नमाज़ की पहली शर्त "तहारत" है और इस के अन्दर कई बातें आती हैं जिन में से तक़रीबन अक्सर का बयान गुज़र चुका। अब ये जान लें कि नमाज़ी का बदन, उस के कपड़े और जहाँ नमाज़ पढ़ता है उस जगह का पाक होना ज़रूरी है।
कुछ और जरूरी मसाइल बयान किये जाते हैं :
अगर किसी ने अपने आप को बे वुज़ू गुमान कर के नमाज़ पढ़ी और पढ़ने के बाद मालूम हुआ कि वुज़ू था तो नमाज़ नहीं होगी क्योंकि नमाज़ शुरू करते वक़्त वो अपने आप को बे-वुज़ू गुमान करता था।
अगर नमाज़ के दौरान नजासत लग गयी (खफीफ़ा या गलीज़ा की तफ़सील बयान की जा चुकी है) तो तीन बार तस्बीह (सुब्हान अल्लाह) कहने (में जितना वक़्त लगता है) का वक़्फा हुआ तो नमाज़ नहीं होगी।
नमाज़ के दौरान हैज़ो निफ़ास वाली औरत या कोई नापाक छू जाये तो नमाज़ हो जायेगी।
जिस जगह नमाज़ पढ़ता हो उस का उतना ही पाक होना ज़रूरी है जितने पर सर, पैर और हाथ रखता हो, पूरी जगह का पाक होना शर्ते सिह्हते नमाज़ नहीं यानी अगर कहीं नापाक है तो उस से नमाज़ पर फर्क़ नहीं पड़ेगा।
नमाज़ी के एक पैर के नीचे दिरहम से ज़्यादा नजासत हो तो नमाज़ ना होगी। अगर सजदा करते वक़्त दामन वग़ैरह नजिस ज़मीन पर पड़ता हो तो नमाज़ हो जायेगी।
नमाज़ की दूसरी शर्त है सित्रे औरत यानी जिस्म के उन हिस्सों को छुपाना जिन को छुपाना ज़रूरी है।
सित्रे औरत नमाज़ के अलावा भी ज़रूरी है। तन्हा हो या किसी के सामने सित्रे औरत बिला ज़रूरत खोलना जाइज़ नहीं है।
लोगों के सामने और नमाज़ में तो सित्र बिल इज्मा फर्ज़ है यहाँ तक कि अगर अन्धेरा मकान है और कोई नहीं और अपने पाक कपड़े हैं जो सित्रे औरत के लिये काफ़ी हैं फिर बगैर कपड़ों के पढ़ी तो बिल इज्मा नमाज़ ना होगी।
औरत जब अकेले हो तो पूरे बदन को छुपाना वाजिब नहीं बल्कि नाफ़ से घुटनों तक और महारिम (यानी जिन से निकाह नहीं हो सकता, उन) से पेट और पीठ छुपाना वाजिब है और गैर मेहरम के सामने (यानी जिन से निकाह हो सकता है) और नमाज़ के लिये अगरचे बन्द कमरे में अन्धेरे में हो पूरा बदन छुपाना फर्ज़ है सिवाये पाँच उज़्व (Parts) के जिन का बयान आयेगा।
जवान औरतों को गैर मर्दों के सामने मुँह खोलना भी मना है। इतना बारीक कपड़ा जिस से जिस्म झलकता हो, सित्र के लिये काफ़ी नहीं है और अगर इस पर नमाज़ पढ़ी तो ना हुयी।
अगर चादर या दुपट्टे में से औरतों के बालों की सियाही (Blackness) चमकी तो नमाज़ ना होगी। ऐसा कपड़ा नमाज़ के इलावा पहनना भी हराम है जिस से सित्र पोशी ना हो सके।
ऐसा कपड़ा जो जिस्म से बिल्कुल चिपका हुआ हो (जैसे आज कल लड़कों की जीन्स और लड़कियों की लेगिन्ग्स वग़ैरह) तो इस में अगर जिस्म ना झलकता हो तो नमाज़ हो जायेगी पर किसी दूसरे को उस तरफ़ नज़र करना जाइज़ नहीं और ऐसा कपड़ा लोगों के सामने पहनना भी मना है।
औरतों को तो हरगिज़ ऐसे चुस्त (Tight) कपड़े नहीं पहनना चाहिये। नमाज़ के लिये कपड़े का पाक होना ज़रूरी है, अगर पाक कपड़ों पर क़ुदरत होते हुये नापाक कपड़ों पर पढ़ी तो नमाज़ ना होगी।
अगर इल्म में है कि कपड़ा नापाक है और नमाज़ पढ़ ली फिर नमाज़ पढ़ने के बाद मालूम हुआ कि पाक था तो नमाज़ नहीं हुई।
नमाज़ के इलावा नापाक कपड़ा पहना तो हर्ज नहीं जबकि पाक कपड़ा मौजूद हो और अगर पाक मौजूद ना हो तो उसी को पहनना वाजिब है। ये उस वक़्त है जब कपड़े पर नजासत सूखी हुई हो कि छूट कर बदन पर ना लगे वरना फिर पाक कपड़े के होते हुये ऐसा पहनना मना है कि जिस्म को बिला वजह नापाक करना है।
मर्द के जिस्म में नाफ़ के नीचे से ले कर घुटनों तक का हिस्सा औरत है। यानी इसे छुपाना फर्ज़ है। नाफ़ इस में दाखिल नहीं, घुटने दाखिल हैं।
कुछ लोग रान और घुटने को लोगों के सामने खुला रखते हैं, ये हराम है। और अगर आदत है तो फासिक़ हैं। आज कल तो ये बुरा ही नहीं समझा जाता मुहल्ले पड़ोस में गर्मी के मौसम में जिसे देखो हाफ़ पेंट (बरमूडा) पहन कर औरतों और मर्दों से बात चीत हँसी मज़ाक़ करते नज़र आते हैं।
औरतों का पूरा जिस्म औरत है यानी छुपाना ज़रूरी है, सिवाये चेहरे की टिकली, हथेलियों और पाऊँ के तलवों के।
सर से लटके हुये बाल, कलाईयाँ, गर्दन पीठ वग़ैरह सब छुपाना ज़रूरी है। अभी हाल ये है कि औरतें बालों को खुला रखती हैं, आधी (Half) आस्तीन के सूट पहनती हैं, जिस से आधे से ज़्यादा बाज़ू का हिस्सा नज़र आता है। फिर सूट में गले के ऐसे-ऐसे डिज़ाइन चले हुये हैं कि गला, गर्दन और पीठ का हिस्सा भी नज़र आता है, जो कि बिल्कुल नाजाइज़ो हराम है
ऐसे कपड़े पहन कर औरतें बाज़ार का चक्कर लगा कर आ जाती हैं पर गलत नहीं समझा जाता और गलत कहने वालों की निय्यत को ही गलत क़रार दिया जाता है।
शादियों पार्टियों में तो पर्दे नाम की चीज़ ही नहीं होती सिवाये टेन्ट में जो पर्दा इस्तिमाल होता है। दुपट्टा भी ऐसा होता है कि बस नाम का दुपट्टा होता है वरना उस से छुपता कुछ नहीं।
हमें चाहिये कि अपनी बीवियों, बेटियों को पर्दे का हुक्म दें और बे-पर्दा और बिला ज़रूरत बाहर जाने से रोकें। आज ऐसा करने वालों को ज़ालिम और औरतों के हुक़ूक़ को दबाने वाला कहा जाता है, हालाँकि ऐसा हरगिज़ नहीं है।
अस्ल में ज़ालिम वो है जो औरतों को बरहना कर के सबके सामने डालना चाहते हैं जबकि शरीअ़त उन्हें इज़्ज़त की ज़िंदगी गुज़ारने का हुक्म देती है।
औरत ने अगर इतना बारीक दुपट्टा ओढ़ कर नमाज़ पढ़ी जिस से बालों की सियाही (Blackness) चमकी तो नमाज़ ना होगी जब तक उस पे कोई ऐसी चीज़ ना ओढ़े जिस से बालों की रंगत छुप जाये। जिन आज़ा (हिस्सों) को नमाज़ में छुपाना फर्ज़ है, उन में से किसी हिस्से का एक चौथाई हिस्सा (25%) खुला रहे तो नमाज़ ना होगी। अगर नमाज़ के दौरान खुल गया और फौरन छुपा लिया तो नमाज़ हो जायेगी।
अगर एक चौथाई हिस्सा खुला और एक रुक्न के बराबर खुला रहा (यानी जितनी देर में तीन बार सुब्हान अल्लाह कहा जा सके) तो नमाज़ ना होगी। अगर जान बूझ कर खोला और छुपा लिया तो नमाज़ ना होगी। अगर एक चौथाई से कम हो तो नमाज़ हो जायेगी। अगर एक चौथाई से ज़्यादा हिस्सा खुला हुआ और इस हालत में नमाज़ शुरू की तो नमाज़ शुरू ही नहीं होगी।
जिस्म के जिन हिस्सों को छुपाना ज़रूरी है तो मतलब ये है कि दूसरों की नज़र ना पड़े, अपनी पड़ जाये तो नमाज़ हो जायेगी मस्लन किसी ने लम्बा कुर्ता पहना और पजामा नहीं पहना तो कुर्ते के गिरेबान से देखेगा तो आज़ा नज़र आयेंगे, इस हालत में नमाज़ हो जायेगी लेकिन जान बूझ कर देखना मकरूहे तहरीमी है।
अब ये सवाल आता है कि कैसे जानेंगे कि एक चौथाई सित्र खुला है या नहीं, तो मर्द के जिस्म में जो हिस्से छुपाना ज़रूरी है उन्हें 9 हिस्सों में बांटा गया है, इन 9 हिस्सों में से जब किसी हिस्से से कुछ खुला हुआ हो तो उसी हिस्से की चौथाई देखी जायेगी।
औरत के जिस्म में 5 हिस्सों को छोड़ कर (यानी दोनों हथेली, दोनों पाऊँ के तलवे और चेहरे की टिकली) बाक़ी पूरा बदन औरत है, जिस को छुपाना ज़रूरी है और इसे 30 हिस्सों में बाँटा गया है यानी अगर कोई हिस्सा खुला हो तो वो इन 30 हिस्सों के हिसाब से देखा जायेगा कि एक चौथाई है या नहीं। अगर किसी हिस्से का एक चौथाई खुला हो तो नमाज़ नहीं होगी।
(1) सर (यानी पेशानी के ऊपर से नीचे गर्दन तक और एक कान से दूसरे कान तक, यानी आदतन जितनी जगह पर बाल जमते हैं।)
