नमाज़ की सुन्नतें | Namaz Ki Sunnatain in Hindi

नमाज़ की सुन्नतें | Namaz Ki Sunnatain in Hindi

Namaz Ki Sunnatein Kitne Hai?

(1) तहरीमा के लिये हाथ उठाना।

(2) और हाथों की उंगलियाँ अपने हाल पर छोड़ना यानी ना ज़्यादा मिली हुयी हो और ना ज़्यादा फ़र्क़ हो।

(3) हथेलियों और उंगलियों के पेट का क़िब्ला रू होना।

(4) तकबीर के वक़्त सर ना झुकाना।

(5) तकबीर से पहले हाथ उठाना और यूँ ही।

(6) तकबीरे क़ुनूत के लिये हाथ उठाना।

(7) तकबीराते ईदैन में कानों तक हाथ ले जाने के बाद तकबीर कहे और इन के अलावा किसी नमाज़ में हाथ उठाना सुन्नत नहीं।

आला हज़रत रहीमहुआहु त'आला लिखते हैं कि रफ़यदैन हाथों के उठाने को कहते हैं और अहनाफ़ अहले सुन्नत के नज़दीक रुकूअ़ में जाते वक़्त और रुकूअ़ से उठते वक़्त दोनों जगह हाथ उठाना खिलाफे सुन्नत और मम्नूअ है मगर गैर मुक़ल्लिद वहाबी इन दोनों वक़्तों में रफ़यदैन करते हैं और इस पर खूब ज़ोर देते हैं। इमाम अबू दाऊद ने हज़रते बरा बिन आज़िब रदिअल्लाहु त'आला अ़न्हु से रिवायत किया है कि नबी -ए- करीम ﷺ जब नमाज़ शुरू फ़रमाते थे तो कानों तक अपने हाथों को उठाते थे फिर (नमाज़ से फारिग होने तक) ना उठाते थे।

(सुनन अबू दाऊद, किताबुस्सलात)

तहावी शरीफ़ में हज़रते अ़ली रदिअल्लाहु त'आला अ़न्हु से रिवायत है कि हुज़ूरे अकरम ﷺ नमाज़ मे शुरू में हाथ उठाते थे फिर नमाज़ मुकम्मल करने तक ना उठाते।

(तहावी शरीफ़, किताबुस्सलात)

अगर तकबीर कह ली और हाथ ना उठाया तो अब ना उठाये और अगर अल्लाहु अकबर कहने से पेश्तर याद आया तो अब उठाये और और कानों तक मुम्किन ना हो तो जहाँ तक उठा सकता है उठाये।

(8) औरत के लिये सुन्नत ये है कि मूंढो तक हाथ उठाये (कानों तक नहीं)

कोई शख्स अगर एक ही हाथ उठा सकता है तो एक ही उठाये और अगर ऐसा है कि हाथ उठाने पर कानों से ऊपर उठ जाता है तो भी उठाये।

(9) इमाम का बुलंद आवाज़ से अल्लाहु अकबर कहना सुन्नत है।

(10) रुकूअ़ से उठते वक़्त। سمع اللہ لمن حمدہ हना सुन्नत है।

(11) इमाम का सलाम कहना जिस क़द्र बुलंद आवाज़ की हाजत हो सुन्नत है और ज़्यादा बुलंद आवाज़ करना मकरूह है।

इमाम को तकबीरे तहरीमा और तकबीराते इंतिक़ाल दोनों में जह्र सुन्नत है (तकबीराते इंतिक़ाल यानी रुकूअ़ में जाते वक़्त या सजदे में जाते और सजदे से उठते वक़्त की तकबीर, इंतिक़ाल का माना मौत नहीं होता बल्कि इंतिक़ाल एक हालत से दूसरी हालत में मुन्तक़िल होने पर भी कहा जाता है और यहाँ यही मुराद है)

अगर इमाम की तकबीर की आवाज़ मुक़्तदियों तक नहीं पहुँचती तो बेहतर है कि मुक़्तदियों में से भी कोई तकबीर कहे ताकि सब को नमाज़ शुरू होने और रुकूअ़ व सुजूद में जाने का इल्म हो जाये। अगर ज़रूरत ना हो तो आवाज़ बुलंद करना मकरूह व बिदअ़त है।

