शीशा) और प्लास्टिक की चूड़ियाँ पहनना और पहन कर नमाज़ पढ़ना सहीह व दुरुस्त और सोने चाँदी के अलावा दूसरी तमाम धातो की चूड़ियाँ पहनना नाजाइज़ और पहन कर नमाज़ पढ़ना मकरूह है । واللہ تعالیٰ اعلم (فتاوی فقیہ ملت, ج1،ص117)
पजामा या पेंट से टखने छुपे रहे तो इस की दो सूरतें हैं अगर तकब्बुर की वजह से हो तो नमाज़ मकरूहे तहरीमी होगी वरना तन्ज़ीही। (فتاوی رضویہ، ج3، ص448)
और कफ़े सौब (कपड़े मोड़ना) मुत्लकन मकरूहे तहरीमी है। और कपड़ा में खोंस कर नमाज़ पढ़ना भी मकरूहे तहरीमी है, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेल्वी क़ुद्दस्सिर्रहू तहरीर फरमाते हैं : "रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैही वसल्लम ने नमाज़ में कपड़ा समेटना, घर्सने (खोसने) से मना फरमाया और हर वो नमाज़ जो मकरूहे तहरीमी हो उस का इआदा वाजिब है मगर मकरूहे तन्ज़ीही हो तो इआदा वाजिब नहीं।
सूरते मसऊला में नमाज़ नहीं होती है कि सजदा में एक उंगली का पेट ज़मीन पर लगना शर्त है जैसा कि बहारे शरीअत और शामी दुर्र मुख़्तार में है, और औरतों की तरह सजदा करने में ये शर्त अदा नहीं होती है लिहाज़ा नमाज़ भी नहीं होती। (فتاوی فقیہ ملت ج1، ص178)
कुर्ते के बटन खुले रख कर नमाज़ पढ़ना मकरूहे तहरीमी है जब कि सीना नज़र आये, आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत मुहद्दिसे बरेल्वी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तहरीर फरमाते हैं कि किसी कपड़े को खिलाफ़े आदत पहनना जैसे मुहज़्ज़ब आदमी मज़्मा या बाज़ार में ना कर सके और करे तो बे अदब खफीफ़ुल हरकात समझा जाये ये भी मकरूह है, जैसे ऐसा कुर्ता जिस के बटन सीने पर हैं पहनना और बोटाम (बटन) इतना लगाना कि सीना या शाना खुले रहे। और अगर कुर्ते पर शेरवानी या सदरी हो और उसके बटन खुले रखे तो हरज नहीं क्योंकि आम तौर पर उसके बटन नहीं लगाये जाते और इसे मायुब भी नहीं समझा जाता है। (فتاوی فقیہ ملت ج1، ص181)
फुक़हा -ए- किराम ने नंगे सर नमाज़ पढ़ने की तीन कि़स्में की हैं : (1) सुस्ती से नंगे सर नमाज़ पढ़ना यानी टोपी पहनना बोझ मालूम होती हो या गर्मी मालूम होती हो तो मक़रूहे तंज़ीही है। (2) तहक़ीर व इहानते नमाज़ मक़सूद हो, मसलन नमाज़ कोई ऐसी शान वाली चीज़ नहीं जिस के लिये टोपी इमामा पहना जाये तो कुफ्र है। (3) खुशू व खुज़ू के लिए हो तो जाइज़ है। (فتاوی فقیہ ملت، ج1،ص181)
रुमाल, शॉल या चादर के दोनों किनारे दोनों मूंढे से लटकते हों ये मकरूहे तहरीमी है और एक किनारा दूसरे मूंढे पर डाल दिया और दूसरा लटक रहा है तो हर्ज नहीं और एक मूंढे पर डाला इस तरह कि एक किनारा पीठ पर लटक रहा हो और दूसरा पेट पर तो ये भी मकरूह है। ऐसा ही बहारे शरीअत, जिल्द 3, सफ़ह 139 पर है।