(2) बाल जो लटके हों।
(3, 4) दोनों कान।
(5) गर्दन (इस में गला भी दाखिल है)।
(6, 7) दोनों शाने (शोल्डर)
(8, 9) दोनों बाज़ू (इन में कोहनियाँ भी दाखिल हैं।
(10, 11) दोनों कलाईयाँ (यानी कोहनियों के बाद से गट्टों तक)
(12) सीना (यानी गले के जोड़ से दोनों पिस्तान के नीचे तक)।
(13, 14) दोनों हाथों की पुश्त (हथेली का उल्टा हिस्सा)
(15, 16) दोनों पिस्तान जब कि अच्छी तरह उठे हुये हों और अगर उभरे हुये ना हों तो सीने के ताबे में है।
(17) पेट (यानी सीने की हद से नीचे नाफ़ के नीचे तक, इस में नाफ़ भी दाखिल है।)
(18) पीठ (यानी पीछे के जानिब सीने की हद से कमर तक)
(19) दोनों शानों के बीच में जो जगह है (बगल के नीचे से सीने की निचली हद तक दोनों करवटों में जो जगह है इस का अगला हिस्सा सीना में और पिछला हिस्सा शानों या पीठ में शामिल है और इस के बाद से दोनों करवटों में कमर तक जो जगह है इस का अगला हिस्सा पेट में और पिछला पीठ में दाखिल है।)
(20, 21) दोनों सुरीन।
(22) फ़र्ज।
(23) दुबूर।
(24, 25) दोनों रानें (घुटने भी इस में शामिल हैं)।
(26) नाफ़ के नीचे से शर्मगाह तक जो जगह है वो पीछे समेत पुश्त की तरफ़ वाला हिस्सा मिला कर एक औरत है।
(27, 27) दोनों पिंडलियाँ टखनों समेत।
(29, 30) दोनों तलवे (बाज़ उलमा ने पाऊँ की पुश्त और तलवों को औरत में दाखिल नहीं किया है।)
ये 30 हिस्से वो हैं जिन में से हर एक मुस्तक़िल सित्र है यानी किसी एक का भी एक चौथाई सित्र खुला हो तो नमाज़ नहीं होगी।
औरत का चेहरा अगर्चे औरत नहीं (यानी इसका छुपाना फर्ज़ नहीं) मगर फितने की वजह से गैर महरम के सामने खोलना मना है।
दुर्रे मुख्तार में है कि जवान औरतों को चेहरा दिखाने से रोका जाये (क्योंकि इस में फितने का खौफ़ है।) और बुढ़िया के लिये कोई हर्ज नहीं कि इस में फितने का खौफ़ नहीं। मर्दों के लिये भी गैर महरम औरतों की तरफ़ नज़र करना मना है।
अगर किसी मर्द के पास कोई जाइज़ कपड़ा ना हो और रेशम का कपड़ा हो (जिस का पहनना नाजाइज़ है) तो सित्र छुपाने के लिये उसी को पहनना फर्ज़ है और उसी में नमाज़ पढ़ना अलबत्ता जाइज़ कपड़ा होते हुये रेशम का कपड़ा पहनना हराम है।
कोई बरहना शख्स अगर अपना जिस्म सर के साथ एक कपड़े से छुपा कर नमाज़ पढ़े तो नमाज़ ना होगी और अगर सर निकला हुआ है तो नमाज़ हो जायेगी।
किसी के पास बिल्कुल कपड़ा नहीं तो बैठ कर नमाज़ पढ़े (ऐसा बहुत कम बल्कि ना के बराबर होता है मगर मस'अला मालूम होना चाहिये।) और बरहना नमाज़ पढ़ते हुये रुकू'अ़ और सजदों की जगह इशारा किया जाये।
बरहना नमाज़ पढ़ते हुये किसी ने कपड़ा दे दिया तो नमाज़ जाती रहेगी अब कपड़ा पहन कर पढ़े और किसी ने कपड़े देने का वादा किया है तो आखिर वक़्त तक इन्तिज़ार करे और ना मिलने पर बरहना नमाज़ पढ़ ले।
अगर ऐसा कपड़ा है जो पूरा नजिस है तो उसे पहन कर नमाज़ ना पढ़े और अगर एक चौथाई पाक है तो उसे पहन कर नमाज़ पढ़ना वाजिब है। बरहना जाइज़ नहीं।
ये उस वक़्त है कि जब कपड़े को पाक करने के लिये कोई इंतिज़ाम ना हो वरना फिर ऐसा कपड़ा पहन कर नमाज़ नहीं होगी। मजबूरी में घास, पत्तों वग़ैरह से सित्र भी किया का सकता है। अगर इतना कपड़ा है कि पूरा सित्र नहीं होगा बल्कि बाज़ हिस्सा होगा तो उतना ही छुपाना वाजिब है। जिस ने मजबूरी में बरहना नमाज़ पढ़ी हो उस पर कपड़ा मिल जाने के बाद नमाज़ को दोहराना ज़रूरी नहीं है।
अगर सित्र का कपड़ा या उस के पाक करने की चीज़ का ना मिलना बन्दों की तरफ से हो तो नमाज़ पढ़े फिर दोहरा ले। ये नमाज़ की दूसरी शर्त की तफ़सील बयान हुई, अब नमाज़ की तीसरी शर्त की तरफ चलते हैं। नमाज़ के शराइत का मतलब ये है कि नमाज़ शुरू करने से पहले ये ज़रूरी हैं। तभी आप नमाज़ में दाखिल (Enter) हो सकते हैं। फिर नमाज़ के अंदर जो फराइज़ हैं वो अलग हैं।
यानी रुख क़िब्ला की तरफ होना चाहिये वरना नमाज़ शुरू ही नहीं होगी। इस के बारे में भी कुछ मसाइल हैं जिन्हें जानना ज़रूरी है।
नमाज़ अल्लाह के लिये ही पढ़ी जाती है, क़िब्ला के लिये नहीं लिहाज़ा अगर कोई क़िब्ला के लिये सजदा करे तो हराम और गुनाहे कबीरा है और अगर क़िब्ले की इबादत की निय्यत से करे तो काफ़िर है।
क़िब्ला किसी जिहत का नहीं बल्कि काबा की तरफ मुँह करने का नाम है, अब वो इस पर मुन्हसिर है कि पढ़ने वाला कहाँ से पढ़ रहा है।
काबे के अंदर नमाज़ पढ़ी तो जिधर चाहे रुख करे नमाज़ हो जायेगी और छत पर भी लेकिन छत पर चढ़ना मम्नूअ है।
काबे की तरफ मुँह है और 45 डिग्री से कम हटा हुआ है तो भी नमाज़ हो जायेगी। 45 डिग्री से ज़्यादा हटा हुआ हो तो नमाज़ ना होगी।
काबा सिर्फ अपनी ज़ाहिरी ऊँचाई तक ही क़िब्ला नहीं बल्कि सातवीं ज़मीन से अर्श तक क़िब्ला है तो कोई कितनी ही ऊँची इमारत पर या बिल्डिंग या पहाड़ पर नमाज़ पढ़े तो काबे की तरफ रुख करने से नमाज़ हो जायेगी।
अगर काबा किसी वली की ज़ियारत के लिये गया हुआ हो तो महज़ फिज़ा की तरफ मुँह करने से नमाज़ हो जायेगी, जहाँ काबा गया है उधर मुँह करने से नहीं होगी।
अगर कोई ऐसा शख्स है जो क़िब्ला की तरफ मुड़ नहीं सकता मस्लन बहुत बीमार है या कमज़ोर है और उसे क़िब्ला रुख करने वाला कोई नहीं तो जिस तरफ चाहे नमाज़ पढ़ ले और दोहराने की भी ज़रूरत नहीं है। चलती कश्ती में नमाज़ पढ़े तो निय्यत बांधते वक़्त क़िब्ला की तरफ मुँह करे और फिर जैसे जैसे कश्ती घूमती जाये ये भी क़िब्ला की तरफ घूमता जाये अगर्चे नफ्ल नमाज़ हो।
अगर कोई शख्स क़ैद में है और उसे क़िब्ला की तरफ रुख करने नहीं दिया जा रहा तो जैसे चाहे नमाज़ पढ़ ले बाद में मौक़ा मिलने पर दोहरा ले। अगर कहीं ऐसी जगह पर हो जहाँ क़िब्ला की शनाख्त ना हो सके, ना कोई मुसलमान हो जो बताये और ना वहाँ मस्जिद हो ना सूरज निकला हुआ हो, ना चाँद तारे निकले हुये हों या इन से क़िब्ला मालूम करने का तरीक़ा मालूम ना हो तो ऐसे में सोचें कि क़िब्ला किधर होना चाहिये और अन्दाज़ा लगायें फिर जिधर दिल जम जाये उधर मुँह कर के नमाज़ पढ़ें।
ऐसे में अगर नमाज़ पढ़ने के बाद मालूम हुआ कि क़िब्ला उधर नहीं था बल्कि दूसरी तरफ था तो नमाज़ हो गयी और दोहराने की भी ज़रूरत नहीं। अगर बिना तहर्री किये (यानी क़िब्ला की शनाख्त के लिये जुस्तजू और सोचे बगैर) नमाज़ पढ़ी तो नमाज़ नहीं होगी।
अगर बिना सोचे समझे नमाज़ पढ़ी और नमाज़ के बाद मालूम हुआ कि क़िब्ला की तरफ़ मुँह था और यक़ीनी तौर पर मालूम हुआ तो नमाज़ हो जायेगी और अगर यक़ीन ना हो महज़ गुमान हो तो नमाज़ नहीं हुई। अगर सोचा और जिधर दिल जम रहा था उस के खिलाफ़ किसी तरफ मुँह कर के नमाज़ अदा की तो नमाज़ ना हुयी अगर्चे क़िब्ला की तरफ ही पढ़ी हो।
अगर कोई जानने वाला मौजूद था और उस से पूछे बगैर अपने दिल से नमाज़ पढ़ ली तो अगर क़िब्ला की तरफ था तो हो गयी वरना नहीं। जानने वाले से पूछा और उस ने नहीं बताया फिर खुद से सोच कर नमाज़ पढ़ ली और नमाज़ के बाद उस ने बताया तो नमाज़ हो गयी और, दोहराने की हाजत नहीं।