तकबीरे तहरीमा से अगर सिर्फ ऐलान मक़्सूद हो तो नमाज़ ही नहीं होगी। यूँ होना चाहिये कि नफ्से तकबीर से मुराद तहरीमा हो और जह्र (यानी बुलंद आवाज़) से मक़्सूद ऐलान हो, यूँ ही आवाज़ पहुँचाने वाले को क़स्द करना चाहिये।

अगर सिर्फ ऐलान का क़स्द कर के तकबीरे तहरीमा कहे तो ना उस की नमाज़ होगी ना उन की जो उस तकबीर पर तहरीमा बांधें। हाँ अगर तकबीराते इंतिक़ाल में ऐलान का क़स्द किया तो नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी पर मकरूह होगी क्योंकि ये तर्के सुन्नत है।

मुकब्बिर को चाहिये कि उस जगह से तकबीर कहे जहाँ से लोगों को हाजत है। पहली या दूसरी सफ़ में इमाम की आवाज़ पहुँचती है तो यहाँ से तकबीर कहने का क्या फाइदा नीज़ ये बहुत ज़रूरी है कि इमाम की आवाज़ के साथ तकबीर कहे। इमाम के कह लेने के बाद कहने से लोगों को धोका लगेगा नीज़ ये कि अगर मुकब्बिर ने तकबीर को लम्बा किया तो उसकी तकबीर खत्म होने का इंतिज़ार ना करे।

मुकब्बिर अगर तकबीर (अल्लाहु अकबर) को लम्बा करे तो उस के खत्म होने का इंतिज़ार ना करें बल्कि क़ादा हो तो तशह्हुद पढ़ना शुरू कर दें। अगर इमाम की तकबीर मुकम्मल होने के बाद तीन बार तस्बीह कहने की मिक़्दार रुका रहा तो ये तर्के वाजिब है।

मुक़्तदी और मुन्फ़रिद (अकेले पढ़ने वाले) को जह्र (बुलंद आवाज़ से क़िरअत) की हाजत नहीं, बस इस तरह पढ़े कि खुद सुन सके।

(12) तकबीर के बाद फौरन हाथ बांध लेना (यूँ कि मर्द नाफ़ के नीचे दाहिने हाथ की हथेली बायीं कलाई के जोड़ पर रखे, छोटी वाली उंगली और अँगूठे से हल्क़ा (घेरा) बनायें यानी अगल-बगल रखें और बाक़ी उंगलियों को बायीं कलाई के पुश्त पर रखें।

औरत बायीं हथेली सीने पर छाती के नीचे रख कर इस की पुश्त पर दायीं हथेली रखे। बाज़ लोग तकबीर कहने के बाद हाथ नीचे लटका लेते हैं फिर बांधते हैं, ऐसा नहीं करना चाहिये बल्कि नीचे लाते ही बांध लेना चाहिये।

बैठ कर या लेट कर नमाज़ पढ़ें तो भी इसी तरह हाथ बाधे

(13) सना और

(14) तअ़व्वुज़ (अऊज़ु बिल्लाह) और

(15) तस्मिया (बिस्मिल्लाह) और

(16) आमीन कहना और

(17) इन सब को आहिस्ता पढ़ना सुन्नत है।

(18) सना को पहले पढ़ना।

(19) फिर तअ़व्वुज़

(20) फिर तस्मिया

(21) और हर एक के बाद दूसरे को फौरन पढ़े वक़्फ़ा ना करे।

(22) हाथ बाँधने के फौरन बाद सना पढ़े।

इमाम ने बुलंद आवाज़ के साथ क़िरअत शुरू कर दी तो मुक़्तदी सना ना पढ़े अगर्चे दूर होने की वजह से या बहरे होने की वजह से इमाम की आवाज़ ना सुनता हो जैसा जुम्आ व ईदैन में पिछले सफ़ के मुक़्तदी।

अगर इमाम आहिस्ता पढ़ता हो तो सना पढ़ ले।

इमाम को रुकूअ़ या पहले सजदे में पाया और गालिब गुमान है (यानी लगता है कि) सना पढ़ कर पा लेगा तो सना पढ़े और क़ादा (अत्तहिय्यात) या दूसरे सजदे में पाया तो बेहतर ये है कि बिना पढ़े शामिल हो जाये।