और नमाज़ में उंगलियाँ चटकाना भी मकरूहे तहरीमी है हदीस शरीफ में है "जब तुम नमाज़ की हालत में हो तो उंगलियाँ ना चटकाओ।" और जिन सूरतों में नमाज़ मकरूहे तहरीमी होती है उन नमाजो़ का दोहराना वाजिब होता है । (فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص183)
हज़रत सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "लोग ये समझते है कि टोपी पहने रहने की हालत में एतिजार होता है मगर तहक़ीक़ ये है कि एतिजार इस सूरत में है कि इमामा के नीचे कोई चीज़ सर को छुपाने वाली ना हो"। (فتاوی امجدیہ،ج1،ص199)
इस से ज़ाहिर हुआ कि सूरते मसऊला में नमाज़ मकरूहे तंजी़ही होगी ना कि तहरीमी। (فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص184)
साहिबे तरतीब जिस की नमाज़ कज़ा हो गई है अगर्चे मस्जिद में उस वक़्त पहुँचा जब कि इमाम ज़ुहर की आख़िरी रकअत में था उस के लिये ये हुक्म है कि फज्र की कज़ा पढ़ कर अगर जमाअत में शरीक हो सकता है तो ऐसा ही करे वरना जमाअत छोड़ कर पहले कज़ा पढ़े फ़िर ज़ुहर की नमाज़ तन्हा अदा करे। ये उस सूरत में है जब कि नमाज़ का कज़ा होना याद हो और वक़्त में गुंजाइश हो।
हालते सफ़र में जो नमाज़ें क़ज़ा हो जायें घर में उन्हें क़स्र ही पढ़ने का हुक्म है। जब कि वो शरई मुसाफ़िर रहा हो यानी कम से कम 92.5 किलोमीटर के सफ़र की निय्यत से निकला हो। हुज़ूर सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "जो नमाज़ जैसी फौत हुई उस की क़ज़ा वैसी ही पढ़ी जायेगी। मस्लन सफ़र में नमाज़ क़ज़ा हुई तो चार रकअत वाली दो ही पढ़ी जायेगी अगर्चे इक़ामत की हालत में पढ़े। (بہار شریعت، ج4، ص43)
ख़ुत्बे में हुज़ूरे अक़दस सल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम का नामे पाक सुन कर अंगूठे ना चूमे ये हुक्म सिर्फ ख़ुत्बे के लिये है वरना आम हालत में नामे नामी सुनकर अँगूठे चूमना मुस्तहब है और दुरूद शरीफ़ बा वक़्ते ख़ुत्बा दिल में पढ़ सकते हैं और आवाज़ से पढ़ना जाइज़ नहीं कि ज़ुबान को जुंबिश ना दे इसीलिये कि ज़ुबान से सुकूत फ़र्ज़ है। ऐसा ही फ़तावा रज़विय्या, जिल्द 3, सफह 741 और फ़तावा अमजदिया, जिल्द 1, सफह 286 पर और बहरुर राइक़, जिल्द 2, सफह 155 में है। (فتاوی فقیہ ملت،ج1ص247)
अपनी नमाजो़ं का सवाब वालिद को बख्शा तो औलाद को भी सवाब मिलेगा और वालिद को भी लेकिन ये ख़्याल कि बाप के ज़िम्मे से कज़ा नमाजो़ं का बोझ उतार गया ये ग़लत है, वो बोझ तो बाक़ी रहेगा। (فتاوی بحر العلوم،ج1،ص100)
अज़ान के पंद्रह कलिमे हुज़ूर ﷺ से मुतवातिर मन्क़ूल हैं। उलमा के नज़्दीक इस में कमी और ज़्यादती मम्नूअ है। अज़ान किस तरह दी जाती है ये सब को मालूम है, मुतवातिर तरीके पर इस में कुछ कमी या ज़्यादती नहीं करनी चाहिये, यही उलमा का क़ौल है, चाहे पंज वक़्ता नमाज़ हो या दाफेअ वला वग़ैरह उमूर के लिये।