अगर एक शख्स किसी तरफ़ मुँह कर के नमाज़ पढ़ रहा है तो उसे देख कर महज़ नमाज़ नहीं पढ़ सकते बल्कि खुद सोचना होगा कि क़िब्ला किधर है, अगर महज़ बिना सोचे उसे देख कर नमाज़ पढ़ी तो नहीं होगी। अगर नमाज़ के दौरान ऐसा लगा कि गलती हो गयी है और क़िब्ला इधर नहीं बल्कि उधर है तो फौरन नमाज़ के अन्दर घूम जाये और अगर तीन बार तस्बीह कहने जितना रुका रहा तो नमाज़ ना होगी। अगर नमाज़ में सजदा -ए- सहव कर रहा था यानी बिल्कुल आखिरी है और लगा कि क़िब्ला उधर है तो फौरन उधर घूम जाये और पहले जो भी रकअ़तें पढ़ी उन में कोई खराबी नहीं आयी।
अगर नमाज़ी अपना सीना नमाज़ में क़िब्ला से जान बूझ कर फेर दे तो नमाज़ नहीं होगी और अगर गलती से फेर दिया तो तीन मर्तबा तस्बीह कहने में जितना वक़्त लगता है उस से पहले वापस आ गया तो ठीक वरना नमाज़ नहीं होगी।
अगर सिर्फ मुँह क़िब्ला की तरफ से फिर जाये तो वाजिब है कि फौरन क़िब्ला की तरफ कर ले ऐसा बिला उज़्र करना मकरूह है। ये नमाज़ की तीन शर्तें और उन के मसाइल बयान हुये।
(1) फजर का वक़्त : सुब्हे सादिक़ के तुलू'अ़ होने से ले कर आफताब की किरन चमकने तक फजर का वक़्त है। सुब्हे सादिक़ एक रौशनी है जो पूर्व की तरफ से आसमान के किनारों पर दिखाई देती और बढ़ती जाती है यहाँ तक कि पूरे आसमान पर फैल जाती है और ज़मीन पर उजाला हो जाता है। सुब्हे सादिक़ से पहले बीच आसमान में एक सफेदी ज़ाहिर होती है और उस के नीचे बिल्कुल सियाह आसमान होता है फिर सुब्हे सादिक़ इस के नीचे से फूट कर आसमान पर फैलने लगता है और ऊपर बढ़ता है, ये जो सफेदी थी वो इस में गाइब हो जाती है और इसे सुब्हे काज़िब कहते हैं और फज्र का वक़्त इस से शुरू नहीं होता।
नमाज़े फज्र के वक़्त के लिये सुब्हे सादिक़ की सफ़ेदी के चमक कर फैलने का ऐतबार किया जाये और इशा व सहरी खाने में इस के तुलू'अ़ होने की इब्तिदा का ऐतबार होगा। सुब्हे सादिक़ चमकने से तुलूअ़ -ए- आफताब तक इन बलाद (शहरों) में कम अज़ कम 1 घन्टा 18 मिनिट ज़्यादा से ज़्यादा 1 घन्टा 35 मिनिट। ना इस से कम होगा ना इस से ज़्यादा। 22 जून को 1 घंटा 35 मिनिट हो जाता है फिर घटना शुरू होता है यहाँ तक कि 22 सितम्बर को 1 घन्टा 18 मिनिट हो जाता है, फिर बढ़ता है यहाँ तक कि 22 दिसम्बर को 1 घन्टा 24 मिनिट हो जाता है, फिर कम होता रहता है यहाँ तक कि 21 मार्च को वही 1 घंटा 18 मिनिट हो जाता है।
जो शख्स सही वक़्त ना जानता हो उसे चाहिये कि गर्मियों में 1 घन्टा 40 मिनिट बाक़ी रहने पर सेहरी छोड़ दे खास कर के जून और जुलाई में और जाड़ों में देढ़ घन्टा रहने पर खुसूसन दिसम्बर जनवरी में और मार्च व सितम्बर के आखिर में जब दिन रात बराबर होते हैं तो सहरी एक घन्टा 24 मिनिट पर छोड़ दे और सेहरी छोड़ने का जो वक़्त कहा गया है उस के 8-10 मिनिट बाद अज़ान कही जाये ताकि सेहरी व अज़ान दोनों तरफ़ एहतियात रहे।
आज कल टाईम टेबल लिखे हुये होते हैं, हर जगह मस्जिदें मौजूद हैं जहाँ नहीं हैं वहाँ भी ऐसा इन्तिज़ाम ज़रूर है कि लोग सुब्हे सादिक़ की सफ़ेदी या सुब्हे काज़िब की सफ़ेदी को देख कर अंदाज़ा उमूमन नहीं लगाते। इस के अलावा आज कल मोबाइल में भी एप्लीकेशन्स आ गयी हैं जो वक़्त बताने के साथ साथ आप को ये बताते रहती हैं कि कितना वक़्त बाक़ी है लिहाज़ा ये मसाइल जानना हर आदमी के लिये ज़रूरी नहीं। यही वजह है कि इस की ज़्यादा तफ़सील यहाँ बयान नहीं की जायेगी। अब वक़्ते ज़ुहर के बारे में ये कुछ बातें जान लें। वक़्ते ज़ुहर और जुम्आ : आफताब ढलने के बाद से ले कर उस वक़्त तक है कि हर चीज़ का साया इलावा असली साये के दोगुना हो जाये। वक़्ते अस्र: ज़ुहर का वक़्त खत्म होने के बाद से सूरज डूबने तक है। इन शहरों में अस्र का वक़्त कम से कम 1 घन्टा 35 मिनिट और ज़्यादा से ज़्यादा 2 घन्टा 6 मिनिट है।
वक़्ते मगरिब : गुरूबे आफताब से गुरूबे शफक़ तक है। मगरिब का वक़्त शफक़ डूबने तक होता है। शफक़ उस सफ़ेदी का नाम है जो मगरिब की तरफ़ सुर्खी डूबने के बाद शुमालन जुनूबन सुब्हे सादिक़ की तरह फैली हुयी रहती है और ये वक़्त इन शहरों में कम से कम 1 घन्टा 18 मिनिट और ज़्यादा से ज़्यादा 1 घन्टा 35 मिनिट होता है। हर रोज़ के सुबह और मगरिब के वक़्त बराबर होते हैं। वक़्ते इशा : मगरिब की सफ़ेदी डूबने के बाद से तुलू -ए- फज्र तक होता है। इशा की और वित्र की नमाज़ का वक़्त एक ही है लेकिन इन में तरतीब फर्ज़ है यानी इशा के बाद वित्र पढ़नी है।
अगर इशा से पहले वित्र पढ़ ली तो होगी ही नहीं अलबत्ता भूल कर पढ़ ली तो हो जायेगी। फजर के वक़्त नमाज़ में ताखीर करना मुस्तहब है यानी जब ज़मीन रौशन हो तब शुरू करे और इतना वक़्त बाक़ी हो कि चालीस से साठ आयत तक तरतील के साथ तिलावत कर सके फिर अगर नमाज़ में कोई फसाद हो जाये यानी दोहरानी पड़े तो चालीस से साठ आयतें तरतील के साथ पढ़ सके और इतनी ताखीर मकरूह है कि तुलू -ए- आफताब का शक हो जाये।
औरतों के लिये फज्र की नमाज़ हमेशा अव्वल वक़्त में मुस्तहब है यानी देर ना करें और बाक़ी नमाज़ों में बेहतर है कि मर्दों की जमाअ़त का इन्तिज़ार करें, जब जमाअ़त हो जाये उस के बाद पढ़ें। जुम्आ का मुस्तहब वक़्त वही है जो ज़ुहर का है। अस्र की नमाज़ में ताखीर मुस्तहब है मगर इतनी ना हो कि आफताब पर ज़र्दी आ जाये और बे तकल्लुफ़ नज़र जमने लगे। तजुर्बे से साबित है कि ये वक़्त मगरिब से बीस मिनिट पहले तक है लिहाज़ा ये मकरूह वक़्त है। ठीक इसी तरह तुलू -ए- आफताब के बाद भी बीस मिनिट।
इशा की नमाज़ से पहले सोना और नमाज़ के बाद फालतू की बातें करना, क़िस्से कहानी सुनना मकरूह है। ज़रूरी बातें, इल्मे दीन पढ़ना सीखना, वाज़ो नसीहत, मेहमान से बातें, ज़िक्र, क़ुरआन की तिलावत में हर्ज नहीं। तुलू -ए- फज्र से तुलू -ए- आफताब तक ज़िक्रे इलाही के सिवा हर बात मकरूह है। जिस को भरोसा हो कि जाग जायेगा तो आखिर रात में वित्र पढ़े वरना सोने से पहले पढ़ ले। कुछ अवक़ात मकरूह हैं यानी इन में नमाज़ नहीं पढ़ सकते। सुबह सूरज निकलने के 20 मिनिट बाद तक, मगरिब से पहले 20 मिनिट तक और दिन का दरमियानी हिस्सा। इन तीनों वक़्तों में कोई नमाज़ जाइज़ नहीं, ना फर्ज़ ना वाजिब ना नफ्ल ना अदा ना क़ज़ा यूँ ही सजदा ए तिलावत भी जाइज़ नहीं।
अगर किसी ने उसी दिन की अस्र की नमाज़ नहीं पढ़ी और मगरिब का वक़्त क़रीब हो (यानी 5-10 मिनिट) भी बचे हों तो पढ़ ले लेकिन इतनी ताखीर करना हराम है। दिन का दरमियान हिस्सा जिसे लोग 12 बजे समझते हैं, ऐसा नहीं है ये वक़्त 12 बजे नहीं होता और ये बदलते भी रहता है जिस को निकालने का तरीक़ा थोड़ा मुश्किल है लिहाज़ा कैलेन्डर या एप्लिकेशन्स वग़ैरह देखे जायें। जनाज़ा अगर मकरूह वक़्त में लाया गया तो पढ़ सकते हैं। अगर मकरूह वक़्त में आयते सजदा पढ़ी तो सजदा मकरूह वक़्त जाने के बाद करे और अगर कर लिया हो तो हो गया और गैरे मकरूह वक़्त में आयत पढ़ी और मकरूह वक़्त में सजदा किया तो ये मकरूहे तहरीमी है।
मकरूह वक़्तों में क़ज़ा नमाज़ पढ़ना नाजाइज़ है, अगर निय्यत बांध ली तो तोड़ दे और मकरूह वक़्त जाने के बाद पढ़े और अगर निय्यत ना तोड़ी और पढ़ ली तो फर्ज़ साक़ित हो जायेगा लेकिन गुनाहगार होगा। अगर मकरूह वक़्त में नफ्ल नमाज़ शुरू की तो अब वो वाजिब हो गयी मगर उस वक़्त पढ़ना जाइज़ नहीं लिहाज़ा निय्यत तोड़ दे और मकरूह वक़्त जाने के बाद पढ़े और अगर पढ़ ली तो बाद में क़ज़ा वाजिब नहीं पर गुनाहगार होगा। मकरूह वक़्त में क़ुरआन की तिलावत भी बेहतर नहीं लिहाज़ा ज़िक्र और दुरूद में मशगूल रहे। 12 वक़्तों में नवाफ़िल पढ़ना मना है और इन 12 में से 6 में फराइज़ो वाजिबात और नमाज़े जनाज़ा और सजदा -ए- तिलावत भी मना है।