नमाज़ में अऊज़ु बिल्लाह और बिस्मिल्लाह क़िरअत के ताबे (यानी अंडर में आते हैं) और मुक़्तदी पर क़िरअत नहीं तो तअ़व्वुज़ और तस्मिया भी इनके लिये मस्नून नहीं। जिस मुक़्तदी की कोई रकअ़त छूट गयी तो जब अपनी अकेले पढ़े तो इन दोनों को पढ़े।

तअ़व्वुज़ सिर्फ पहली रकअ़त में है और तस्मिया हर रकअ़त के अव्वल में मस्नून है। फ़ातिहा के बाद अगर अव्वल सूरत शुरू की तो सूरत से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना मुस्तहसन है यानी अच्छा है। क़िरअत चाहे आहिस्ता हो या बुलंद मगर बिस्मिल्लाह आहिस्ता ही पढ़ी जाये।

अगर सना, तअ़व्वुज़ और तस्मिया पढ़ना भूल गया और क़िरअत शुरू कर दी तो अब लौटाना ज़रूरी नहीं क्योंकि उनका महल ही फौत हो गया। अगर सना पढ़ना भूल गया और तअ़व्वुज़ पढ़ा तो अब सना को लौटाना ज़रूरी नहीं। मस्बूक़ (जो जमाअ़त में बाद को शामिल हुआ) वो शुरू में सना ना पढ़ सका तो जब अपनी रकअ़त शुरू करे तो सना पढ़ ले।

(23) ईदैन में तकबीरे तहरीमा के बाद सना पढ़े और हाथ बांध कर पढ़े फिर तअ़व्वुज़ (अऊज़ु बिल्लाह) चौथी तकबीर के बाद कहे।

आमीन को तीन तरह से पढ़ सकते हैं :

  • मद्द यानी अलिफ़ को खींच कर
  • क़स्र यानी अलिफ़ को दराज़ ना करें, और
  • एक ये के मद्द की सूरत में अलिफ़ को या की तरफ माइल करें।

अगर मद्द के साथ मीम को तश्दीद पढ़ी। (آمِّین)

या फिर "या" को गिरा दिया (آمِن)

तो भी नमाज़ हो जायेगी पर खिलाफे सुन्नत।

अगर मद्द के साथ मीम को तश्दीद पढ़ी और या को हज़फ़ कर दिया (آمِّن)

या क़स्र के साथ तश्दीद (اَمِّین)

या फिर या को हज़फ़ कर दिया (اَمِن)

तो इन सूरतों में नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। इमाम की आवाज़ किसी एक मुक़्तदी को पहुँची और बगल वाले को ना पहुँची और पहले ने आमीन कहा तो दूसरे वाले ने सुन ली तो आमीन कहे।अगर किसी मुक़्तदी के आमीन कहने से इमाम की क़िरअत का हाल मालूम हो तो आमीन कहना सुन्नत हो जायेगा। सिर्री नमाज़ यानी जिन में बुलंद आवाज़ से क़िरअत नहीं होती उन में अगर इमाम ने आमीन कहा और क़रीब वाले मुक़्तदी ने सुना तो ये भी आमीन कहे।

(24) रुकूअ़ में तीन बार ये पढ़ना। سبحان ربی العظیم

(25) घुटनों को हाथ से पकड़ना।

(26) उंगलियाँ खूब खुली रखना, ये हुक्म मर्दों के लिये है।

(27) औरतों के लिये सुन्नत घुटनों पर हाथ रखना।

(28) औरतों का उंगलियाँ कुशादा ना करना यानी ना फैलाना। आज कल अक्सर मर्द हज़रात रुकूअ़ में औरतों की तरह हाथ रखते हैं यानी उंगलियाँ खूब नहीं फैलाते ये खिलाफ़े सुन्नत है।

(29) हालते रुकूअ़ में टाँगे सीधी होना। अक्सर लोग कमान की तरह टेड़ी कर लेते हैं ये मकरूह है।

(30) रुकूअ़ के लिये अल्लाहु अकबर पढ़ना।

अगर कोई "ज़ा" ना कह सके तो रब्बियल अ़ज़ीम की जगह रब्बियल करीम पढ़े।سبحان ربی الکریم