आलामगीरी अव्वल सफ़ह 56 में है :उलमा फरमाते हैं नौ मौलूद के कान में अज़ान देने वाला भी इस का लिहाज़ करे के حی علی الصلاۃ और وحی علی الفلاح कहते वक़्त दायें और बायें मुँह फेरें। पस सूरते मसऊला में حی علی الفلاح के बजाये دافع البلاء و دافع الوباء कहना रवा ना होगा। (فتاوی بحر العلوم، ج1، ص113)
अल जवाब : बराहे तकब्बुर टखनों के नीचे रखना हराम है। और ऐसे शख़्श की इमामत बिला शुब्हा मकरूह और नाजाइज़ है और अगर बराहे तकब्बुर नहीं है जैसा कि हज़रते अबू बकर रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने अर्ज़ की कि या रसूलुल्लाह ﷺ मेरा तहबन्द तो एक तरफ़ ढुलक जाया करता है। हाँ उस को पकड़े रहूँ तो तब रुका रहेगा, आप ने फ़रमाया तुम तकब्बुरन नहीं लटकाते हो, इसीलिये आलमगीरी में तकब्बुरन ना हो तब उसके लटकने को मकरूहे ज़ीही लिखा है। बिला तकब्बुर व नाज़ हो तो भी नहीं लटकाना चाहिये मगर इस सूरत में इमामत मकरूह या नाजाइज़ न होगी।
और ग़ैर शरई यानी ऐसा लिबास जो हराम है। पहन कर नमाज़ पढ़ाई तो इमामत ज़रूर मकरूहे तहरीमी है। (فتاوی بحر الولوم، ج1، ص443)
दाढ़ी मुंडे की नमाज़ होती तो है मगर मकरूहे तहरीमी होती है कि दुबारा ऐ़ब दूर करके दोहराई जाये। दुर्रे मुख़्तार में है: जो नमाज़ मकरूह पढ़ी गई उस का दोहराना वाजिब है। जिसने दाढ़ी मुँडा रखी है, दुबारा सिहत के साथ तभी पढ़ सकता है जब तौबा करे और दाढ़ी मुंडाना छोड़ दे।
मुख़्तस़र ये कि इस त़रह़ नमाज़ पढ़ने के बाद भी आख़िरत में मुवाख़ज़ा होगा, अगर सह़ीह़ त़रीक़े से दोहराया नहीं। हाँ उस का अज़ाब तारिकुस् स़लात के अज़ाब से कम होगा। (فتاوی بحر العلوم، ج1، ص444)
का'दा -ए- आख़िराह में बादे अत्तहिय्यात दुरूद शरीफ़ पढ़ना सुन्नते मुअक्कदा है और इस के बाद मासूरा दुआओ में से कोई भी दुआ पढ़ना मुस्तहब है और तर्के सुन्नत या मुस्तहब से चूँकि सज्दा ए सह्व नहीं आता लिहाज़ा कुल्लिया मुक़र्रर किया गया है कि मुस्तहब के तर्क से नमाज़ का पढ़ना मुस्तहब् होता है और तर्के सुन्नत से नमाज़ का पढ़ना सुन्नत और तर्के वाजिब से अगर सज्दा ए सह्व भी तर्क हो जाये तो नमाज़ का इआदा वाजिब होता है।
हज़रत अल्लामा मुफ्ती दीदार अली शाह रहीमहुल्लाहू त'आला लिखते हैं : हनफियों के नज़दीक अपना या किसी ग़ैर का अंदामे नहानी देखने से तो क़तअन वुज़ू नहीं टूटता, अलबत्ता किसी ग़ैर के अंदामे नहानी पर क़स्दन नज़र डालना या नंगा हो कर किसी को अपना अंदामे नहानी दिखाना बहुत बड़ा गुनाह है। बल्कि बाद वुज़ू अगर कोइ पानी से इस्तिन्जा करना या आबे दस्त लेना भो जाये और याद आने पर इस्तिन्जा पानी से करे या आबे दस्त ले ले जब भी वुज़ू नहीं टूटता। (فتاوی دیدار یہ، ص69)