(1) तुलू -ए- फज्र से तुलू -ए- आफताब तक (इस में सिवाये 2 रकअ़त सुन्नते फज्र के कोई नमाज़ जाइज़ नहीं) नमाज़े फज्र के बाद तुलू -ए- आफताब में अगर्चे बहुत वक़्त बाक़ी हो और सुन्नते फज्र ना पढ़ी हो और अब पढ़ना चाहे तो जाइज़ नहीं है।
(2) अपने मज़हब की जमाअ़त के लिये इक़ामत हुयी तो इक़ामत से खत्मे जमाअ़त तक सुन्नतो नफ्ल पढ़ना मकरूहे तहरीमी है। सिर्फ फ़ज्र की नमाज़ में अगर यक़ीन है कि सुन्नत पढ़कर जमाअ़त के आखिरी क़ादे में भी शामिल हो जायेगा तो दूर सुन्नत पढ़ ले और जमाअ़त में शामिल हो जाये और अगर मालूम है कि सुन्नत में मशगूल होने से फर्ज़ छूट जायेगी और सुन्नत में मशगूल हो गया फर्ज़ छूट गया तो गुनाहगार होगा बाक़ी नमाज़ों में अगर जमाअ़त क़ाइम हो चुकी है और मालूम है कि सुन्नत के बाद भी जमाअ़त मिल जायेगी फिर भी पढ़ना नाजाइज़ है।
(3) नमाज़े अस्र से आफताब ज़र्द होने तक नफ्ल नमाज़ मना है और अगर पढ़ते हुये तोड़ दी तो क़ज़ा इस वक़्त में अदा नहीं कर सकता और की तो नाकाफ़ी है।
(4) गुरूबे आफताब से फर्ज़े मगरिब तक।
(5) जिस वक़्त इमाम जुम्आ के खुत्बे के लिये खड़ा हो उस वक़्त से खत्मे जुम्आ तक नफ्ल नमाज़ मकरूह है यहाँ तक कि जुम्आ की सुन्नतें भी। ऐन खुत्बा के वक़्त चाहे वो जुम्आ का हो, ईद का हो या निकाह का हर नमाज़ नाजाइज़ है, हत्ता कि क़ज़ा भी अलबत्ता साहिबे तरतीब के लिये जुम्आ के खुत्बे के वक़्त क़ज़ा की इजाज़त है। किसी ने जुम्आ की सुन्नतें शुरू कर ली और इस के बाद खुत्बा शुरू हो गया तो चाहिये कि 4 रकाअ़त पूरी कर ले।
(7) ईदैन की नमाज़ से पहले नफ्ल पढ़ना मकरूह है चाहे घर में पढ़े या ईदगाह में या मस्जिद में।
(8) ईदैन की नमाज़ के बाद मस्जिद और ईदगाह में नफ्ल पढ़ना मकरूह है, घर में पढ़ सकते हैं मकरूह नहीं।
(9) अरफ़ात में जो ज़ुहर और अस्र मिला कर पढ़ते हैं, उन के दरमियान में और बाद में नफ्ल व सुन्नत मकरूह है।
(10) मुज़्दलिफ़ा में जो मगरिब और इशा मिला कर पढ़ते हैं, उन के दरमियान में नफ्लो सुन्नत पढ़ना मकरूह है बाद में पढ़ सकते हैं।
(11) फर्ज़ का वक़्त तंग हो तो हर नमाज़ यहाँ तक कि फ़ज्र की और ज़ुहर की सुन्नतें तक मकरूह हैं।
(12) ऐसी बात जिस की वजह से दिल बँटे, तवज्जो हटे और उसे दफ़ा कर सकता है तो बिना दफ़ा किये नमाज़ मकरूह है।
मस्लन पेशाब या पखाना शिद्दत से लगा हुआ है या रीह (हवा) खारिज होने का गलबा है तो पहले इसे दफ़ा करे फिर नमाज़ पढ़े और वक़्त ना हो तो इसी तरह पढ़ ले फिर दोहरा ले। खाना सामने आ गया और खाने का मन हो तो पहले खाना खाये फिर नमाज़ पढ़े क्योंकि जिस चीज़ से दिल बँट जाये तो उन वक़्तों में नमाज़ पढ़ना मकरूह होगा। फज्र और ज़ुहर के वक़्त में अव्वल से आखिर तक कोई कराहत नहीं यानी ये नमाज़ें अपने वक़्त के जिस हिस्से में पढ़ी जायें अस्लन मकरूह नहीं।
ये नमाज़ के वक़्तों के बारे में मसाइल बयान किये गये, अब अज़ान के मुतल्लिक़ मसाइल बयान किये जायेंगे क्योंकि नमाज़ का अज़ान से एक खास ताल्लुक़ है और इस के बारे में ज़रूरी मसाइल का इल्म होना चाहिये। पाँच वक़्तों की नमाज़ जिन में जुम्आ भी है, अगर ये जमाअ़ते मुस्तहब्बा के साथ मस्जिद में वक़्त पर अदा किये जायें तो अज़ान सुन्नते मुअक्किदा है और इस का हुक्म वाजिब की मिस्ल है यानी अगर अज़ान ना कही गयी तो इलाक़े के तमाम लोग गुनाहगार होंगे यहाँ तक कि इमाम मुहम्मद रहीमहुल्लाह त'आला ने फ़रमाया कि अगर किसी शहर के तमाम लोग अज़ान कहना छोड़ दें तो मै उन से क़िताल करूँगा और अगर एक शख्स छोड़ दे तो उसे मारूँगा और क़ैद कर दूँगा।
मस्जिद में बगैर अज़ान और इक़ामत के नमाज़ पढ़ना मकरूह है। क़ज़ा नमाज़ मस्जिद में पढ़े तो अज़ान ना कहे। अगर कोई शख्स शहर में घर में नमाज़ पढ़े और अज़ान ना कहे तो कराहत नहीं है क्योंकि वहाँ मस्जिद की अज़ान उस के लिये काफ़ी है और कह लेना मुस्तहब है। गाँव में अगर मस्जिद है और अज़ान व इक़ामत होती है तो वहाँ घर में नमाज़ पढ़ने वाले का वही हुक्म है जो शहर में पढ़ने वालों का है और मस्जिद ना हो तो अज़ान वा इक़ामत में उस को वही हुक्म है जो मुसाफिर को है।
अगर शहर मे बाहर या क़रिया या खेत में है और नमाज़ पढ़नी है तो अगर वो जगह क़रीब है तो अज़ान काफ़ी है लेकिन कह लेना बेहतर है। क़रीब होने का ये मतलब है कि अज़ान की आवाज़ पहुँचती हो और अगर ना पहुँचती हो तो फिर शहर की अज़ान काफ़ी नहीं। लोगों ने मस्जिद में नमाज़ पढ़ी और बाद में मालूम हुआ कि वो नमाज़ सही नहीं हुयी तो उसी मस्जिद में जमाअ़त के साथ पढ़ें और अज़ान को दोहराना ज़रूरी नहीं और फ़स्ल तवील ना हो यानी फौरन दोबारा जमाअ़त हो रही हो तो इक़ामत की भी हाजत नहीं और अगर वक़्फा ज़्यादा हुआ तो इक़ामत कही जाये और अगर वक़्फा चला गया तो गैरे मस्जिद में अज़ानो इक़ामत के साथ पढ़े।
जमाअ़त भर की नमाज़ क़ज़ा हो गयी तो अज़ान व इक़ामत के साथ पढ़ें और अकेले की क़ज़ा हुयी तो भी अज़ान व इक़ामत कह सकता है जबकि कहीं तन्हा हो वरना क़ज़ा नमाज़ का इज़हार करना गुनाह है और इसीलिये मस्जिद में क़ज़ा पढ़ना मकरूह है। अगर मस्जिद में क़ज़ा पढ़े तो अज़ान ना कहे और वित्र की क़ज़ा पढ़े तो तीसरी रकअ़त में हाथ ना उठाये और अगर किसी ऐसी वजह से नमाज़ क़ज़ा हुयी कि वहाँ सब उस में मुब्तिला थे तो अज़ान कही जाये।
अज़ान वक़्त होने के बाद दी जानी चाहिये अगर वक़्त से पहले दे दी या वक़्त होने से पहले शुरू की और अज़ान के दरमियान वक़्त आ गया तो अज़ान दोहरायी जाये। फराइज़ के सिवा बाक़ी नमाज़ों मस्लन, सुनन, नवाफ़िल, तरावीह, जनाज़ा वग़ैरह में अज़ान नहीं। बच्चे के कान में, मिर्गी वाले और गज़बनाक आदमी, बदमिज़ाज आदमी या जानवर के कान में अज़ान देना और लड़ाई की शिद्दत में और आग लगी हो उस वक़्त या मैय्यत को दफन करने के बाद और जिन्न की सरकशी के वक़्त और मुसाफिर के पीछे और जंगल में और जब रास्ता भूल जाये और कोई बताने वाला ना हो उस वक़्त अज़ान कहना मुस्तहब है। औरतों को अज़ानो इक़ामत कहना मकरूहे तहरीमी है, कहेंगी तो गुनाहगार होंगी। वबा के ज़माने में भी अज़ान कहना मुस्तहब है।
औरतें अपनी नमाज़ अदा पढ़ती हों या क़ज़ा, उस में अज़ानो इक़ामत मकरूह है। अगर औरतें जमाअ़त से नमाज़ पढ़ें तो भी अज़ानो इक़ामत मकरूह है और खुद औरतों की जमाअ़त ही मकरूह है। फासिक़ अगर्चे आलिम क्यों ना हो उस की अज़ान मकरूह है।पागल, ना-समझ बच्चे की अज़ान भी मकरूह है लिहाज़ा इन को दोहराया जाये आज कल गाँव बल्कि शहरों की मस्जिदों में अज़ान देने के लिये कई मस्जिदों में ऐसे लोगों को मुक़र्रर किया जाता है जो फासिक़ होते हैं, ये सही नहीं है। कुछ लोग बस ये देखते हैं कि अज़ान देने के लिये किसी ऐसे शख्स को रखा जाये जो रिटायर हो चुका हो और कम पैसों में काम चल जाये फिर ना अज़ान में वो लज़्ज़त मिलती है और ना नमाज़ में।