बेहतर ये है कि अल्लाहु अकबर कहता हुआ रुकूअ़ में जाये यानी जब रुकूअ़ में जाने लगे तो अल्लाहु अकबर कहे और खत्मे रुकूअ़ पर इसे मुकम्मल करे।

अगर ऐसा करना है कि रुकूअ़ में जाते हुये अल्लाहु अकबर कहें और पूरा रुकूअ़ करने पर तकबीर मुकम्मल हो तो इस के लिये अल्लाहु अकबर को लम्बा करना होगा और अल्लाह के लाम को बढ़ाया जाये, अकबर के "बा" या किसी हर्फ़ को लम्बा ना करें।

(31) हर तकबीर में अल्लाहु अकबर की "रा" को जज़म पढ़े।

सूरतुल फ़ातिहा के बाद जो सूरत पढ़ रहे हैं अगर वो ऐसी है कि अल्लाह त'आला की सना पर खत्म होती है तो फिर बेहतर है कि रुकूअ़ के लिये कही जाने वाली तकबीर को क़िरअत के साथ मिला दें मस्लन ربک فحدثِ اللہ اکبر इस में फहद्दिस के "सा" को कसरा (ज़ेर) के साथ पढ़ें और अल्लाहु अकबर से मिला दें।

अगर सूरत के आखिर में कोई ऐसा कलिमा है जिस को इस्मे जलालत (अल्लाह) के साथ मिलाना दुरुस्त नहीं है तो वहाँ ना मिलाया जाये मस्लन :ان شانئک ھو الابتر

इस में "अब्तर" के साथ "अल्लाह" को मिलाना मुनासिब नहीं लिहाज़ा यहाँ पहले क़िरअत को खत्म करें फिर रुक कर तकबीर कहें।

अगर सूरत के आखिर में इन दोनों जैसा कुछ ना हो तो फिर मिलाना या अलग करना एक जैसा है।यानी जैसे चाहें पढ़ सकते हैं।

किसी आने वाले की वजह से क़िरअत या रुकूअ़ को लम्बा करना मकरूहे तहरीमी है। ऐसा उस वक़्त है कि उसे पहचानता हो और उसकी खातिर लम्बा कर रहा है और अगर नहीं जानता तो तवील करना बेहतर है कि नेकी पर मदद है (यानी पहली रकअ़त पा ले) और इस में भी इतना लम्बा ना करें कि मुक़्तदी घबरा जायें।

मुक़्तदी ने अभी तीन बार तस्बीह नही कही थी कि इमाम ने अपना सर रुकूअ़ या सजदे से उठा लिया तो मुक़्तदी पर वाजिब है कि इमाम की इत्तिबा करे यानी उठा ले।

अगर मुक़्तदी ने इमाम से पहले सर उठा लिया तो वाजिब है कि लौट जाये वरना गुनाहगार होगा। रुकूअ़ में पीठ खूब बिछा कर रखे, यहाँ तक कि पानी का प्याला अगर रख दिया जाये तो ठहर जाये। रुकूअ़ में सर ना झुकाये ना उठा कर रखे बल्कि पीठ के बराबर हो। हदीस में है कि उस शख्स की नमाज़ कामिल नहीं जो रुकूअ़ व सुजूद में पीठ सीधी नहीं करता। (ये हदीस अबू दाऊद, निसाई, इब्ने माजा और दारमी में मौजूद है)

और बुखारी की हदीस में रुकूअ़ व सुजूद पूरा ना करने वालों को फ़रमाया कि रुकूअ़ व सुजूद पूरा करो! खुदा की क़सम मै तुम्हें पीछे भी देखता हूँ (ये आप का मोजिज़ा है कि आप पीछे से भी बा-खबर हैं बल्कि हम कहते हैं कि आप के लिये कुछ पीछे नहीं, सब सामने है)

और बुखारी की हदीस में रुकूअ़ व सुजूद पूरा ना करने वालों को फ़रमाया कि रुकूअ़ व सुजूद पूरा करो! खुदा की क़सम मै तुम्हें पीछे भी देखता हूँ (ये आप का मोजिज़ा है कि आप पीछे से भी बा-खबर हैं बल्कि हम कहते हैं कि आप के लिये कुछ पीछे नहीं, सब सामने है)

