क़िरअत के बारे में | Namaz Me Qirat Ka Tarika

क़िरअत के बारे में | Namaz Me Qirat Ka Tarika

Hindi Me Namaz Me Qirat Ka Tarika

कम से कम इतनी आवाज़ से क़िरअत करना ज़रूरी है कि अगर कम ना सुनता हो और शोरो गुल ना हो तो कम से कम खुद को सूनाई दे वरना नमाज़ नहीं होगी और इसी तरह जानवर ज़िबह करते वक़्त और तलाक़ देते वक़्त भी इतनी आवाज़ ज़रूरी है।

जह्र यानी बुलंद आवाज़ से पढ़ने का कम से कम ये दर्जा है कि सफ़े अव्वल के लोगों को सुनाई दे और ज़्यादा से ज़्यादा की कोई हद नहीं है।

आहिस्ता का माना कम से कम खुद सुन सके।

इस तरह पढ़ना कि फक़त आस-पास के एक दो लोग सुन सकें ये बुलंद नहीं बल्कि आहिस्ता है। हाजत से ज़्यादा आवाज़ बुलंद करना कि अपने लिये या दूसरों के लिये बाइसे तकलीफ़ हो, ये मकरूह है। एक बड़ी आयत जैसे आयतल कुर्सी का कुछ हिस्सा एक रकअ़त में पढ़ा और बाक़ी दूसरे में तो जाइज़ है पर हर रकअ़त में तीन बार छोटी आयतों जितना पढ़ना ज़रूरी है। नफ्ल नमाज़ें अगर दिन में पढ़ें तो आहिस्ता पढ़ना वाजिब है और रात में इख्तियार है जबकि अकेला पढ़े और जमाअ़त से नफ्ल में जह्र वाजिब है।

जह्री नमाज़ यानी जिन में बुलंद आवाज़ से क़िरअत की जाती है, उन में मुन्फ़रिद (तन्हा) पढ़ने वाले को इख्तियार है यानी जैसा चाहे पढ़ सकता है और अफज़ल जह्र है जब कि अदा पढ़ता हो और अगर क़ज़ा पढ़ता हो तो आहिस्ता पढ़ना वाजिब है।

जह्री नमाज़ की क़ज़ा अगर्चे दिन में हो तो इमाम पर जह्र वाजिब है और सिर्री नमाज़ में आहिस्ता पढ़ना वाजिब अगर्चे रात में हो।

चार रकअ़त फ़र्ज़ नमाज़ की पहली दो रकअ़तों में सूरत पढ़ना भूल गया तो पिछली दो रकअ़तों में पढ़े और अगर एक रकअ़त में भूला तो तीसरी या चौथी में पढ़े और अगर मगरिब की पहली दोनों रकअ़तों में भूल गया तो तीसरी में पढ़े और एक रकअ़त की क़िरअत जाती रही और इन सब सूरतों में फ़ातिहा के साथ सूरत को पढ़े और इन सब में सजदा -ए- सहव करे और अगर जान कर छोड़ा तो नमाज़ को दोहराना होगा।

सूरत मिलाना भूल गया और रुकूअ़ कर लिया तो याद आने पर खड़ा हो जाये और सूरत पढ़ कर फिर रुकूअ़ करे और आखिर में सजदा -ए- सहव कर ले और अगर फिर रुकूअ़ नहीं किया तो नमाज़ नहीं होगी

फ़र्ज़ की पहली दो रकअ़तों में फ़ातिहा भूल गया तो बाद की दो रकअ़तों में क़ज़ा नहीं और अगर रुकूअ़ से पहले याद आया तो सूरतुल फ़ातिहा पढ़े और फिर एक सूरत पढ़े और यूँ ही रुकूअ़ में याद आया तो लौट जाये फिर फ़ातिहा और सूरत पढ़ कर फिर से रुकूअ़ करे और अगर दोबारा रुकूअ़ ना करेगा तो नमाज़ ना होगी।

एक आयत का हिफ्ज़ करना हर मुसलमान मुकल्लफ़ पर फ़र्ज़े ऐन है और पूरे क़ुरआन का हिफ्ज़ करना फ़र्ज़े किफ़ाया है और सूरतुल फ़ातिहा और तीन छोटी आयत या उनकी मिस्ल बड़ी आयत का हिफ्ज़ करना वाजिबे ऐन है। ज़रूरत भर फिक़्ही मसाइल जानना फ़र्ज़े ऐन है और ज़रूरत से ज़्यादा जानना पूरे क़ुरआन को हिफ्ज़ करने से बेहतर है।