आज कल दुकानों, मॉल्स और जगह-जगह कस्टमर के साथ डील करने के लिये ऐसे लोग रखे जाते हैं जो अच्छी तरह बोल सकें, लोगों को अपनी तरफ माइल कर सकें और पढ़े लिखे हों तो क्या नमाज़ जैसी इबादत के लिये जब बुलाने की बात आती है तो क्या इन्हें ऐसा शख्स नहीं रखना चाहिये जो बा-शरअ़ हो, मसाइल से वाक़िफ़ हो, अच्छी आवाज़ का मालिक हो ताकि अज़ाने बिलाल तो हम सुन ना सके पर उसे महसूस कर सकें। काश कि ये लोग बात समझें और ऐसे लोगों को ये मंसब दें जिनकी आवाज़ लोगों की आँखों को अश्कबार कर दे। समझदार बच्चे की, वलदुज़्ज़िना की, गुलाम की और बे-वुज़ू अज़ान सही है पर बे-वुज़ू देना मकरूह है।
जुम्आ के दिन शहर में ज़ुहर की नमाज़ के लिये अज़ान नाजाइज़ है अगर्चे ज़ुहर पढ़ने वाले माज़ूर हो, जिन पर जुम्आ फर्ज़ ना हो। अज़ान कहने का अहल वो है जो नमाज़ के वक़्तों को पहचानता हो और वक़्त ना पहचानता हो तो उस के लिये वो सवाब नहीं जो मुअज़्ज़िन के लिये है। आज कल कुछ मस्जिदों में ऐसे लोगों को अज़ान देने के लिये रखा जाता है कि कभी कभी वो 1 बजे की बजाये 12 बजे अज़ान दे देते हैं क्योंकि नज़र की कमज़ोरी में घंटे और मिनिट वाले कांटे घड़ी में एक जैसे दिखायी देते हैं। मुस्तहब ये है कि मुअज़्ज़िन मर्दे आक़िल, सालेह, परहेज़गार, आलिम बिस सुन्नह, ज़ी वजाहत, लोगों के अहवाल का निगरान और जो जमाअ़त से रह जाने वाले हों उनको ताकीद करने वाला हो, अज़ान पर हमेशगी करता हो और सवाब के लिये अज़ान देता हो यानी अज़ान पर उजरत ना लेता हो।
अगर मुअज़्ज़िन ही इमाम हो तो बेहतर है। एक शख्स को एक वक़्त में दो मस्जिदों में अज़ान कहना मकरूह है। अज़ान व इमामत की विलायत बानी -ए- मस्जिद को है वो ना हो तो उसकी अवलाद उसके कुम्बे वालों को और अगर अहले मुहल्ला ने किसी ऐसे को इमाम व मुअज़्ज़िन किया जो बानी या उसकी अवलाद से बेहतर है तो वही बेहतर है। बैठ कर अज़ान देना मकरूह है अगर दी तो दोहरा ले और मुसाफिर सवारी पर बैठ कर अज़ान दे सकता है मकरूह नहीं। मुसाफिर को इक़ामत सवारी से उतर कर कहनी चाहिये और अगर सवारी पर कह की ली हो गयी।
अज़ान क़िब्ला की तरफ मुँह कर के कही जाये अगर उल्टा किया तो मकरूह है दोहरायी जाये और मुसाफिर जब सवारी पर बैठा हो तो क़िब्ला की तरफ मुँह ना होने में हर्ज नहीं। अज़ान कहते वक़्त बिला ज़रूरत खंकारना मकरूह है और अगर गला साफ़ करने के लिये करे तो हर्ज नहीं। चलते हुये अज़ान देना भी मकरूह है तो किसी ने अगर चलते हुये दी तो दोहरायी जाये। अज़ान के बीच में बात चीत मना है और अगर ऐसा किया तो अज़ान दोहराये। अज़ान के कलिमात में लहन हराम है। यानी अल्लाह के हम्ज़ा को आल्लाह या अकबर हो आकबर पढ़ना, ये हराम है।
अज़ान को मौसिक़ी के क़वाइद पर गाना भी हराम है। सुन्नत ये है कि अज़ान बुलंद जगह से दी जाये और बुलंद आवाज़ से ताकि मुहल्ले वालों को खूब सुनायी दे। अज़ान में ताक़त से ज़्यादा आवाज़ बुलंद करना मकरूह है। अज़ान मीनारे से कही जाये या खारिजे मस्जिद से, मस्जिद में अज़ान ना कहे। मस्जिद में अज़ान कहना मकरूह है। ये हुक्म हर अज़ान के लिये, किसी भी अज़ान को फिक़्ह की किताबों में मुसतस्ना नहीं किया गया। जुम्आ को जो दूसरी अज़ान होती है वो भी इसी में दाखिल है। अज़ान के कलिमात ठहर-ठहर के पढ़ने चाहिये। अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर ये एक कलिमा है, इस के बाद सक्ता करे यानी चुप हो जाये और इतनी देर के जवाब देने वाला जवाब दे सके।
अगर अज़ान या इक़ामत में कहीं कोई कलिमा आगे पीछे हो गया तो उतने को सही कर ले, पूरी अज़ान को दोहराना ज़रूरी नहीं और अगर सहीह किये बिना नमाज़ पढ़ ली तो नमाज़ को दोहराना ज़रूरी नहीं। कोई भी अज़ान हो, हैय्य-अ़लस्सलाह कहते वक़्त दायीं तरफ मुँह करे और हैय्य-अ़लफ़लाह के वक़्त बायीं तरफ और सिर्फ मुँह करे, सीना या जिस्म को ना फेरे। सुबह की अज़ान में फ़लाह के बाद अस्सलातु खैरुम्-मिनन्-नौम कहना मुस्तहब यानी बेहतर है। अज़ान कहते वक़्त कानों के सुराख में उंगलियाँ डाले रहना मुस्तहब है और अगर दोनों हाथ कानों पर रख ले तो अच्छा है और कान में उंगली डालना ज़्यादा अच्छा है कि हदीस में है और आवाज़ बुलंद करने में ज़्यादा मदद मिलती है।
इक़ामत भी अज़ान की तरह है यानी जो अहकाम बयान किये गये हैं वो इसके लिये भी हैं सिर्फ बाज़ बातों में फर्क़ है। इस में बाद फ़लाह के क़द क़ामतिस्-सलात दो बार कहें और इस में भी आवाज़ बुलंद हो। इसके कलिमात जल्द-जल्द कहें, सक्ता ना करें और ना कानों पर हाथ रखना है ना कानों पर उंगलियाँ रखनी है। अगर इमाम ने इक़ामत कही तो क़द क़ामतिस्-सलात कहते वक़्त आगे चला जाये। इक़ामत में भी हैय्य-अ़लस्-सलाह और हैय्य-अ़लल फ़लाह कहते वक़्त मुँह फेरे। जिस ने अज़ान कही वो मौजूद नहीं तो जिसे चाहे इक़ामत के लिये आगे कर सकते हैं, इमाम बेहतर है। अगर मुअज़्ज़िन मौजूद है तो उस की इजाज़त से दूसरा कह सकता है ये उसी का हक़ है और अगर मुअज़्ज़िन से इजाज़त लिये बगैर कही और उसे बुरा लगा तो मकरूह है।
जुनूब या बे-वुज़ू शख्स की इक़ामत मकरूह है मगर दोहरायी नहीं जायेगी जैसा कि अज़ान दोहराने का हुक्म है। ऐसा इसीलिये कि अज़ान की तकरार मशरू है और इक़ामत दो बार नहीं। इक़ामत के वक़्त कोई शख्स आया तो खड़े हो कर इन्तिज़ार करना मकरूह है बल्कि बैठ जाये और जब हैय्य-अ़लल फ़लाह पर पहुँचे तो खड़ा हो और जो लोग मस्जिद में हैं वो भी और इमाम भी सब हैय्य-अ़लल फ़लाह पर खड़े हों। कुछ लोग इक़ामत के वक़्त दाखिल होते हैं तो ये सोच कर कि अब तो सब को खड़े ही होना है लिहाज़ा खड़े हो कर ही इन्तिज़ार कर लेते हैं ये मकरूह है। मुसाफिर ने अज़ानो इक़ामत दोनों ना कही या इक़ामत ना कही तो मकरूह है।
अगर अज़ान ना कही और सिर्फ इक़ामत कही तो मकरूह नहीं पर बेहतर ये है कि अज़ान भी दे चाहे अकेला हो या लोग हमराह हों। शहर के बाहर कहीं मैदान में जमा'अ़त क़ाइम की और इक़ामत ना कही तो मकरूह है और अज़ान ना कही तो मकरूह नहीं पर खिलाफे अवला है।
मुहल्ले की मस्जिद में इमाम और मुअज़्ज़िन मुअ़य्यन हैं और मस्नून तरीक़े से जमा'अ़त हो जाये तो दोबारा अज़ान कहना मकरूह है और अगर दोबारा जमा'अ़त की जाये तो इमाम मेहराब से अलग दायें या बायें खड़ा हो ताकि फर्क़ हो जाये। उस इमाम को मेहराब में दूसरी जमा'अ़त के लिये खड़ा होना मकरूह है और अगर मुहल्ले की मस्जिद ना हो बल्कि सड़क, बाज़ार, स्टेशन या सराये में कोई ऐसी मस्जिद हो जहाँ चंद लोग आते हैं नमाज़ पढ़ कर चले जाते हैं फिर चंद लोग आते हैं और नमाज़ पढ़ते हैं तो ऐसे में अज़ान की तकरार मकरूह नहीं है बल्कि अफज़ल यही है कि हर गिरोह जदीद अज़ान व इक़ामत के साथ जमा'अ़त करे।
मुहल्ले की मस्जिद में कुछ लोगों ने जमा'अ़त क़ाइम कर ली फिर उस के बाद इमाम और बाक़ी लोग आये तो जमा'अ़त -ए- ऊला इन की है और पहलों के लिये कराहत। यूँ ही गैरे मुहल्ला वाले आये और पढ़ कर चले गये फिर इमाम और मुहल्ले के लोग आये तो यही जमा'अ़त -ए- ऊला है और इमाम मेहराब में ही खड़ा होगा। अगर अज़ान आहिस्ता कही गयी तो फिर से कही जाये और पहली जमा'अ़त जमा'अ़त -ए- ऊला नहीं। इक़ामत के दरमियान भी कलाम करना नाजाइज़ है जैसे अज़ान में। अज़ान और इक़ामत के दरमियान उस को किसी ने सलाम किया तो जवाब ना दे और अज़ानो इक़ामत के बाद भी जवाब देना वाजिब नहीं।
Azan Ka Jawab Kaise De?