(32) मर्द का पीठ को सीधा बिछा देना।

(33) औरत रुकूअ़ में थोड़ा झुके यानी सिर्फ इतना कि हाथ घुटनों तक पहुँच जाये, पीठ को सीधा ना करे और घुटनों पर ज़ोर ना दे बल्कि सिर्फ हाथ रखे और उंगलियाँ मिली हुई हो और पैरो को मर्दों की तरह सीधा ना रखे बल्कि हल्के झुके हुये हो।

(34) रुकूअ़ से जब उठे तो हाथ ना बांधे बल्कि लटका हुआ छोड़ दे।

तीन बार तस्बीह कम से कम कहनी होगी, इस से कम में सुन्नत अदा ना होगी और इस से ज़्यादा कहना अफज़ल है पर ताक़ अ़दद (Odd Numbers) हो यानी 3,5,7 या 9 और अगर इमाम है तो ज़्यादा ना पढ़े ताकि मुक़्तदी ना घबरायें।

हज़रते अ़ब्दुल्लाह बिन मुबारक से हिल्या में है कि इमाम के लिये पाँच बार तस्बीह कहना मुस्तहब है।

(35) रुकूअ़ से उठने में जब हमिदह पढ़े तो "हा" को साकिन पढ़े, उस पर हरकात ज़ाहिर ना करे और दाल को लम्बा भी ना करे।

(36) रुकूअ़ से उठने में इमाम के लिये ये कहना सुन्नत है। سمع اللہ لمن حمدہ

(37) मुक़्तदी के लिये ये कहना اللھم ربنا و لک الحمد

(38) मुन्फ़रिद के लिये दोनों कहना।

سمع اللہ لمن حمدہ اللھم ربنا و لک الحمد

रब्बना लकल हम्द से भी सुन्नत अदा हो जाती है पर बीच में "वाव" का होना बेहतर है और "अल्ला हुम्मा" होना इस से बेहतर है और सब में बेहतर है कि दोनों हो। मुन्फ़रिद समिअ़ल्लाहु लिमन हमिदह कहता हुआ सीधा खड़ा हो और जब पूरा सीधा हो जाये तो अल्लाहुम्मा रब्बना व लकल हम्द कहे।

(39) सजदे के लिये अल्लाहु अकबर कहना।

(40) सजदे से उठने के लिये अल्लाहु अकबर कहना।

(41) सजदे में कम अज़ कम तीन बार तस्बीह कहना।

(42) सजदे में हाथ का ज़मीन पर रखना।

(43) सजदे में जाते हुये ज़मीन पर पहले घुटने रखे।

(44) फिर हाथ

(45) फिर नाक

(46) फिर पेशानी और जब सजदे से उठे तो इस का उल्टा करे।

(47) जब सजदे से उठे तो पहले पेशानी ज़मीन से उठाये।

(48) फिर नाक

(49) फिर हाथ

(50) फिर घुटने

(51) मर्द के लिये सजदे में सुन्नत ये है कि बाज़ू करवटों से जुदा हो।

(52) और पेट रानों से जुदा हो।

(53) और कलाईयाँ ज़मीन पर ना बिछायें वैसे तो बाज़ू को करवटों से जुदा रखना चाहिये मगर सफ़ में ऐसा ना करें क्योंकि ऐसा नहीं होगा और करेंगे तो अगल बगल वालों को तकलीफ़ होगी।

(54) हदीस में है कि सजदे में एतिदाल इख्तियार करो और कुत्तों की तरह कलाईयाँ ना बिछाओ।

(55) औरत सिमट कर सजदा करे यानी बाज़ू को करवट के साथ सटा दे।

(56) और पेट को रान से

(57) और रान को पिंडलियों से

(58) और पिंडलियों को ज़मीन से

(59) दोनों घुटने एक साथ ज़मीन पर रखे और अगर किसी उज़्र से दोनो एक साथ ना रख सकता हो तो पहले दाया घुटना रखे और फिर बाया।