अगर वक़्त कम हो, चोर या दुश्मन का खौफ़ हो तो मुख्तसर क़िरअत कर सकता है बल्कि वक़्त तंग हो तो यही करना चाहिये हत्ता कि अगर वाजिबात की रियायत ना हो सके तो इसकी भी इजाज़त है मस्लन फ़ज्र के वक़्त इतनी देर हो गयी कि अब बस एक-एक आयत सकता है तो यही करे और आफताब के बुलंद होने के बाद इसका इआदा करे।

सुन्नते फ़ज्र में जमाअ़त जाने का खौफ़ हो तो सिर्फ़ वाजिबात पर इक्तिफ़ा करे, सना और तअ़व्वुज़ वग़ैरह को छोड़ दे और रुकूअ़ व सुजूद में एक बार तस्बीह पढ़े। अगर अ़स्र की नमाज़ मकरूह वक़्त में पढ़े यानी मगरिब से 20 मिनिट पहले तो भी क़िरअत सुन्नते के मुताबिक़ करे जब कि वक़्त में तंगी ना हो। इमाम को क़िरअत लम्बी नहीं करनी चाहिये कि मुक़्तदियों पर गिराँ हो।

फ़र्ज़ नमाज़ में ठहर-ठहर कर क़िरअत करें और तरावीह में दरमियाना अंदाज़ में और रात के नवाफ़िल में जल्द पढ़ने की इजाज़त है मगर ऐसा पढ़े कि समझ में आ सके यानी "मद" का जो दर्जा क़ारियों ने रखा है उतना पढ़े और अगर ऐसा ना किया तो हराम है क्योंकि क़ुरआन तरतील से पढ़ने का हुक्म है।

आज कल के हुफ्फाज़ इस तरह पढ़ते हैं कि मद का लिहाज़ तो दूर की बात यालमून तालमून के इलावा कुछ पता ही नहीं चलता और हुरूफ़ को भी सही से अदा नहीं करते! तेज़ी में लफ्ज़ ही खा जाते हैं और फिर इस पर तारीफ़ होती है कि देखो कितनी तेज़ पढ़ता है हालाँकि इस तरह पढ़ना सख्त हराम है।

फ़ज्र की पहली रकअ़त को दूसरी से दराज़ करना मस्नून है और इसकी मिक़्दार ये रखी गयी है कि पहली में दो तिहाई और दूसरी में एक तिहाई। बेहतर ये है कि और नमाज़ों में भी पहली रकअ़त में दूसरी से ज़्यादा क़िरअत की जाये और जुम्आ व ईदैन भी इस में शामिल हैं। सुनन व नवाफ़िल में दोनों रकअ़तों में बराबर की सूरतें पढ़ें। दूसरी रकअ़त में पहली से ज़्यादा क़िरअत करना मकरूह है जब कि फर्क़ वाज़ेह हो।

इसकी मिक़्दार ये है कि अगर दोनों सूरतों में आयतें बराबर हो तो तीन आयतों की ज़्यादती मकरूह है और अगर आयत छोटी बड़ी हो तो फिर हुरूफ़ और कलिमात का ऐतबार है। अगर हुरूफ़ व कलिमात में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ है तो मकरूह है अगर्चे आयतें तादाद में बराबर हो। सूरत का मुअ़य्यन कर लेना कि हर नमाज़ में किसी रकअ़त में उसी को पढ़े तो ये मकरूह है।

हाँ अहादीस में जिन सूरतों का ज़िक्र है उन्हें कभी कभार पढ़ना मुस्तहब है। और उसी को हमेशा ना पढ़े कि कोई वाजिब गुमान ना कर ले।

दोनों रकअ़तों में एक ही सूरत को पढ़ना मकरूहे तंज़ीही है यानी अच्छा नहीं और अगर मजबूरी हो तो मकरूह नहीं है मस्लन एक ही सूरत याद है तो पढ़ सकता है या पहली में सूरतुन्नास पढ़ ली तो दूसरी में भी यही पढ़े और फिर ये भी कि अगर दूसरी में वही सूरत शुरू कर दी जो पहली में पढ़ी थी तो अब उसी को पढ़े।