जब अज़ान सुने तो जवाब देने का हुक्म है यानी मुअज़्ज़िन जो कहे जवाब में वही कहा जाये सिवाये हैय्य-अ़लस्-सलाह और हैय्य-अ़लल फ़लाह कहते वक़्त ला-हौला पढ़ा जाये।
لا حَوْلَ وَلَا قُوَّۃَ اِلَّا بِاللّٰہِ
बेहतर ये है कि हैय्य-अ़लस्-सलाह और हैय्य-अ़लल फ़लाह भी कहे और ये भी और साथ में ये भी मिला ले।
مَا شَائَ اللّٰہُ کَانَ وَمَا لَمْ یَشَأْ لَمْ یَکُنْ (درمختار، ردالمحتار، عالمگیری)
अस्सलातु खैरुम्-मिनन्-नौम के जवाब में ये कहे :
صَدَقْتَ وَ بَرَرْتَ وَبِالْحَقِّ نَطَقْتَ
अज़ान का जवाब जुनूब (जिस पर गुस्ले जनाबत फर्ज़ है) भी दे। हैज़ो निफास वाली औरत, खुत्बा सुनने वाले, नमाज़े जनाज़ा पढ़ने वाले और जो जिमा में मश्गूल हों या क़ज़ा -ए- हाजत में हो, इन पर अज़ान का जवाब नहीं यानी इन्हें जवाब नहीं देना है। जब अज़ान हो तो सलाम कलाम को इतनी देर के लिये रोक दे बल्कि क़ुरआने मजीद की तिलावत करने वाले को अज़ान सुनायी दे रही है तो रोक दे और अज़ान को गौर से सुने और जवाब दे यूँ ही इक़ामत में।
जो अज़ान के वक़्त बातों में मशगूल रहा तो म'आज़ अल्लाह उस पर बुरे खातिमे का खौफ़ है। रास्ते में चल रहा था और अज़ान की आवाज़ आयी तो उतनी देर तक रुक जाये और अज़ान का जवाब दे। इक़ामत का जवाब मुस्तहब है और फर्क़ इतना है कि क़द क़ामतिस्-सलात के जवाब में इन दोनों में से कोई एक पढ़े
اَقَامَھَا اللّٰہُ وَ اَدَامَھَا مَا دَامَتِ السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ
اَقَامَھَا اللّٰہُ وَاَدَامَھَا وَجَعَلْنَا مِنْ صَالِحِیْ اَھْلِھَا اَحْیَائً وَ اَمْوَاتًا
अगर चंद अज़ानें सुने तो पहली का जवाब देना हौ और सब का देना बेहतर है। अगर अज़ान के वक़्त जवाब ना दिया और ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ है तो जवाब दे सकता है। खुत्बे की अज़ान का जवाब मुक़्तदियों को ज़ुबान से देना जाइज़ नहीं।
Azan Ke Bad Ki Dua
जब अज़ान मुकम्मल हो जाये तो मुअज़्ज़िन और सुनने वाले दुरूद पढ़ें फिर इस दुआ को पढ़ें।
اَللّٰھُمَّ رَبَّ ھٰذِہِ الدَّعْوَۃِ التَّامَّۃِ وَالصَّلٰوۃِ الْقَائِمَۃِ اٰتِ سَیِّدَنَا مُحَمَّدَنِ الْوَسِیْلَۃَ وَالْفَضِیْلَۃَ وَالدَّرَجَۃَ الرَّفِیْعَۃَ وَابْعَثْہُ مَقَامًا مَّحْمُوْدَنِ الَّذِیْ وَعَدْتَّہٗ وَاجْعَلْنَا فِیْ شَفَاعَتِہٖ یَوْمَ الْقِیٰمَۃِ اِنَّکَ لَا تُخْلِفُ الْمِیْعَادَ
जब अज़ान में हुज़ूर ﷺ का नाम आये तो दुरूद पढ़ें और मुस्तहब है कि अँगूठों को चूम कर आंखों से लगा लें और ये पढ़ें।
قُرَّۃُ عَیْنِیْ بِکَ یَا رَسُوْلَ اللّٰہِ اَللّٰھُمَّ مَتِّعْنِیْ بِالسَّمْعِ وَالْبَصَرِ
नमाज़ की अज़ान के इलावा और अज़ानों का भी जवाब दिया जायेगा मस्लन बच्चा पैदा होते वक़्त की अज़ान। अगर अज़ान गलत कही गयी मस्लन लहन के साथ तो ऐसी अज़ान का जवाब नहीं और सुननी भी नहीं चाहिये। अज़ान के बाद एक बार और नमाज़ के लिये ऐलान करने को तस्वीब कहते हैं और ये मुस्तहसन है और शरीअ़त में इस के लिये कोई अलफाज़ मुक़र्रर नहीं लिहाज़ा उर्फ़ के ऐतबार से इख्तियार किया जा सकता है मस्लन ये पढ़ना
اَلصَّلٰوۃُ اَلصَّلٰوۃُ یَا قَامَتْ قَامَتْ یا اَلصَّلوَۃُ وَالسََّلَامُ عَلَیْکَ یَا رَسُوْلَ اللّٰہِ ( درمختار وغیرہ)
मगरिब की अज़ान के बाद तस्वीब नहीं होती और दो बार कह लें तो हर्ज नहीं। अज़ान और इक़ामत के दरमियान वक़्फा करना सुन्नत है। अज़ान कहते ही इक़ामत कह देना मकरूह है। मगरिब में वक़्फा तीन छोटी आयतों या एक बड़ी आयत (पढ़ने) के बराबर हो। बाक़ी नमाज़ों में इतना वक़्फा रखा जाये कि जो जमाअ़त के पाबंद हों वो आ जायें और इतनी देर वक़्फा ना करें कि मकरूह वक़्त आ जाये। जिन नमाज़ों में पहले सुन्नत या नफ्ल है उं में बेहतर है कि मुअज़्ज़िन अज़ान के बाद सुननो नवाफ़िल पढ़े वरना बैठा रहे।
मुहल्ले के रईस का उस की रियासत के सबब इंतिजार मकरूह है और अगर वो शरीर है और वक़्त में गुंजाइश है तो इन्तिज़ार कर सकते हैं। पहले के उलमा ने अज़ान पर उजरत लेने को हराम बताया है पर बाद में उलमा ने देखा कि अगर हराम ही का क़ौल किया जाये तो सुस्ती की वजह से नुक़सान होगा तो इजाज़त दी गयी है और अब इसी पर फतवा है मगर हदीस में मुअज़्ज़िन के लिये जो फज़ीलतें बयान की गयी हैं वो उसी के लिये हैं जो उजरत के लिये अज़ान ना दे और अल्लाह त'आला की रज़ा के लिये अज़ान देते हैं।
अगर मुअज़्ज़िन साहिब को लोग अपनी तरफ से दे दें तो ये जाइज़ है बल्कि बेहतर है और ये उजरत नहीं। नमाज़ की 6 शर्तों में 4 का बयान तक़रीबन मुकम्मल हुआ। अब हम नमाज़ की पाँचवी शर्त के बारे में बयान करेंगे और वो है
हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फरमाया कि आमाल का दारोमदार निय्यत पर है और हर शख्स के लिये वही है जिस की उस ने निय्यत की (सहीह बुखारी) निय्यत का सिर्फ नमाज़ में ही नहीं बल्कि दूसरे आमाल में भी बड़ा अहम किरदार है और इस की अहमिय्यत कई हदीसों में बयान की गयी है। निय्यत दिल के पक्के इरादे को कहते हैं सिर्फ जानना निय्यत नहीं जब तक इरादा ना हो और निय्यत में ज़ुबान का ऐतबार नहीं है जैसा कि तारीफ़ में बयान हुआ है कि ये दिल के इरादे का नाम है तो अगर किसी ने ज़ुहर की निय्यत की और ज़बान से अस्र का लफ्ज़ निकल गया तो भी नमाज़ हो गयी क्योंकि निय्यत नाम है दिल के इरादे का।
निय्यत का अदना दर्जा ये है यानी कम से कम निय्यत तब कहेंगे जब कोई पूछे कि तू कौन से वक़्त की नमाज़ पढ़ता है तो बिला रुके बता दे और अगर सोचने लगे तो फिर ये निय्यत नहीं। ज़ुबान से निय्यत करना मुस्तहब है यानी बेहतर है और खास अ़रबी में करना ज़रूरी नहीं बल्कि फारसी, उर्दू वग़ैरह में भी की जा सकती है और माज़ी (Past) का सीगा इस्तिमाल करें मस्लन निय्यत की मैने या अ़रबी में नवैतू। ज़्यादा एहतियात इस में है कि अल्लाहु अकबर कहते वक़्त निय्यत हाज़िर हो। अगर वुज़ू से पहले निय्यत की या बाद में निय्यत की फिर चल कर नमाज़ पढ़ने गया और नमाज़ पढ़ी तो नमाज़ हो जायेगी।
अल्लाहु अकबर कहने के बाद निय्यत की या सिर्फ अल्लाह कहने के बाद अकबर कहने से पहले निय्यत की तो नमाज़ ना होगी। सहीह ये है कि नफ्ल, सुन्नत और तरावीह वग़ैरह सब के लिये बस मुत्लक़ नमाज़ की निय्यत काफ़ी है लेकिन एहतियात इस में है कि सुन्नत में हुज़ूर की मुताबिअ़त और तरावीह में तरावीह और क़यामुल्लैल की निय्यत करे यानी खास इन को भी शामिल करे क्योंकि बाज़ मशाइख मुत्लक़ निय्यत को काफ़ी नहीं समझते। नफ्ल नमाज़ के लिये मुत्लक़ नमाज़ की निय्यत काफ़ी है अगर्चे नफ्ल निय्यत में ना हो। फर्ज़ नमाज़ में फर्ज़ की निय्यत ज़रूरी है, मुत्लक़न नमाज़ की निय्यत काफ़ी नहीं है।
अगर कोई इमाम के पीछे ये निय्यत करे कि जो नमाज़ इमाम पढ़ता है वही मै भी पढ़ रहा हूँ तो नमाज़ हो जायेगी। अगर सुन्नतों को फर्ज़ की निय्यत से पढ़ लिया मस्लन ज़ुहर की 4 सुन्नतों को फर्ज़ की निय्यत से पढ़ा तो फर्ज़ साक़ित हो गया और अब वो इमामत भी नहीं कर सकता क्योंकि फर्ज़ पढ़ चुका है। फर्ज़ नमाज़ की निय्यत में ये भी ज़रूरी है कि खास जिस वक़्त की पढ़ रहा है उस वक़्त की निय्यत करे और जुम्आ में खास जुम्आ की निय्यत ज़रूरी है। अगर नमाज़ का वक़्त खत्म हो गया और किसी ने फर्ज़ की निय्यत की तो नहीं होगी चाहे उसे वक़्त का इल्म हो या ना हो।
फर्ज़ नमाज़ में सिर्फ ये कहना काफ़ी नहीं कि आज के फर्ज़ पढ़ता हूँ बल्कि वक़्त मुअ़य्यन करना ज़रूरी है कि ज़ुहर की या अस्र की। अगर किसी ने दूसरा दिन गुमान कर के निय्यत की मस्लन पीर का दिन था और उस ने मंगल की नमाज़ की निय्यत कर ली और बाद को मालूम हुआ कि पीर था तो नमाज़ हो जायेगी और अगर आज के दिन का क़स्द ना किया था और मंगल का क़स्द किया तो नमाज़ ना होगी अगर्चे उस दिन मंगल हो क्योंकि मंगल बहुत हैं लिहाज़ा आज की (यानी उसी दिन) की निय्यत ज़रूरी है। निय्यत नें रकअ़त की तादाद का ज़िक्र ज़रूरी नहीं पर बेहतर है।
अगर किसी ने तीन रकअ़त ज़ुहर या चार रकअ़त मगरिब की निय्यत की तो भी नमाज़ हो जायेगी। फर्ज़ नमाज़ क़ज़ा हो गयी हो तो उनको अदा करते वक़्त दिन का तअ़य्युन और वक़्त का तअ़य्युन ज़रूरी है। मुत्लक़न सिर्फ फर्ज़ की निय्यत काफ़ी नहीं या मुत्लक़न सिर्फ ज़ुहर अस्र की निय्यत काफ़ी नहीं। अगर किसी के ज़िम्मे एक ही दिन की नमाज़ क़ज़ा हो तो दिन के तअ़य्युन की ज़रूरत नहीं। मस्लन मेरे ज़िम्मे जो फुलाँ नमाज़ है, काफ़ी है। अगर किसी की बहुत सी नमाज़ें क़ज़ा हों और दिन भी याद नहीं तो उस के लिये आसान तरीक़ा ये है कि निय्यत में ये रखे कि जो नमाज़ मुझ से सबसे पहले क़ज़ा हुयी या सबसे पिछली फुलाँ नमाज़ जो मेरे ज़िम्मे है।
किसी की मंगल की नमाज़ क़ज़ा थी और उसे लगा कि पीर के दिन की नमाज़ थी फिर पीर की निय्यत से पढ़ ली और बाद में मालूम हुआ कि मंगल की नमाज़ थी तो नमाज़ ना हुयी। क़ज़ा या अदा की निय्यत ज़रूरी नहीं है यानी अदा को क़ज़ा की और क़ज़ा को अदा की निय्यत से पढ़ें तो नमाज़ हो जायेगी। किसी ने ज़ुहर के वक़्त गुमान किया कि वक़्त खत्म हो गया है और क़ज़ा की निय्यत से पढ़ी तो नमाज़ अदा हो गयी क्योंकि वक़्त बाक़ी था और यूँ ही वक़्त बाक़ी नहीं था और अदा की निय्यत से पढ़ी तो नमाज़ हो गयी और अगर वक़्त बाक़ी है और नमाज़ क़ज़ा की निय्यत से पढ़ी और उस दिन की निय्यत ना की तो ना हुयी।
मुक़्तदियों को इक़्तिदा की निय्यत करना ज़रूरी है और इमाम के लिये मुक़्तदियों की नमाज़ सही होने के लिये निय्यते इमामत ज़रूरी नहीं यहाँ तक कि अगर इमाम ने क़स्द कर लिया कि मै फुलाँ-फुलाँ का इमाम नहीं हूँ और उन्होने इक़्तिदा में नमाज़ पढ़ी तो हो गयी। अगर इमाम ने इमामत की निय्यत ना की तो जमाअ़त का सवाब ना पायेगा। अगर मुक़्तदी औरत है और वो किसी मर्द के बराबद खड़ी है और वो नमाज़ नमाज़े जनाज़ा नहीं है तो इमाम का निय्यत करना ज़रूरी है और अगर उन औरतों की इमामत की निय्यत ना की तो उन औरतों की नमाज़ ना होगी।
नमाज़े जनाज़ा में औरत चाहे बराबर में हो या ना हो, इमामत के लिये निय्यत ज़रूरी नहीं और जुम्आ व ईदैन में भी हाजत नहीं और बाक़ी नमाज़ों में भी अगर मर्दों के बराबर ना हो तो इमामत की निय्यत के बगैर भी उनकी नमाज़ हो जायेगी। मुक़्तदी ने अगर सिर्फ नमाज़े इमाम या फर्ज़े इमाम की निय्यत की और इक़्तिदा का क़स्द ना किया तो नमाज़ ना हुयी। मुक़्तदी ने इक़्तिदा के क़स्द से निय्यत की कि जो नमाज़ इमाम की वो मेरी तो नमाज़ हो गयी। इक़्तिदा की निय्यत में ये ज़रूरी नहीं कि इमाम कौन है। अगर निय्यत की कि इस इमाम के पीछे पढ़ता हूँ और इल्म में ज़ैद है और नमाज़ के बाद मालूम हुआ कि उमर है तो नमाज़ हो गयी और अगर ये निय्यत करे कि ज़ैद की इक़्तिदा करता हूँ और बाद को मालूम हुआ कि उमर है तो इक़्तिदा सहीह नहीं।
जमाअ़त कसीर हो यानी लोग ज़्यादा हों तो इक़्तिदा में इमाम का तअ़य्युन ना करें और जनाज़ें में भी यूँ निय्यत ना करें कि फुलाँ मैय्यत की नमाज़। नमाज़े जनाज़ा की ये निय्यत है कि नमाज़ अल्लाह के लिये और दुआ इस मैय्यत के लिये। मुक़्तदी को शुब्हा हो कि मैय्यत मर्द है या औरत तो ये निय्यत कर ले इमाम के साथ नमाज़ पढ़ता हूँ जिस पर इमाम नमाज़ पढ़ता है। अगर जनाज़े की नमाज़ में किसी को पता नहीं था कि मैय्यत मर्द है या औरत और मर्द की निय्यत की फिर नमाज़ के बाद मालूम हुआ कि औरत है तो निय्यत सही नहीं हुयी और इसी तरह औरत की निय्यत की फिर मर्द हुआ तो भी नहीं हुयी बशर्ते कि जनाज़ा -ए- हाज़िरा की तरफ़ इशारा ना हो।
अगर ज़ैद की मैय्यत की निय्यत की और बाद में मालूम हुआ कि उमर था तो सहीह नहीं और अगर ये निय्यत की कि इस मैय्यत की पढ़ता हूँ और ख्याल में ज़ैद है और बाद को मालूम हुआ कि उमर है तो हो गयी। यूँ ही अगर ख्याल में औरत है और इस मैय्यत की निय्यत से नमाज़ पढ़ी बाद में मर्द होना मालूम हुआ तो हो गयी। अगर एक से ज़्यादा जनाज़े हों और सब की नमाज़ एक साथ पढ़े तो तादाद की निय्यत करना ज़रूरी नहीं और अगर मुअ़य्यन कर ली कि इतने की पढ़ता हूँ और ज़्यादा हुये तो किसी जनाज़े की ना हुई यानी जब कि निय्यत में इशारा ना हो सिर्फ इतना हो कि 10 मैय्यतों की नमाज़ तो अगर ग्यारह हुये तो किसी की ना हुई और अगर निय्यत में इशारा था कि इन 10 मैय्यतों पर नमाज़ और 20 हों तो सब की हो गयी। अहकाम नमाज़े जनाज़ा के इमाम के हैं और मुक़्तदी के भी।
अगर ये निय्यत की कि जिन पर इमाम पढ़ता है मै भी उन्हीं पर पढ़ रहा हूँ और 10 समझ कर पढ़ी तो अगर ज़्यादा हो सब हो गयी। वाजिब नमाज़ में वाजिब की निय्यत करें और उसे मुअ़य्यन भी करें मस्लन नमाज़े ईदुल, फित्र, ईदुल अज़्हा, नज़्र, बादे तवाफ़ की नमाज़ या नफ्ल जिस को जान बूझ कर फ़ासिद किया गया हो उस की क़ज़ा भी वाजिब हो जाती है। सजदा -ए- तिलावत में निय्यत को मुअ़य्यन करना ज़रूरी है मगर जबकि नमाज़ में फौरन किया जाये। सजदा -ए- शुक्र अगर्चे नफ्ल है मगर इस में भी निय्यत का तअ़य्युन ज़रूरी है कि शुक्र का सजदा करता हूँ और सजदा -ए- सहव में भी।
वित्र की नमाज़ में वित्र की निय्यत काफ़ी है अगर्चे वाजिब की निय्यत हाज़िर नहीं पर अगर वाजिब ना होने की निय्यत से पढ़े तो काफ़ी नहीं। नज़्र की कुछ नमाज़ें हों तो हर नज़्र को मुअ़य्यन करना ज़रूरी है। ये निय्यत कि मुँह मेरा क़िब्ला की तरफ है, शर्त नहीं है हाँ क़िब्ला से ऐराज़ की निय्यत ना हो। अगर नमाज़ फर्ज़ की निय्यत से शुरू की और बीच में गुमान किया कि नफ्ल है और फिर नफ्ल की निय्यत से पूरी की तो फर्ज़ अदा हो गये। और अगर नफ्ल की निय्यत से शुरू की और दरमियान में फर्ज़ का गुमान हुआ और इसी तरह मुकम्मल की तो नफ्ल हुये।
अगर नमाज़ शुरू करने के बाद दूसरी नमाज़ की निय्यत की तो अगर फिर से तकबीर के साथ की है तो पहली नमाज़ गयी और अब दूसरी शुरू हो गयी वरना पहली ही है। ये उस वक़्त है कि निय्यत ज़ुबान से ना करे वरना पहली जाती रहेगी। अगर दिल में नमाज़ तोड़ने की निय्यत की तो भी नमाज़ जारी है, नहीं टूटेगी जब तक कोई ऐसा काम ना करे जिस से नमाज़ टूट जाती है। अल्लाह की रज़ा के लिये नमाज़ शुरू की और बीच में दिखावे का ख्याल आया तो शुरू का ऐतबार किया जायेगा।