अगर कपड़ा बिछा कर सजदा करे तो हर्ज नहीं पर जो कपड़ा पहन रखा है अगर उस के कोने को बिछा कर उस पर सजदा किया या हाथों पर सजदा किया तो अगर उज़्र नहीं है तो मकरूह है और अगर उज़्र है तो नहीं मस्लन वहाँ कंकरियाँ हों, ज़मीन बहुत गर्म या बहुत सर्द हो या फिर धूल से इमामे को बचाने के लिये किया तो मकरूह नहीं और अगर चहेरे को खाक से बचाने के लिये किया तो मकरूह है। सजदे में एक पाऊँ उठा हुआ रखना मकरूह व मम्नूअ़ है।

(60) दोनों सजदों के दरमियान तशह्हुद की तरह बाया क़दम बिछा कर और दाया खड़ा कर के बैठना।

(61) और हाथों का रानों पर रखना।

(62) सजदो में उंगलियाँ क़िब्ला रू होना।

(63) हाथों की उंगलियाँ मिली हुई होना।

(64) सजदे में दोनों पैर की दसों उंगलियों के पेट का ज़मीन पर लगना सुन्नत है और दोनों पाऊँ की तीन-तीन उंगलियों के पेट का लगना वाजिब है और दसों का क़िब्ला रू होना सुन्नत है।

(65) जब दोनों सजदे कर ले तो अगली रकअ़त के लिये पंजे के बल पर खड़ा होना।

(66) और घुटनों पर हाथ रख कर खड़ा होना। अगर कमज़ोरी वग़ैरह के सबब ज़मीन पर हाथ रख कर खड़ा हुआ तो हर्ज नहीं।

दूसरी रकअ़त में सना व तअ़व्वुज़ ना पढ़े।

(67) दोनों सजदों से फारिग होने के बाद बाया पाऊँ बिछा कर और

(68) दोनों सुरीन उस पर रख कर बैठना।

(69) और दाहिना क़दम खड़ा रखना।

(70) और दाहिने पाऊँ की उंगलियाँ क़िब्ला रुख करना ये मर्द के लिये।

(71) और औरत दोनों पाऊँ दाहिनी जानिब निकाल दे।

(72) और बायीं सुरीन पर बैठे।

(73) और दाहिना हाथ दाहिनी रान पर रखना।

(74) और बाया बायें पर।

(75) और उंगलियों को अपनी हालत पर छोड़ देना यानी ना ज़्यादा फैली हुई हो और ना ज़्यादा मिली हुई।

(76) और उंगलियों के किनारे घुटनों के पास होना पर घुटने को पकड़ना नहीं चाहिये।

(77) शहादत पर उंगली से इशारा करना, इस तरह कि छोटी वाली और उस के साथ वाली उंगली को बंद कर लें और अँगूठे और बीच वाली से हल्क़ा (घेरा) बनायें और "ला" पर कलिमे की उंगली उठायें और "इल्ला" पर गिरा दें और उंगलिययाँ सीधी कर लें। अबू दाऊद की हदीस में है कि हुज़ूर ﷺ उंगली से इशारा करते और उंगली को हरकत ना देते।

(78) क़ादा -ए- ऊला के बाद तीसरी रकअ़त के लिये जब खड़ा हो तो हाथ ज़मीन पर ना रखें बल्कि घुटनों पर ज़ोर दें और हाँ अगर उज़्र है तो हर्ज नहीं।

फर्ज़ नमाज़ की तीसरी और चौथी रकअ़त में सूरतुल फ़ातिहा पढ़ना अफज़ल है और सुब्हान अल्लाह कहना भी जाइज़ है।

तीन बार सुब्हान अल्लाह कहने की मिक़्दार खामोश खड़ा रहा तो भी नमाज़ हो जायेगी पर खामोश नहीं रहना चाहिये बल्कि तीन बार तस्बीह पढ़नी चाहिये।

आला हज़रत रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि फ़र्ज़ नमाज़ की तीसरी और चौथी रकअ़त में अल्हम्द की जगह तीन बार सुब्हान अल्लाह कह कर रुकूअ़ में चले जायें पर ख्याल रहे कि पूरा सीधा खड़ा होने के बाद तस्बीह शुरू करें और मुकम्मल होने के बाद सर रुकूअ़ के लिये झुकायें। (फ़तावा रज़विय्या)