नफ्ल नमाज़ की दोनों रकअ़तों में एक ही सूरत को पढ़ना यानी तकरार करना जाइज़ है और एक ही रकअ़त में एक सूरत को बार-बार पढ़ना भी जाइज़ है। अगर किसी ने एक रकअ़त में पूरा क़ुरआन मुकम्मल पढ़ लिया तो अगली रकअ़त में फ़ातिहा के बाद अलिफ़ लाम मीम से शुरू करे।

फ़र्ज़ नमाज़ की पहली रकअ़त में किसी सूरत की कुछ आयतें पढ़ी और फिर दूसरी रकअ़त में उसी सूरत की कुछ आयतें पढ़ी मगर बीच में दो या ज़्यादा आयतों को छोड़ दिया तो हर्ज नहीं पर बिला ज़रूरत ऐसा नहीं करना चाहिये।

अगर एक ही रकअ़त में किसी सूरत की चंद आयतें पढ़ी और फिर कुछ आयतें छोड़ कर आगे से पढ़ी तो ये मकरूह है और अगर भूल कर ऐसा किया तो लौट जाये यानी जिन आयतों को छोड़ा है उन्हें पढ़े। फ़र्ज़ नमाज़ की एक रकअ़त में दो सूरतें ना पढ़ें और अगर मुन्फ़रिद ने पढ़ ली तो हर्ज नहीं पर दोनों सूरतों के बीच में फ़ासिला ना हो और अगर बीच में एक या चंद सूरतें छोड़ दी तो मकरूह है।

पहली रकअ़त में कोई सूरत पढ़ी और दूसरी रकअ़त में उसके बाद वाली छोटी सूरत को छोड़ कर पढ़े तो मकरूह है और अगर वो बीच वाली सूरत लम्बी है कि पहले से ज़्यादा तवील हो जायेगी तो हर्ज नहीं।

क़ुरआने मजीद उल्टा पढ़ना मकरूहे तहरीमी है यानी दूसरी रकअ़त में पहली वाली सूरत के ऊपर से पढ़ना मस्लन पहली में सूरतुल काफिरून और दूसरी में अलम तरा कइफ़ा, इस के लिये सख्त वईद आयी हैं और अगर भूल कर पढ़े तो गुनाह नहीं और सजदा -ए- सह्व भी नहीं।

बच्चों की आसानी के लिये क़ुरआने मजीद के आखिरी पारे से सूरतों को बे-तरतीब पढ़ना जाइज़ है। अगर दूसरी रकअ़त में पहली से ऊपर वाली सूरत शुरू कर दी तो अब उसी को पढ़े। एक बड़ी आयत पढ़ने से अफ्ज़ल तीन छोटी आयत पढ़ना है। रुकूअ़ के लिये तकबीर कही और हाथ घुटनों तक नहीं पहुँचा तो अगर ज़्यादा क़िरअत करना चाहे तो कर सकता है।

Namaz Kin Cheezon Se Toot Jati Hai?

अब हम उन चीज़ों के बारे में जानेंगे जिन से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है यानी आसान लफ्ज़ों में ये समझें कि ऐसे काम जिनको करने से नमाज़ टूट जाती है या बंदा नमाज़ से बाहर हो जाता है।

मुक़्तदी और मुन्फ़रिद (अकेले पढ़ने वाले) को जह्र (बुलंद आवाज़ से क़िरअत) की हाजत नहीं, बस इस तरह पढ़े कि खुद सुन सके।

  • कलाम यानी बात करना नमाज़ को फ़ासिद कर देता है अब चाहे
  • जान बूझ कर हो
  • खता से हो
  • भूल कर हो
  • सोते में हो
  • जागते में हो
  • अपनी खुशी से हो
  • या किसी ने मजबूर किया हो
  • या फिर मालूम ना था कि कलाम करने से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है।

खता का ये मतलब है कि क़िरअत करना चाहता था पर ज़ुबान से कोई बात निकल गयी और भूल कर बात करने का ये मतलब है कि उसे याद नहीं था कि मै नमाज़ में हूँ।

(12) तकबीर के बाद फौरन हाथ बांध लेना (यूँ कि मर्द नाफ़ के नीचे दाहिने हाथ की हथेली बायीं कलाई के जोड़ पर रखे, छोटी वाली उंगली और अँगूठे से हल्क़ा (घेरा) बनायें यानी अगल-बगल रखें और बाक़ी उंगलियों को बायीं कलाई के पुश्त पर रखें।