दिखावा ये है कि लोगों के साथ होने की वजह से नमाज़ पढ़ ली वरना पढ़ता नहीं (इस सूरत में बहुत गुनाह है) और अगर अकेले में पढ़ता मगर अच्छी तरह नहीं पढ़ता जैसे लोगों के सामने पढ़ी तो अ़स्ल नमाज़ का सवाब मिलेगा पर जो खूबी से पढ़ी उस का सवाब नहीं मिलेगा और रियाकारी का गुनाह अपनी जगह है। नमाज़ पढ़ रहा था और दिखावे का ख्याल आया तो नमाज़ ना तोड़े बल्कि पूरी करे और फिर अस्तग़फार करे। यहाँ नमाज़ की 5 शर्तों का बयान तक़रीबन मुकम्मल हुआ और अब नमाज़ की छटी शर्त के बारे में ज़रूरी मसाइल बयान किये जायेंगे।
नमाज़ की छटी शर्त है तकबीरे तहरीमा यानी अल्लाह का नाम ले कर नमाज़ शुरू करना। अहादीस में है कि नबी -ए- करीम ﷺ अल्लाहु अकबर कह कर नमाज़ शुरू फ़रमाते। नमाज़े जनाज़ा में तकबीरे तहरीमा रुक्न (एक स्टेप, हिस्सा) है बाक़ी नमाज़ों में शर्त है।
नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा ये है कि बा वुज़ू क़िब्ला की तरफ़ मुँह कर के दोनों पाऊँ के पंजों के दरमियान चार उंगलियों का फासला (Gap) रख कर खड़ा हो जाये और दोनों हाथों को सीधा उठा कर कानों तक ले जाये कि दोनों अँगूठे कानों की लौ को छू जायें और उंगलियाँ ना खूब खुली हुयी रखें ना मिली हुयी बल्कि अपनी हालत पर (Normal) छोड़ दें और हथेलियां भी क़िब्ला की तरफ़ हो। फिर अल्लाहु अकबर कहता हुआ हाथ नीचे लायें और नाफ़ के नीचे बांध लें।
हाथ यूँ बांधें कि दाहिनी हथेली की गुद्दी बायें हाथ की कलाई के सिरे पर हो और बीच की तीन उंगलियां बायीं कलाई की पुश्त पर और अँगूठा और छोटी वाली उंगली कलाई के अगल-बगल।
हाथ बांधने के बाद सना पढ़ें: سُبْحَانَکَ اللّٰھُمَّ وَ بِحَمْدِکَ وَ تَبَارَکَ اسْمُکَ وَتَعَالٰی جَدُّکَ وَلَا اِلٰـہَ غَیْرُکَ
फिर ये: اَعُوْذُ بِاللّٰہِ مِنَ الشَّیْطٰنِ الرَّجِیْمِ
फिर ये: بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیْمِ
फिर अल्हम्द (सूरतुल फ़ातिहा) पढ़ें और खत्म पर आहिस्ता से आमीन कहें। इस के बाद कोई सूरत या तीन आयतें पढ़ें या कोई एक बड़ी आयत जो तीन छोटी आयतों के बराबर हो पढ़ें।
फिर अल्लाहु अकबर कहते हुये रुकूअ़ में जायें और हाथों से घुटनों को पकड़ें, इस तरह कि हथेली घुटनों पर हो और उंगलियां खूब फैली हुयी हो।
इस तरह ना करें कि सब उंगलियां एक तरफ हों और इस तरह भी नहीं कि चार उंगलियां एक तरफ और अँगूठा एक तरफ और पीठ बिछी हुयी होनी चाहिये और सर झुका हुआ या पीठ से उठा हुआ ना हो बल्कि बराबर में हो और कम से कम तीन बार ये पढ़ें : سُبْحَانَ رَبِّیَ الْعَظِیْمِ
फिर रुकूअ़ से ये कहते हुये खड़ा हो जाये: سَمِعَ اللّٰہُ لِمَنْ حَمِدَہ
अगर अकेला नमाज़ पढ़ रहा हो तो फ़िर ये भी पढ़े: اَللَّھُمَّ رَبَّنَا وَلَکَ الْحَمْدُ
फिर अल्लाहु अकबर कहता हुये सजदे में जाये और यूँ कि पहले घुटने ज़मीन पर रखे फिर हाथ फिर दोनों हाथों के बीच में सर रखे। सर इस तरह ना रखे कि बस पेशानी छू जाये और नाक की नोक सट जाये बल्कि पेशानी और नाक की हड्डी को ज़मीन पर जमाये।
बाज़ुओं को करवटों और पेट को रानों और रानों को पिंडलियों से जुदा रखे और दोनों पाऊँ की उंगलियों के पेट क़िब्ला रू जमे हों और हथेलियाँ बिछी हों और उंगलियाँ क़िब्ला की तरफ हों और फिर कम से कम तीन बार ये पढ़े : سُبْحَانَ رَبِّیَ الْاَعْلٰی
फिर सर उठाये फिर हाथ और फिर दाहिना क़दम खड़ा कर के बायें को बिछा कर उस पर खूब सीधे हो कर बैठ जाये और हथेलियाँ बिछा कर रानों पर घुटने के पास रखे। दोनों हाथों की उंगलियाँ क़िब्ला की तरफ हों फिर अल्लाहु अकबर कहता हुआ दूसरे सजदे को जाये।
फिर सजदा कर के सर उठाये फिर हाथ को घुटनों पर रख के पंजों के बल खड़ा हो जाये और बिस्मिल्लाह पढ़ कर क़िरअ़त शुरू कर दे फिर इसी तरह दूसरी रकअ़त के सजदे करने के बाद बैठ जाये और फिर ये पढ़े: اَلتَّحِیَّاتُ لِلّٰہِ وَالصَّلَوٰتُ وَالطَّیِّبَاتُ اَلسَّلَامُ عَلَیْکَ اَیُّھَا النَّبِیُّ وَرَحْمَۃُ اللّٰہِ وَ بَرَکَاتُہٗ اَلسَّلَامُ عَلَیْنَا وَعَلٰی عِبَادِ اللّٰہِ الصَّالِحِیْنَ اَشْھَدُ اَنْ لَّا اِلٰہَ اِلَّا اللّٰہُ وَاَشْھَدُ اَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُہٗ وَرُسُوْلُہٗ
अत्तहिय्यात में कोई कमी बेशी ना करें, ना सय्यिदुना का इज़ाफा करे और इसे तशह्हुद कहते हैं। जब कलिमा "ला" पर पहुँचे तो दाहिने हाथ की बीच वाली उंगली और अँगूठे से हल्क़ा (गोल) बनायें और सबसे छोटी वाली उंगली और उस के साथ वाली को हथेली से मिला दें और कलिमा "ला" पर शहादत की उंगली को उठायें पर हरकत ना दें और "इल्लल्ला" पर उंगली गिरा दें और तमाम उंगलियाँ सीधी कर लें। अब अगर दो से ज़्यादा रकअ़तें पढ़नी हो तो उठ खड़ा हो और फिर पहले की तरह पढ़े मगर फर्ज़ नमाज़ है तो अल्हम्द के बाद सूरत मिलाना ज़रूरी नहीं।
अब आखिरी रकअ़त में तशह्हुद के बाद दुरूदे इब्राहीमी पढ़े:Durood E Ibrahim | दुरूदे इब्राहीमी: اَللّٰھُمَّ صَلِّ عَلٰی سَیِّدِنَا مُحَمَّدٍ وَّعَلٰی اٰلِ سَیِّدِنَا مُحَمَّدٍ کَمَا صَلَّیْتَ عَلٰی سَیِّدِنَا اِبْرَاھِیْمَ وَعَلٰی اٰلِ سَیِّدِنَا اِبْرَاھِیْمَ اِنَّکَ حَمِیْدٌ مَّجِیْدٌ اَللّٰھُمَّ بَارِکْ عَلٰی سَیِّدِنَا مُحَمَّدٍ وَّعَلٰی اٰلِ سَیِّدِنَا مُحَمَّدٍ کَمَا بَارَکْتَ عَلٰی سَیِّدِنَا اِبْرَاھِیْمَ وَعَلٰی اٰلِ سَیِّدِنَا اِبْرَاھِیْمَ اِنَّکَ حَمِیْدٌ مَّجِیْدٌ۔
इस के बाद ये दुआ पढ़े: Dua E Masura | दुआ ए मसुरा: اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلِیْ وَلِوَالِدَیَّ وَلِمَنْ تَوَالَدَ وَلِجَمِیْعِ الْمُؤْمِنِیْنَ وَالْمُؤْمِنَاتِ وَالْمُسْلِمِیْنَ وَالْمُسْلِمَاتِ الْاَحْیَاءِ مِنْھُمْ وَالْاَمْوَاتِ اِنَّکَ مُجِیْبُ الدَّعْوَاتِ بِرَحْمَتِکَ یَا اَرْحَمَ الرَّاحِمِیْنَ
दुरूदे इब्राहीमी के बाद ये दुआ भी पढ़ सकते हैं या कोई दुआ -ए- मासूर : اَللّٰھُمَّ اِنِّیْ ظَلَمْتُ نَفْسِیْ ظُلْمًا کَثِیرًا وَّ اِنَّہٗ لَا یَغْفِرُ الذُّنُوْبَ اِلَّا اَنْتَ فَاغْفِرْلِی مَغْفِرَۃً مِّنْ عِنْدِکَ وَارْحَمْنِیْ اِنَّکَ اَنْتَ الْغَفُوْرُ الرَّحِیْمُ ۔
या ये पढ़ें : اَللّٰھُمَّ اِنِّیْ اَسْئَلُکَ مِنَ الْخَیْرِ کُلِّہٖ مَا عَلِمْتُ مِنْہُ وَمَا لَمْ اَعْلَمْ وَاَعُوْذُبِکَ مِنَ الشَّرِ کُلِّہٖ مَا عَلِمْتُ مِنْہُ وَمَا لَمْ اَعْلَمْ۔
या ये पढ़ें : اَللّٰھُمَّ اِنِّی اَعُوْذُبِکَ مِنْ عَذَابِ الْقَبْرِ وَ اَعُوْذُبِکَ مِنْ فِتْنَۃِ الْمَسِیْحِ الدَّجَّالِ وَ اَعُوْذُبِکَ مِنْ فِتْنَۃِ الْمَحْیَا وَ فِتْنَۃِ الْمَمَاتِ اَللّٰھُمَّ اِنِّیْ اَعُوْذُبِکَ مِنَ الْمَاْثَمِ وَمِنَ الْمَغْرَمِ وَ اَعُوْذُبِکَ مِنْ غَلَبَۃِ الدَّیْنِ وَ قَھْرِ الرِّجَال
या ये पढ़ें : اَللّٰھُمَّ رَبَّنَا اٰتِنَا فِی الدُّنْیَا حَسَنَۃً وَّفِی الْاٰخِرَۃِ حَسَنَۃً وَّقِنَا عَذَابَ النَّارِ
और इस को अल्ला हुम्म के बगैर ना पढ़ें फिर दायीं तरफ़ सलाम फेरें और बायीं तरफ़ ये कहते हुये: السلام علیکم و رحمۃ اللہ