(79) तशह्हुद के बाद दुरूद पढ़ना और अफज़ल दुरूदे इब्राहीमी है। दुरूद में नबी -ए- करीम ﷺ और हुज़ूर हज़रते इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम के नाम के साथ "सय्यिदिना" कहना बेहतर है। (दुरूद में ये "अ़ला" के साथ "सय्यिदिना" पढ़ा जायेगा यानी दाल के ज़ेर के साथ)

(80) नवाफ़िल के क़ादा -ए- ऊला में दुरूद पढ़ना मस्नून है।

(81) दुरूद के बाद दुआ पढ़े।

(82) दुआ अ़रबी ज़ुबान में पढ़े, गैर अ़रबी में मकरूह है।

(83) मुक़्तदी के तमाम इन्तिक़ालात (यानी एक रुक्न से दूसरे रुक्न में जाना) इमाम के साथ हो।

(84, 85) ये दो बार कहना السلام علیکم و رحمتہ اللہ

(86) पहले दाहिनी तरफ सलाम

(87) फिर बायी तरफ सलाम

(88) सुन्नत ये है कि इमाम दोनों सलाम बुलंद आवाज़ से कहे।

(89) मगर दूसरा सलाम पहले की निस्बत कम आवाज़ में हो।

अगर पहले बायीं तरफ सलाम फेर लिया हो तो जब तक कलाम (बात ना की हो) दायीं तरफ फेर ले और फिर बायीं तरफ, सलाम के इआदा (दोहराने) की हाजत नहीं।

अगर पहले सलाम में किसी तरफ मुँह ना किया तो दूसरे में बायीं तरफ मुँह करे और अगर बायीं तरफ सलाम फेरना भूल गया हो तो जब क़िब्ला की तरफ पीठ ना हुई हो या कलाम ना किया हो तो कह ले।

इमाम ने सलाम फेरा तो मुक़्तदी भी सलाम फेरे अगर कोई रकअ़त छूटी ना हो और अगर अत्तहिय्यात पूरी नहीं हुई थी कि इमाम ने सलाम फेर दिया तो इमाम के साथ ना फेरे बल्कि पूरा पढ़ना वाजिब है, पूरा पढ़ कर सलाम फेरे।

इमाम के सलाम फेरने से मुक़्तदी नमाज़ से बाहर नहीं होगा जब तक कि खुद सलाम ना फेर ले लिहाज़ा अगर किसी ने इमाम के सलाम फेरने के बाद क़हक़हा लगाया तो वुज़ू टूट जायेगा (क्योंकि ये नमाज़ में था) मुक़्तदी को इमाम से पहले सलाम फेरना जाइज़ नहीं मगर ज़रूरत के तहत फेर सकता है जैसे खौफ़े हदस यानी वुज़ू टूट जाने का खौफ़ या वक़्त खत्म हो रहा हो।

इमाम ने एक तरफ सलाम फेरा और सिर्फ अस्सलाम कहा तो नमाज़ से बाहर हो गया लिहाज़ा अगर कोई उस वक़्त जमाअ़त में शामिल हो तो उसकी इक़्तिदा सहीह नहीं है, हाँ अगर सलाम के बाद सजदा किया (सजदा -ए- सहव) तो इक़्तिदा सहीह हो जायेगी।

इमाम सलाम फेरते वक़्त जब दायीं तरफ फेरे तो उन मुक़्तदियों को सलाम की निय्यत करे जो दायीं जानिब हैं और बायीं तरफ के वक़्त बायीं जानिब वालों की पर औरतों की निय्यत ना करे और सलाम में किरामन कातिबीन और उन फिरिश्तों की भी निय्यत करे जिन को अल्लाह त'आला ने हिफाज़त पर मामूर किया है और इस में कोई तादाद मुअ़य्यन ना करे।

मुक़्तदी भी दायीं तरफ सलाम में दायीं जानिब वालों और फिरिश्तों को सलाम की निय्यत करे और बायीं तरफ फेरते वक़्त बायीं जानिब के लोगों की नीज़ जिस तरफ इमाम हो उस तरफ सलाम फेरते वक़्त इमाम को सलाम की भी निय्यत करें और अगर इमाम के ठीक पीछे हो तो दोनों सलाम में इमाम की निय्यत करे और जो अकेला नमाज़ पढ़े तो सिर्फ फिरिश्तों की निय्यत करे।

(90) इमाम के लिये सुन्नत है कि सलाम फेरने के बाद दाहिने या बायें इन्हिराफ़ करे (यानी मुड़ कर बैठे) और दाहिनी जानिब अफज़ल है और मुक़्तदियों की तरफ चेहरा कर के भी बैठ सकता है जब कि ठीक पीछे (जो मुड़ने के बाद सामने हो जायेगा) कोई नमाज़ ना पढ़ रहा हो और अगर सफों के बाद हो तो भी नहीं करना चाहिये।

अकेला नमाज़ पढ़ने वाला बिना इन्हिराफ़ किये वहीं दुआ मांगे तो जाइज़ है। ज़ुहर, मगरिब और इशा में फराइज़ के बाद मुख्तसर दुआ करें और फिर सुन्नत अदा करें, ज़्यादा लम्बी दुआ में मश्गूल नहीं होना चाहिये।

फ़ज्र और अ़स्र के बाद जिस क़द्र तवील दुआ या अज़्कार वग़ैरह पढ़ना चाहें पढ़ सकते हैं पर अगर इमाम के साथ मुक़्तदी दुआ में मश्गूल हो तो इतनी लम्बी दुआ ना करे कि लोग घबरा जायें।

जहाँ फ़र्ज़ पढ़े हों, सुन्नतें वहीं पर ना पढ़े बल्कि आगे पीछे या दायें बायें पढ़े या घर पर आकर पढ़े।

जिन फराइज़ के बाद सुन्नतें हैं उन में फ़र्ज़ के बाद बात चीत नहीं करनी चाहिये अगर बात चीत की तो भी सुन्नतें हो जायेंगी पर सवाब कम हो जायेगा। सुन्नतों में ताखीर करना मकरूह है और इसीलिये अज़्कार और वज़ाइफ ज़्यादा पढ़ने की इजाज़त नहीं है। अफज़ल ये है कि नमाज़े फ़ज्र के बाद सूरज के बुलंद होने तक वहीं बैठे रहे।

ये बातें नमाज़ में मुस्तहब हैं यानी करना बेहतर है लेकिन अगर ना करें तो गुनाह नहीं और नमाज़ भी हो जायेगी।

(1) क़ियाम में सजदे की जगह पर नज़र रखना।

(2) और रुकूअ़ में क़दमों की पुश्त पर

(3) और सजदे में नाक की तरफ

(4) और क़ादा में गोद की तरफ

(5) और पहले सलाम में दाहिने काँधे पर

(6) और दूसरे में बायीं तरफ

(7) जमाही आये (यानी मुँह फटने लगे) तो उसे रोकना। अगर ना रुके तो होंट को दाँतों के नीचे दबाया जाये और फिर भी ना हो तो क़ियाम की हालत में दायें हाथ की पुश्त से मुँह को ढक ले और क़ियाम के इलावा बायें हाथ की पुश्त से। जमाही रोकने का मुजर्रब (आज़माया हुआ) तरीक़ा ये है कि ख्याल करे कि अम्बिया अ़लैहिमुस्सलाम को जमाही नहीं आती थी।

(8) मर्द के लिये तक्बीरे तहरीमा के वक़्त हाथ कपड़े से बाहर निकालना।

(9) औरत का तकबीरे तहरीमा के वक़्त हाथों को कपड़े के अंदर रखना।

(10) जहाँ तक मुम्किन हो खाँसी को दफा करना।

(11) जब मुकब्बिर हय्य-अ़लल-फ़लाह कहे तो इमाम व मुक़्तदी सब का खड़ा हो जाना।

(12) जब मुकब्बिर क़द क़ामतिस्सलाह कहे तो इमाम नमाज़ शुरू कर सकता है पर बेहतर है कि इक़ामत पूरी हो जाने के बाद शुरू करे।

(13) दोनो पंजों के दरमियान क़ियाम में चार उंगलियों का फासला होना।

(14) मुक़्तदी को इमाम के साथ शुरू करना।

(15) सजदा ज़मीन पर बिला हाइल होना यानी कोई चीज़ बीच में ना हो मस्लन कपड़ा वग़ैरह।