नमाज़ में इस्लाह के लिये भी कलाम किया तो नमाज़ टूट जायेगी मस्लन इमाम को बैठना था और वो खड़ा हो रहा था तो मुक़्तदी ने कहा कि "बैठ जा" तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

जान बूझ कर बात करने से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है पर अगर किसी ने तशह्हुद पढ़ कर या तशह्हुद जितनी देर बैठने के बाद कलाम किया तो नमाज़ हो जायेगी पर मकरूहे तहरीमी। कलाम करने का मतलब कम से कम इतनी आवाज़ हो कि खुद सुन सके यानी अगर कोई चीज़ वहाँ रुकावट ना हो तो सुन सकता था तो नमाज़ फ़ासिद होगी वरना नहीं।

नमाज़ पूरी होने से पहले भूल कर सलाम फेर दिया तो हर्ज नहीं और अगर जान बूझ कर फेरा तो नमाज़ जाती रही।

अगर किसी शख्स को सलाम किया जान बूझ कर या भूल कर तो नमाज़ जाती रही। किसी मस्बूक़ ने (जो जमाअ़त में बाद को शामिल हुआ, उस ने) ये समझ कर सलाम फेर दिया कि इमाम के साथ ही फेरना है तो नमाज़ फ़ासिद हो गयी।

इशा की नमाज़ को तरावीह समझ कर 2 रकअ़त पर सलाम फेर दिया या फिर ज़ुहर की नमाज़ को जुम्आ तसव्वुर कर के 2 रकअ़त पर सलाम फेर दिया या खुद को मुसाफिर समझ कर दूसरी रकअ़त में सलाम देर दिया तो नमाज़ फ़ासिद हो गयी।

दूसरी रकअ़त को चौथी समझ कर सलाम फेर दिया और याद आया तो नमाज़ पूरी करे और सजदा -ए- सहव कर ले। सलाम का जवाब ज़ुबान से दिया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी और अगर इशारे से दिया तो मकरूह है। नमाज़ी से किसी ने कोई चीज़ माँगी या कुछ सवाल किया तो उस ने हाथ से इशारा किया तो नमाज़ नहीं टूटी पर मकरूह हुई।

किसी को छींक आयी और नमाज़ी ने उस के जवाब में यरहमुकल्लाह कहा तो नमाज़ फ़ासिद हो गई और अगर खुद को छींक आने पर कहा तो नमाज़ फ़ासिद ना हुई और अगर किसी को छींक आई और नमाज़ी ने अल्हम्दुलिल्लाह कहा तो नमाज़ ना गई पर अगर जवाब की निय्यत से कहा तो चली गई।

नमाज़ी को छींक आई और जवाब में किसी ने यरहमुकल्लाह कहा और इस ने जवाब में आमीन कहा तो नमाज़ फ़ासिद हो गई।

नमाज़ में छींक आये तो सुकूत करे यानी खामोश रहे और अल्हम्दुलिल्लाह कह लिया तो भी हर्ज नहीं और अगर नमाज़ में ना कहा था तो नमाज़ के बाद कह ले।

खुशी की खबर सुन कर नमाज़ में अल्हम्दुलिल्लाह कहा तो नमाज़ फ़ासिद हो गई और जवाब की निय्यत से नहीं बल्कि ये बताने के लिये कहा कि नमाज़ में है तो नहीं हुई।

यूँ ही किसी ताज्जुब खेज़ चीज़ को देख कर सुब्हान अल्लाह या लाइलाहा इल्लल्लाह कहा और ये जवाब के क़स्द से कहा तो नमाज़ फ़ासिद हो गयी वरना नहीं।

किसी ने आने की इजाज़त चाही और नमाज़ी ने बताने के लिये कि मै नमाज़ में हूँ ज़ोर से अल्लाहु अकबर, सुब्हान अल्लाह या अल्हम्दु लिल्लाह पढ़ा तो नमाज़ फ़ासिद ना हुयी।

बुरी खबर सुन कर इन्ना लिल्लाहि व...... पढ़ा तो नमाज़ फ़ासिद हो गयी या क़ुरआन की आयत से किसी को जवाब दिया तो भी नमाज़ जाती रही।

नमाज़ में अल्लाह का नाम सुन कर जल्ला जलालहू कहा या नबी का नाम सुन कर दुरूद पढ़ा तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी जबकि जवाब के इरादे से कहा हो वरना हर्ज नहीं। इमाम की क़िरअत सुन कर सदक़ल्लाहू या सदक़ा रसूलुहू कहा तो भी नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी जबकि जवाब के क़स्द से कहा हो। अज़ान का जवाब दिया तो भी नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

शैतान का नाम सुन कर उस पर लानत भेजी तो भी नमाज़ जाती रहेगी। अगर वस्वसे को दूर करने के लिये ला-हौल पढ़ा तो अगर ये उमूरे दुनिया से है तो नमाज़ जाती रही और अगर उमूरे आखिरत से है तो नहीं। इमाम अगर किसी ऐसे शख्स का लुक़्मा ले जो मुक़्तदी नहीं तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

फौरन लुक़्मा देना मकरूह है, थोड़ा वक़्फा देना चाहिये कि शायद इमाम को खुद याद आ जाये। इमाम ऐसा कुछ ना करे कि जिस से मुक़्तदी लुक़्मा देने पर मजबूर हो जायें मस्लन बार-बार पढ़े या साकित खड़ा रहे। आह, ओह, उफ़, तुफ वग़ैरह अल्फाज़ दर्द या मुसीबत की वजह से निकले या आवाज़ से रोया और हुरूफ़ पैदा हुये तो इन सब सूरतों में नमाज़ जाती रही और अगर रोने में सिर्फ आँसू निकले आवाज़ नहीं निकली तो हर्ज नहीं।

मरीज़ की ज़ुबान से बिला इख्तियार आह, ओह के अल्फाज़ निकल गये तो नमाज़ फ़ासिद ना हुई और डकार, खाँसी, छींक वग़ैरह जो मजबूरी में निकलते हैं सब माफ़ हैं। जन्नत और दोज़ख की याद में अगर ये अल्फाज़ कहे तो नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी। इमाम का पढ़ना पसंद आया और इस पर रोने लगा और और अरे, हाँ, ना ज़ुबान से निकला तो कोई हर्ज नहीं कि ये खुशूअ़ के बाइस है।

फूँकने में अगर हुरूफ़ पैदा ना हो तो ये मिस्ले साँस है और जान बूझ कर फूँकना मकरूह है और अगर दो हुरूफ़ पैदा हो गये जैसे उफ़ तुफ वग़ैरह तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। खंखारने में अगर दो हुरूफ़ ज़ाहिर हो तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी और अगर किसी उज़्र के सबब खंखारे तो नमाज़ फ़ासिद नही होती मस्लन तबियत का तक़ाज़ा है या आवाज़ साफ़ करने के लिये।

क़ुरआन शरीफ़ से देख कर नमाज़ में पढ़ना मुफ्सिदे नमाज़ है यानी नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी और मेहराब में लिखा हो तो उसे भी देख कर पढ़ने से नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। हाँ अगर याद है और फिर ऐसे ही उस पर नज़र है और पढ़ता है तो नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी।

नमाज़ में किसी कागज़ पर नज़र पड़ी जिस पर क़ुरआन की आयतें लिखी हुयी हैं तो उसे देखने और समझने से नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी और अगर फिक़्ह की किताब है तो भी नहीं। हाँ अगर जान बूझ कर देखा और समझने का क़स्द किया तो मकरूह है वरना मकरूह नहीं और अगर तहरीर (लिखा हुआ) गैर दीनी हो तो कराहत ज़्यादा है।

सिर्फ तौरात या इन्जील को नमाज़ में पढ़ा तो ये काफ़ी नहीं और अगर ब-क़द्रे ज़रूरत क़ुरआन पढ़ने के बाद कुछ आयतें तौरात और इन्जील से पढ़ी जिन में अल्लाह का ज़िक्र है तो हर्ज नहीं पर नहीं पढ़ना चाहिये।

अ़मले कसीर (ज़्यादा हरकत, ज़्यादा काम करने) से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है जब कि वो अ़मल ना नमाज़ से हो और ना नमाज़ की इस्लाह के लिये किया गया हो और अ़मले क़लील से नमाज़ फ़ासिद नहीं होती यानी थोड़ी हरकत या थोड़ा काम।

अ़मले कसीर यानी ऐसा काम कि अगर कोई दूर से देखे तो वो समझ ले कि ये नमाज़ में नहीं है यानी गालिब गुमान हो जाये और अगर उसे शक हो कि नमाज़ में है या नहीं तो अ़मले क़लील है। नमाज़ में कुर्ता पहना या पजामा पहना या तहबंद (लुंगी) को बांधा तो नमाज़ टूट गई।

नापाक जगह पर बिला हाइल यानी बीच में कोई चीज़ नहीं थी उस पर सजदा किया तो नमाज़ टूट जायेगी। अगर सजदे में घुटने, हाथ या पाऊँ नापाक जगह पर रखे तो नमाज़ टूट गई। जान बूझकर अगर नमाज़ में सित्र खोला तो अगर्चे फ़ौरन ढाँप ले पर नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

नमाज़ के अंदर खाना पीना मुत्लक़न नमाज़ को फ़ासिद कर देता है चाहे जान बूझ कर हो या भूल कर, थोड़ा हो या ज़्यादा। यहाँ तक कि अगर कोई तिल बिना चबाये निगल लिया या कोई क़तरा उस के मुँह में गिरा और उस ने निगल लिया तो नमाज़ जाती रही।

दाँतों के अंदर खाने की कोई चीज़ रह गई थी और उसे निगल लिया तो अगर वो चने से छोटी है तो मकरूह है और अगर बड़ी है तो नमाज़ फ़ासिद हो गई अगर मुँह में खून आया तो अगर थूक ज़्यादा है और खून कम यानी थूक गालिब है तो नमाज़ हो जायेगी और अगर खून गालिब है तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। अब गालिब कौन है और मग्लूब कौन यानी कौन ज़्यादा है या कम, इस का अन्दाज़ा नमाज़ में थूक कर तो लगाया नहीं जा सकता बल्कि तरीक़ा ये है कि अगर खून का मज़ा हलक़ में महसूस हुआ तो खून को ज़्यादा माना जायेगा और अगर ना हुआ तो थूक को। नमाज़ और रोज़े के टूटने में मज़े का ऐतबार है और वुज़ू को तोड़ने में रंग का।

अगर किसी ने कोई मीठी चीज़ खायी थी या चाय पी थी और अज्ज़ा (Parts) अंदर चले गये पर मुँह में एक मिठास बाक़ी है तो इस के गले में महसूस होने से नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी। अगर मुँह में शक्कर (चीनी) वग़ैरह है तो वो घुल कर हलक़ में जाये तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। सीने को काबे से फेरना मुफ्सिदे नमाज़ है जबकि 45 दर्जे (Degree) से ज़्यादा फेरा हो और बिना किसी उज़्र के फेरा हो।

अगर उज़्र की वजह से फेरा मस्लन वुज़ू टूटने का गुमान था और फेरने के बाद मालूम हुआ कि गुमान गलत था तो अगर मस्जिद से खारिज ना हुआ हो नमाज़ ना टूटेगी। क़िब्ला की तरफ एक क़दम चला फिर एक रुक्न की क़द्र ठहर गया फिर चला फिर ठहर गया तो अगर्चे कई बार हो जब तक मकान ना बदले नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी मस्लन मस्जिद में था और बाहर आ गया या मैदान में सफों से आगे आगे बढ़ गया तो ये मकान बदलना हुआ और इस से नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी और अगर एक ही बार में दो सफों के बराबर चला तो भी नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

औरत नमाज़ पढ़ रही थी और बच्चे ने उसकी छाती चूसी और दूध निकल आया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। रत नमाज़ में थी और मर्द ने उसे बोसा लिया या शहवत के साथ हाथ लगाया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। अगर मर्द नमाज़ में था और औरत ने ऐसा किया तो नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी जब तक मर्द को शहवत ना हो।

किसी ने नमाज़ पढ़ते हुये किसी को तमाचा मारा या कोड़ा लगाया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। तीन कलिमे इस तरह लिखना कि हुरूफ़ ज़ाहिर हो जायें नमाज़ फ़ासिद कर देता है और अगर लिखना हवा या पानी में हो कि हुरूफ़ ज़ाहिर ना हो तो ये लिखना मुनासिब नहीं और नमाज़ मकरूहे तहरीमी हुई। नमाज़ पढ़ने वाले को उठा लिया और फिर वहीं रख दिया तो अगर क़िब्ला से सीना नहीं फिरा तो नमाज़ फ़ासिद नहीं हुई और अगर उठा के सवारी पर रख दिया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

जुनून और बेहोशी से भी नमाज़ फ़ासिद हो जाती है। क़स्दन वुज़ू तोड़ा या कोई ऐसी बात पाई गई के जिससे ग़ुस्ल वाजिब हो गया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। मुक़तदी ने इमाम से पहले रुक्न अदा किया फिर इमाम के साथ उसे अदा ना किया हत्ता कि सलाम साथ में फेर दिया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। किसी रुक्न को सोते हुये अदा किया और फिर उसे नहीं दोहराया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

साँप बिच्छु मारने से नमाज़ फ़ासिद नहीं होती जब कि तीन क़दम चलना ना पड़ा हो और तेज़ ज़र्ब न लगानी पड़ी हो यानी तीन बार हमला करना और अगर ऐसा करना पड़े तो भी इजाज़त है मारने की पर नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

साँप बिच्छु को उसी वक़्त मारा जाये जब नमाज़ में सामने से गुज़रे या अगल बग़ल में और काट लेने का डर हो वरना ऐसा नहीं कि 20 क़दम पर कोई बिच्छु नज़र आ जाये और उसे मारने के लिए दौड़ जाये। पै दर पै यानी लगातार तीन बालो को तोड़ना या तीन जुओं को मारना या एक जूँ को तीन बार मारने से नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी और अगर पै दर पै न हो तो नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी पर मकरूह है।

एक रुक्न (Step) में तीन बार खुजाने से नमाज़ फासिद हो जायेगी। तीन बार का मतलब के एक बार खुजा कर हाथ हटा लिया फिर खुजाया और हाथ हटा लिया इस तरह वरना अगर एक ही बार में थोडी देर तक खुजाये तो ये एक ही बार खुजाना कहलायेगा।

तकबीराते इंतिक़ाल यानी एक हालत से दुसरी हालत में जाने के लिये अल्लाहु अकबर कहने में अलिफ़ को दराज़ किया यानी आल्लाहु अकबर पढ़ा या बे को दराज़ किया यानी अकबार पढ़ा तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी और अगर तकबीरे तहरीमा यानी निय्यत बांधते वक़्त ऐसा किया तो नमाज़ शुरु ही नहीं होगी।

नमाज़ में क़िरअत या अज़्कार में ऐसी गलती जिससे माना फासिद हो जाये तो नमाज़ फासिद हो जाती है जिसकी तफ़सील आगे आयेगी। नमाज़ी के आगे से कोई गुज़र जाये अगर्चे सजदे की जगह पर से भी तो नमाज़ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता अब चाहे गुज़रने वाला मर्द हो, औरत हो, कुत्ता हो या गधा हो।

नमाज़ी के आगे से गुज़रना बहुत बड़ा गुनाह है। हदीस में इस पर सख्त वईद आयी है।

मैदान और बड़ी मस्जिद में नमाज़ी के मौज़ा -ए- सुजूद से ग़ुज़रना जाइज़ नहीं यानी जब वो क़याम की हालत में हो और सजदे की जगह देखे तो जितना हिस्सा नज़र में आये वो मौज़ा -ए- सुजूद है और इस के अंदर से गुज़रना जाइज़ नहीं पर इसके बाद से गुज़र सकता है और, मकान और छोटी मस्जिद में नमाज़ी के आगे से ले कर दीवार तक कहीं से नहीं गुज़र सकता जब तक सामने सुतरा ना हो।

अगर कोई ऊंची जगह पर नामज़ पढ़ रहा हो तो उसके सामने से ग़ुज़रने के लिए देखना होगा कि वो इतनी ऊंचाई पर है कि गुज़रते वक़्त किसी उज़्व (Part) का सामना ना होगा तो अगर ऐसा है तो गुज़र सकता है वरना नहीं। इसी तरह नमाज़ी के सामने से घोड़े वग़ैरह सवारी पर गुज़रा तो अगर पाऊं का सामना नमाज़ी के बदन से हो तो मना है।

नमाज़ी के आगे सुतरा हो यानी ऐसी चीज़ कि जिससे आड़ हो जाये तो उसके बाद से ग़ुज़रने में हर्ज नहीं। सुतरा कम से कम एक हाथ जितना ऊँचा और उंगली के जितना मोटा हो। इमाम या मुन्फरिद जब सेहरा में या किसी ऐसी जगह नमाज़ पढ़ें जहाँ लोगों के ग़ुज़रने का अंदेशा हो तो सुतरा गाड़ना मुश्तहब है और सुतरा नाक की सीध में ना गाड़े बल्कि दायीं अबरू या बायीं अबरू की सीध में गाड़े और बेहतर दायीं तरह है।

"सुतरा" यानी नमाज़ी के आगे कोई ऐसी चीज़ रखी जाये जिससे सामने से गुज़रा जा सके। अगर कोई ऐसी शय है कि उसे नसब करना (गाड़ना) मुम्किन नहीं तो उसे लम्बी-लम्बी रख दें और अगर कोई चीज़ ना हो तो खत खींच देना चाहिये (यानी लाईन) ख्वाह तूल में हो या मेहराब की मिस्ल। अगर सुतरा के लिये कोई चीज़ ना हो और पास में किताब या कपडा है तो उसे रख दे

इमाम का सुतरा मुक़्तदी का सुतरा है यानी अगर इमाम के सामने सुतरा रखा हुआ है तो हर मुक़्तदी के लिये अब जदीद सुतरा ज़रूरी नहीं। अगर मुक़्तदी के सामने से कोई गुज़र जाये तो हर्ज नहीं। दरख्त, आदमी और जानवर वग़ैरह का भी सुतरा हो सकता है कि इनके बाद गुज़रने में हर्ज नहीं मगर आदमी को उस वक़्त सुतरा कहा जायेगा जब उसकी पीठ नमाज़ी की तरफ हो, नमाज़ी की तरफ मुँह करना मना है।

दो लोग अगर एक साथ नमाज़ी के सामने से गुज़र गये तो जो नमाज़ी के क़रीब से गुज़रा वो गुनाहगार होगा और दुसरे के लिये ये सुतरा हो गया।

नमाज़ी के आगे से गुज़रना चाहता है तो कोई चीज़ जो सुतरा के क़ाबिल हो उसके सामने रख कर गुज़र जाये और फिर उठा ले। दो लोग अगर नमाज़ी के सामने से गुज़रना चाहते हैं और कोई चीज़ सुतरा के लिये नहीं तो ऐसा कर सकते हैं कि एक शख्स नमाज़ी की तरफ पीठ कर के सामने खड़ा हो जाये और दुसरा शख्स उसके आगे से गुज़र जाये फिर वो दुसरा शख्स इस के पीछे आ कर नमाज़ी के सामने पीठ कर के खड़ा हो जाये और पहला गुज़र जाये फिर दुसरा जिधर से आया था उधर हट जाये, इस तरह दोनो एक दुसरे के लिये सुतरा बन गये।

अगर पास में अ़सा (डंडा, लाठी वग़ैरह) है तो उसे नसब नहीं कर सकता तो सामने रख कर छोड दे और गिरने से पहले गुज़र जाये। अगली सफ में जगह थी और पिछ्ली सफ में खड़ा हो गया तो बाद में आने वाला पहली सफ को पूरी करने के लिये गर्दन फलाँग कर जा सकता है। ऐसी जगह नमाज़ पढता है कि सामने से आने जाने वालों का अंदेशा नहीं है और सामने रास्ता भी नहीं है तो सुतरा क़ाइम ना करने में हर्ज नहीं फिर भी बेहतर है कि सुतरा क़ाइम कर लिया जाये।

नमाज़ी के सामने सुतरा नहीं और अगर कोई गुज़रना चाहता है तो नमाज़ी को रुखसत है कि उसे रोके मतलब सर, आंख या हाथ के इशारे से या सुब्हानअल्लाह कहे या बुलंद आवाज़ से क़िरअत कर के और इस से ज़्यादा की इजाज़त नहीं है कि उस के कपड़े पकड़ ले या अ़मले कसीर करे बल्कि ऐसा करने से नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

तस्बीह व इशारा दोनों को जमा करना मकरूह है। मस्जिदे हराम में नमाज़ पढ़ता हो तो उस के आगे तवाफ़ करने वाले गुज़र सकते हैं।