शरीअ़त में हर काम एक जैसा नहीं है बल्कि उसे कई हिस्सों में बाँटा गया है, सब का नाम अलग है और सब का
हुक्म भी अलग है।
हर अच्छा काम आपस में बराबर नहीं है यानी किसी में कम नेकी है तो किसी में ज़्यादा और इसी तरह हर बुरा काम भी
आपस में बराबर नहीं है किसी में कम गुनाह है तो किसी में ज़्यादा।
फर्ज़ उसे कहते हैं जो दलीले क़तई से साबित हो यानी ऐसी दलील जिस में कोई शुब्हा ना हो। फर्ज़ को अदा करना बहुत ज़रूरी है, इस को तर्क करने वाला सख्त गुनाहगार और अज़ाबे जहन्नम का मुस्तहिक़ है और जो इसका इन्कार करे वो काफ़िर है।
वाजिब उसे कहते हैं जो दलीले ज़न्नी से साबित हो, इस का अदा करना भी ज़रूरी है और जो तर्क करे गुनाहगार है, इस का इन्कार करने वाला गुमराह है।
जो काम हुज़ूरﷺ ने हमेशा किया हो, अलबत्ता बयाने जवाज़ के लिये कभी तर्क भी किया हो, उसे सुन्नते मुअ़क्किदा कहते हैं। इस का अदा करना ज़रूरी है और कभी कभार छोड़ने वाले पर इताब और आदतन छोड़ना इस्तिहक़ाक़े अज़ाब है।
वो जो शरीअ़त की नज़र में पसंदीदा हो लेकिन इसके छोड़ने पर कोई वईद भी नहीं। इस का करना सवाब लेकिन छोड़ने वाला गुनाहगार नहीं अगर्चे आदतन हो, हाँ इस का तर्क शरीअ़त को ना पसंद है।
वो जो शरीअ़त की नज़र में पसंदीदा हो लेकिन इसे छोड़ना नापसंद भी ना हो। अगर्चे हुज़ूर ﷺ ने किया हो या तरगीब दी हो या उलमा ने पसंद किया हो अगर्चे अहादीस में ज़िक्र ना हो, इस का करना सवाब है और ना करने पर मुत्लक़न कोई हुक्म नहीं।
जिस का करना या ना करना एक जैसा हो यानी ना सवाब ना गुनाह।
इस का एक बार भी करना गुनाहे कबीरा है, ये फर्ज़ के मुक़ाबिल है यानी जो फर्ज़ है उसे तर्क करना हराम और जो हराम है उस से बचना फर्ज़ है।
ये वाजिब के मुक़ाबिल है, इस का करने वाला भी गुनाहगार है, इस का गुनाह हराम से कम है लेकिन चंद बार इस का करना गुनाहे कबीरा है।
ये सुन्नते मुअ़क्किदा के मुक़ाबिल है, इस का करना सबबे इताब है यानी अल्लाह त'आला और उस के रसूल की नाराज़ी और आदतन करने पर अज़ाब।
ये सुन्नते गैरे मुअ़क्किदा के मुक़ाबिल है, इस का करना शरीअ़त में नापसंद है लेकिन गुनाह नहीं अगर्चे आदतन हो।
ये मुस्तहब के मुक़ाबिल है यानी इस का ना करना बेहतर था लेकिन किया तो कुछ नहीं।
फर्ज़ का मुक़ाबिल (Opposite) हराम है, वाजिब का मकरूहे तहरीमी, सुन्नते मुअ़क्किदा का इसाअ़त, सुन्नते गैरे मुअ़क्किदा का मकरूहे तन्ज़ीही और मुस्तहब का खिलाफे अवला। इसका ये मतलब भी है कि जो काम फर्ज़ है उसे छोड़ना हराम है और जो हराम है उस से बचना फर्ज़ है। जो वाजिब है उस का तर्क मकरूहे तहरीमी है और जो मकरूहे तहरीमी है उस से बचना वाजिब है। जो सुन्नते मुअ़क्किदा है उसे छोड़ना इसा'अ़त है और इसा'अ़त से बचना सुन्नते मुअ़क्किदा है। जो सुन्नते गैरे मुअ़क्किदा है उसे छोड़ना मकरूहे तन्ज़ीही है और मकरूहे तन्ज़ीही से बचना सुन्नत। जो मुस्तहब है उस का उल्टा करना खिलाफे अवला है और खिलाफे अवला से बचना मुस्तहब है और आखिर में मुबाह है जिस का करना, ना करना एक जैसा है लेकिन कभी-कभी मुबाह अच्छी निय्यतों की वजह से मुस्तहब भी बन जाता है।
इनका ताल्लुक़ नमाज़ से इस तरह भी है कि नमाज़ में फर्ज़ छूट जाने पर नमाज़ दोहराना फर्ज़ है, वाजिब छूट जाने पर नमाज़ दोहराना वाजिब है, सुन्नत छूट जाने पर सुन्नत और मुस्तहब छूट जाने पर मुस्तहब।