इमामे अहले सुन्नत, आला हज़रत रहीमहुल्लाहू त'आला लिखते हैं कि अपना पराया सित्र देखने से अस्लन वुज़ू में खलल नहीं आता, ये मस'अला अवाम में गलत मशहूर है। हाँ! पराया सित्र बिलक़स्द देखना हराम है, और नमाज़ में और ज़्यादा हराम, अगर क़स्दन देखेगा नमाज़ मकरूह होगी और इत्तिफाक़न निगाह पड़ जाये फिर नज़र फेर ले या आँखें बंद कर ले तो हर्ज नहीं, हदीस में है : पहली निगाह जो बे-मक़्सद पड़े वो तेरे लिये है यानी तुझ पर इस में मुवाखिज़ा नहीं और दूसरी निगाह यानी जब दोबारा क़स्दन देखा या पहली निगाह ही क़ाइम रखे मुँह ना फेरे, आँखे ना बंद करे तो इस का तुझ पर मुवाखिज़ा है। واللہ تعالی اعلم (فتاوی افریقہ، ص95، 96)
आप लिखते हैं कि घुटने रान के ताबेअ हैं और उन आज़ा में से है जिन का छुपाये रखना हर मुसलमान के लिये ज़रूरी है और उस को खोलना बिला ज़रूरत गुनाह है, लेकिन हालते ज़िबह में घुटने खुल जायें या खोल दिये जायें तो उस से ना ज़बीहा पर फ़र्क़ पड़ता है ना वुज़ू टूटता है, ज़बीहा जाइज़ है और वुज़ू बाक़ी है। واللہ تعالی اعلم (فتاوی بحر العلوم، ج4، ص516)
अल्लामा मुफ़्ती दीदार अली शाह रहमतुल्लाह त'आला अलैह लिखते हैं कि ग़ुस्ल के वुज़ू के बाद दोबारा वुज़ू करने की कोई ज़रूरत नहीं अगर्चे बरहना ही गुस्ल किया हो, इस वास्ते की अपनी शर्मगाह या दूसरे की शर्मगाह देखने से वुज़ू नहीं टूटता अल्बता अपनी शर्मगाह को बरहना छू लेने से इमाम शाफ़ई रहमतुल्लाह त'आला अलैह के नज़दीक वुज़ू टूट जाता है, मगर देखने से इन के नज़दीक भी नहीं टूटता, और इमामे आज़म अबु हनीफा रहमतुल्लाह अलैह के नज़दीक ना देखने से टूटेगा ना बरहना छूने से, लिहाज़ा अगर शर्मगाह बादे वुज़ू छू ली हो तो बिल्हाज तहक़ीके इमामे शाफ़ई रहीमहुल्लाह अगर वुज़ू कर ले औला है ना कि ज़रूरी.।
अल्लामा मुफ़्ती दीदार अली शाह रहमतुल्लाह त'आला अलैह लिखते हैं कि ग़ुस्ल के वुज़ू के बाद दोबारा वुज़ू करने की कोई ज़रूरत नहीं अगर्चे बरहना ही गुस्ल किया हो, इस वास्ते की अपनी शर्मगाह या दूसरे की शर्मगाह देखने से वुज़ू नहीं टूटता अल्बता अपनी शर्मगाह को बरहना छू लेने से इमाम शाफ़ई रहमतुल्लाह त'आला अलैह के नज़दीक वुज़ू टूट जाता है, मगर देखने से इन के नज़दीक भी नहीं टूटता, और इमामे आज़म अबु हनीफा रहमतुल्लाह अलैह के नज़दीक ना देखने से टूटेगा ना बरहना छूने से, लिहाज़ा अगर शर्मगाह बादे वुज़ू छू ली हो तो बिल्हाज तहक़ीके इमामे शाफ़ई रहीमहुल्लाह अगर वुज़ू कर ले औला है ना कि ज़रूरी.। (فتاوی دیداریہ، ص75)
हज़रत अल्लामा मुफ्ती अब्दुल वाजिद क़ादरी रहमतुल्लाह अलैह लिखते है कि सित्रे औरत खुलने से वुज़ू नहीं जायेगा क्योंकि फ़ुक़हा -ए- किराम ने इसे नवाकिज़े वुज़ू में शुमार नहीं फ़रमाया बल्कि इस बाब में फ़ुक़हा की तसरीहात मौजूद हैं कि ऐन हालते नमाज़ में भी अगर किसी के सित्रे गलीज़ पर नज़र पड़ जाये तो उस से नमाज़ बातिल नहीं होती। अगर ये नाकिज़े वुज़ू होता तो नमाज़ ज़रूर बातिल हो जाती।
मराकिउल फ़लाह जिल्द अव्वल मे है : उस की नमाज़ मुत्लक़ा या अजनबिया की शर्मगाह को देखने से बातिल नहीं होगी यानी शर्मगाह से मुराद फ़र्जे दाखिल है। लेकिन ये याद रखना चाहिये कि बे उज़्रे शरई किसी के सामने सित्रे औरत का खोलना या किसी के सित्र पर नज़र करना हराम व बद अंज़ाम है और खास शर्मगाह को देखना या दिखलाना अशद व बदतर है। (فتاوی یورپ، ص138)
सदरुश्शरिया, अल्लामा मुफ्ती अमजद अली आज़मी रहीमहुल्लाह लिखते हैं कि अवाम में जो मशहूर है कि घुटने और सित्रे औरत खुलने या अपना या पराया सित्र देखने से वुज़ू जाता रहता है महज़ बे-असल बात है। हाँ! वुज़ू के आदाब से है कि नाफ़ के नीचे तक सब सित्र छुपा हो बल्कि इस्तिन्जा के बाद फौरन ही छुपा लेना चाहिये कि बगैर ज़रूरत सित्र खुला रहना मना है और दूसरों के सामने खोलना हराम है। (بہار شریعت، ج2، ص309)
मलफ़ूज़ाते आला हज़रत में है कि वुज़ू किसी चीज़ के देखने या छूने से नहीं जाता। जान बूझ कर सित्रे औरत खोलने से नमाज़ जाती रहती है। तीस उज़्व औरत के औरत (पोशीदा रखना ज़रूरी) है और 9 मर्द के, उन में से किसी उज़्व का चहारुम हिस्सा बा क़द्रे रुक्न यानी तीन बार सुब्हान अल्लाह कहने तक बिला क़स्द खुला रहना मुफ़्सिदे नमाज़ है और बिल क़स्द तो अगर एक आन के लिये खोले तो नमाज़ जाती रहेगी। (ملفوظات اعلی حضرت، ج1)
ग़ुस्ल मस्नून हो या फ़र्ज़, तिलावते क़ुरआने करीम और नमाज़ वग़ैरह की अदायगी के लिये दोबारा वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है अगर्चे बरहना ग़ुस्ल किया हो, यही वुज़ू काफ़ी है। बाज़ लोग ख़्याल करते हैं कि बरहना होने के सबब वुज़ू टूट जाता है, ये ख़्याल दुरुस्त नहीं है। जब तक जिस्म से किसी नजासत का इख़राज ना हो, वुज़ू क़ाइम रहता है। शर'अन ग़ुस्ल का नाम तहारते कुबरा है और वुज़ू को तहारते सुग़रा कहा जाता है। जब तहारते सुग़रा से नमाज़ हो सकती है तो तहारते कुबरा से बदर्जा -ए- अवला अदा की जा सकती है।
अल्लामा अमजद अली आज़मी लिखते हैं कि आवाम में जो मशहूर है कि घुटना या सित्र खुलने या अपना, पराया सित्र देखने से वुज़ू जाता रहता है, महज़ बे-अस्ल है। (تفہیم المسائل، ج6، ص59)
आ़ला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान बरेलवी रहीमहुल्लाह त'आला से सवाल किया गया कि क्या फरमाते हैं उलमा -ए- दीन इस मसअले में की अपने घुटने खुल जाने या अपना या पराया सित्र बिला क़स्द या बिलक़स्द देखने या दौड़ने या बुलंदी पर कूदने या गिरने से वुज़ू टूट जाता है या नहीं?
आप रहीमहुल्लाह त'आला लिखते हैं कि इन में से किसी बात से वुज़ू नहीं जाता। सित्र खुलने या दिखने से वुज़ू जाना कि अव्वाम की ज़बाने ज़द है महज़ बे असल है, उलमा ने सित्रे औरत को आदाबे वुज़ू से गिना अगर कश्फ़ से वुज़ू टूट जाता तो फराइजे़ वुज़ू से होता। (فتاوی رضویہ،ج1،ص470)
जवाब : वहाबी की अज़ान अज़ान नहीं इसीलिये उसकी अज़ान के जवाब की हाजत नहीं। जैसा कि सैय्यदी आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं : इस्मे जलालत पर कलिमा -ए- ताज़ीम और नामे रिसालत पर दुरूद शरीफ पढ़ेंगें अगर्चे ये अस्मा -ए- तैय्यबा किसी की ज़ुबान से अदा हों मगर वहाबी की अज़ान अज़ान में शुमार नहीं जवाब की हाजत नहीं और अहले सुन्नत को इस पर इक्तिफ़ा की इजाज़त नहीं बल्कि ज़रूर दोबारा अज़ान कहें। (فتاویٰ رضویہ، ج2، ص421)
इस में कोई हर्ज नहीं है कि गाँव की मस्जिद छोड़ कर जुम्आ पढ़ने के लिये शहर जाये, ये कोई नाजाइज़ व गुनाह नहीं कि मस्जिदे मुहल्ला का हक़ ग़ैरे जुम्आ में है। जैसा कि आला हज़रत अलैहिर्रहमा फ़रमाते हैं : जुम्आ मस्जिदे जामा में अफ़ज़ल है, मस्जिदे मुहल्ला का हक़ नमाज़े पंजगाना में है जब वो जामा नहीं और दूसरी जगह जाने में उनको आसानी है तो मुमानिअत की कोई वजह नहीं। (فتاوی رضویہ، ج3، ص749)
और गाँव में मज़हबे हनफ़ी के मुताबिक़ जुम्आ व ईदैन पढ़ना जाइज़ नहीं बल्कि मम्नूअ है। पस जुम्आ अगर शहर में पढ़े तो गुनाह क्यों होगा? जैसा कि आला हज़रत अलैहिर्रहमा दूसरी जगह फ़रमाते हैं : फ़र्ज़ियत व सिहत व जवाज़े जुम्आ सब के लिये इस्लामी शहर होना शर्त है जब कि बस्ती नहीं जैसे बन, समुदंर, पहाड़ या बस्ती है मगर शहर नहीं जैसे देहात या शहर है मगर इस्लामी नहीं जैसे रूस, फ्रांस के बिलादान में ना जुम्आ फ़र्ज़ है ना सहीह ना जाइज़ बल्कि मम्नूअ व बातिल व गुनाह है। इस के पढ़ने से फ़र्ज़े ज़ुहर ज़िम्मा से साकित ना होगा। (فتاوی رضویہ، ج3، ص715)
एक जगह और फ़रमाते हैं : मगर दरबराहे आवाम फ़क़ीर का तरीक़ा -ए- अमल ये है कि इब्तिदा खुद उन्हें मना नहीं करता ना उन्हें नमाज़ से बाज़ रखने की कोशिश पसन्द रखता है। एक रिवायत पर सिहत उन के लिये बस है वो जिस तरह खुदा व रसूल का नाम पाक ले लें ग़नीमत है। मुशाहिदा है कि इस से रोकें तो वो वक़्ती छोड़ बैठते हैं। (ایضاً 714)
सूरते मसऊला में ना चूमना अवला है और अगर चूमे तो हर्ज नहीं। जैसा कि इमामे अहले सुन्नत, हुज़ूर सैय्यदि आला हजरत अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं : अज़ाने ख़ुत्बा के जवाब और उस के बाद दुआ में इमाम व साहिबैन रदिअल्लाहु त'आला अन्हुम का इख़्तिलाफ़ है, बचना अवला और करें तो हर्ज नहीं यूँ ही अज़ाने ख़ुत्बा में नामे पाक पर अँगूठे चूमना उसका भी यही हुक़्म है लेकिन ख़ुत्बा में महज़ सुकूत व सुकून का हुक्म है। ख़ुत्बा में नामे पाक सुन कर सिर्फ दिल में दुरूद शरीफ पढ़ें और कुछ ना करें ज़ुबान को जुंबिश भी ना दें। (فتاوی رضویہ، ج3، ص759) | (فتاوی مشاہدی، ص201)
शर्ट को पेंट के अंदर घुरस लेना जिस को "इन" करना भी कहते हैं मकरूहे तहरीमी है कि ये कफ्फ़े सौब है। फ़तावा बरेली शरीफ, सफ़हा 251 में है, सलवार या पजामा को अज़ार बन्द में घुरसना, तहबन्द बाँध लेने के बाद इसे मज़ीद घुरसना, शर्ट को पेंट के अंदर दबा लेना जिसे "इन" कहते हैं, आस्तीन को ऊपर चढ़ा लेना, रुकू और सुजूद के वक़्त सलवार या पजामा या दामन को ऊपर उठाना मकरूहे तहरीमी है। (فتاوی اکرمی، ص125)
भतीजे से मुराद भाई का लड़का है या देवर का, अव्वल के साथ जाना जाइज़ है कि वो मुहर्रमाते अब्दिया में से है और सानी के साथ जाइज़ नहीं।
हदीस फ़िक़्ह में जहाँ भी मना है वहाँ मुज़क्कर की ज़मीर लायी गयी है जिस से साबित होता है कि औरत को जूड़ा बाँध कर नमाज़ पढ़नी जाइज़ है।
ज़ुहर के क़ब्ल की सुन्नतें जमाअत की वजह से फौत हो जायें तो बादे फ़र्ज़ पढ़ी जायेंगी इस में रिवायतें मुख्तलफ़ हैं कि बादे फ़र्ज़ दो रकअत सुन्नत पढ़ी जायें या क़ब्ले 2 रकअत बेहतर ये है कि पहले बाद वाली पढ़ लें फिर चार क़ब्ल वाली पढें।
जैसा कि फ़त्हुल क़दीर में है : बेहतर है दोनों रकअतों को मुक़द्दम करना इसीलिये कि चार रकअत मौज़े मस्नून से फौत हो गयीं तो दोनों रकअतों को क़स्दन बिला ज़रूरत अपनी जगह दे फ़ौत ना किया जाये।
वुज़ू करने वाला तयम्मुम करने वाले की इक़्तिदा कर सकता है हिदाया अव्वल बाबुल इमामत में है, जाइज़ है कि तयम्मुम करने वाला वुज़ू करने वाले की इमामत करे। और नूरुल ईज़ाह बाबुल इमामत सफ़हा 79 में है कि वुज़ू करने वाले को तयम्मुम करने वाले की इक़्तिदा करना सहीह है। (فتاوی اکرمی, ص 137)
क़ब्रिस्तान में नमाज़ पढ़ना जाइज़ है बशर्ते कि सामने क़ब्र ना हो और क़ब्र है तो मकरूहे तहरीमी और दाएं बाएं हो तो हर्ज नहीं।