अब जब आप ये इस्तिलाहात जान चुके तो फिर आते हैं नमाज़ की पहली शर्त तहारत की तरफ़। तहारत नमाज़ के लिये इतनी ज़रूरी है कि बगैर इस के नमाज़ होगी ही नहीं। अगर कोई जान बूझ कर नापाकी की हालत में नमाज़ पढ़ता है तो इसे उलमा ने कुफ्र तक लिखा है यानी वो काफ़िर हो जायेगा क्योंकि उसने नमाज़ को हल्का जाना और इबादत की तौहीन की।
हुज़ूरﷺ ने तहारत को नमाज़ की कुंजी बताया है। (मुस्नद अहमद) और तहारत की आधा ईमान कहा गया है। (तिर्मज़ी)
अगर तहारत कामिल ना हो तो नमाज़ पढ़ाने वाले इमाम को भी परेशानी होती है मतलब नमाज़ के दौरान उसे शुब्हा होता है और फिर दो रकाअ़त के बाद बैठने के बजाये इमाम खड़ा हो जाता है या सलाम फेरने के बजाये खड़ा होने लगता है, इस की एक वजह ये भी है कि मुक़्तदियों की तहारत कामिल नहीं होती
ये तो तहारत कामिल ना होने की बात थी तो सोचिये कि जो नापाक हों उसका हुक्म कितना सख्त होगा?
तहारत दो तरह की हैं और नापाकी भी दो तरह की, एक है तहारते सुगरा और एक है तहारते कुब्रा और नापाकी में एक को कहते हैं हदसे असगर और एक को हदसे अकबर यानी एक छोटी और एक बड़ी नापाकी।
छोटी नापाकी के लिये छोटी तहारत और बड़ी नापाकी के लिये बड़ी तहारत। अगर कोई पेशाब करे या हवा निकाल जाये तो ये नहीं कहा जायेगा कि उसे गुस्ल करना होगा क्योंकि गुस्ल तहारते कुब्रा है और पेशाब और हवा का निकलना हदसे असगर है तो हदसे असगर से पाक होने के लिये वुज़ू किया जायेगा क्योंकि ये तहारते सुगरा है।
इसी तरह अगर किसी ने अपनी बीवी से सोहबत की तो ये नहीं होगा कि वुज़ू कर के पाक हो जाये क्योंकि यहाँ तहारते कुब्रा की ज़रूरत नहीं।
आसान लफ्ज़ों में ये समझिये कि पेशाब करने या हवा निकलने से भी इन्सान नापाक हो जाता है लेकिन ये नापाकी हदसे असगर होती है यानी छोटी वाली नापाकी और इसके लिये वुज़ू काफ़ी है।
मनी निकलने पर भी इंसान नापाक हो जाता है लेकिन ये नापाकी हदसे अकबर होती है यानी बड़ी नापाकी और इस से पाक होने के लिये गुस्ल की ज़रूरत होती है। अब आप आसानी से समझ सकते हैं कि पेशाब करने या हवा निकलने से गुस्ल फर्ज़ नहीं होता क्योंकि ये हदसे असगर है। आपको वही एप्लाई करना है जिस की ज़रूरत है।
कुछ लोगों के जिस्म से कुत्ता सट गया तो नहाना शुरू कर देते हैं, कीचड़ लग जाये तो समझते हैं कि नहाना होगा, पेशाब के क़तरे निकल गये तो समझते हैं कि गुस्ल फर्ज़ हो गया, सिर्फ़ मज़ी (मनी से पहले निकलने वाली चीज़) निकलने पर ये गुमान करते हैं कि गुस्ल फर्ज़ हो गया, हालाँकि ऐसा कुछ नहीं है।
गुस्ल कब फर्ज़ होता है और कब वुज़ू काफ़ी होता है ये हम तफ़सील से बयान करेंगे, आपको बस ये क़ाइदा याद रखना है कि छोटी नापाकी के लिये वुज़ू और बड़ी नापाकी के लिये गुस्ल। अब छोटी नापाकी और बड़ी नापाकी कौन कौन सी हैं तो इसे हम आगे बयान करेंगे।
कुछ लोग ऐसी बातों को हदसे असगर समझते हैं, जिनका नापाकी से ताल्लुक़ ही नहीं मस्लन गाली देने से वुज़ू का टूट जाना, तम्बाखू खाने से वुज़ू का टूट जाना, जिस्म का छुपा हुआ हिस्सा दिख जाने से.....वग़ैरह। ये सब हदस है ही नहीं तो इन से वुज़ू या गुस्ल पर फर्क़ पड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता।