तरावीह मर्द व औरत सब के लिये बिल इज्मा सुन्नते मुअक्किदा है। इस का तर्क जाइज़ नहीं। (दुर्रे मुख्तार वग़ैरह)
इस पर खुलफ़ा -ए- राशिदीन रदिअल्लाहु त'आला अन्हुम ने मुदावमत फ़रमाई और नबी ﷺ का इरशाद है : "मेरी सुन्नत और मेरे खुलफ़ा -ए- राशिदीन को अपने ऊपर लाज़िम समझो।" और खुद हुज़ूर ﷺ ने भी तरावीह पढ़ी और इसे बहुत पसंद फ़रमाया।
सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से मरवी, इरशाद फ़रमाते हैं : "जो रमज़ान में क़याम करे ईमान की वजह से और सवाब तलब करने के लिये, उस के अगले सब गुनाह बख्स दिये जायेंगे यानी सगाइर।" फिर इस अंदेशे से कि उम्मत पर फ़र्ज़ न हो जाये तर्क फरमाई। फिर फ़ारूके आज़म रदिअल्लाहु त'आला अन्हु रमज़ान में एक रात मस्जिद को तशरीफ़ ले गये और लोगों को मुतफ़र्रिक़ तौर पर नमाज़ पढ़ते पाया। कोई तन्हा पढ़ रहा है, किसी के साथ कुछ लोग पढ़ रहे हैं, फ़रमाया : मैं मुनासिब जानता हूँ कि उन सब को एक इमाम के साथ जमा कर दूँ तो बेहतर हो, सब को एक इमाम अबी बिन क़ाब रदिअल्लाहु त'आला अन्हु के साथ इकट्ठा कर दिया फिर दूसरे दिन तशरीफ़ ले गये मुलाहिज़ा फ़रमाया कि लोग अपने इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ते हैं, फ़रमाया : نِعْمَتِ الْبِدْعَۃُ ھٰذِہٖ ये अच्छी बिदअत है।
फिर ईराक़ की जानिब ग्यारह क़दम चले, हर कदम पर ये कहे: یَا غَوْثَ الثَّـقَـلَیْنِ وَ یَا کَرِیْمَ الطَّرَفَیْنِ اَغِثْنِیْ وَامْدُدْنِیْ فِیْ قَضَاءِ حَاجَتِیْ یَا قَاضِیَ الْحَاجَاتِ
जम्हूर का मज़हब ये है कि तरावीह की बीस रकाअतें हैं और यही अहादीस से साबित। बैहक़ी ने बा-सनदे सहीह साइब बिन यज़ीद रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से रिवायत की कि लोग फ़ारूके आज़म रदिअल्लाहु त'आला अन्हु के ज़माने में बीस रकाअतें पढ़ा करते थे और उस्मान व अली रदिअल्लाहु त'आला अन्हुमा के अहद में भी यूँ ही था। मुअत्ता में यज़ीद बिन रुम्मान से रिवायत है, कि उमर रदिअल्लाहु त'आला अन्हु के ज़माने में लोग रमज़ान में तेईस (23) रकाअतें पढ़ते। (बैहक़ी ने कहा कि इस में तीन रकाअतें वित्र की हैं।)
मौला अली रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने एक शख्स को हुक्म फ़रमाया कि रमज़ान में लोगों को बीस (20) रकाअतें पढ़ाये। नीज़ इस के बीस होने में ये हिकमत है कि फ़राइज़ व वाजिबात की इस से तकमील होती है और कुल फ़राइज़ व वाजिबात की हर रोज़ बीस रकाअतें हैं, लिहाज़ा मुनासिब कि ये भी बीस हों कि मुकम्मल व मुकम्मल बराबर हो।
इस का वक़्त फ़र्ज़े इशा के बाद से तुलू -ए- फ़ज्र तक है, वित्र से पहले भी हो सकती है और बाद भी तो अगर कुछ रकाअतें इस की बाक़ी रह गयीं कि इमाम वित्र के लिये खड़ा हो गया तो इमाम के साथ वित्र पढ़ ले। फिर बाक़ी अदा कर कर ले जब कि फ़र्ज़ जमाअत से पढ़े हों और ये अफज़ल है और अगर तरावीह पूरी कर के वित्र तन्हा पढ़े तो भी जाइज़ है और अगर बाद में मालूम हुआ कि नमाज़े इशा बग़ैर तहारत पढ़ी थी और तरावीह व वित्र तहारत के साथ तो इशा व तरावीह फिर पढ़े, वित्र हो गया। (दुर्रे मुख्तार, रद्दुल मुहतार, आलमगीरी) मुस्तहब ये है कि तिहाई रात तक ताखीर करे और आधी रात के बाद पढ़े तो भी कराहत नहीं। (दुर्रे मुख्तार) अगर फौत हो जाये तो उन की क़ज़ा नही और अगर क़ज़ा तन्हा पढ़ ली तो तरावीह नहीं बल्कि नफ़्ल मुस्तहब है, जैसे मग़रिब व इशा की सुन्नतें) (दुर्रे मुख्तार, रद्दुल मुहतार)
तरावीह की बीस 20 रकअ़तें दस सलाम से पढ़े यानी हर दो रकअ़त पर सलाम फेरे और अगर किसी ने बीसों पढ़ कर आख़िर में सलाम फेरा तो अगर हर दो रकअ़त पर क़ादा करता रहा तो हो जायेगी मगर कराहत के साथ और अगर क़ादा ना किया था तो दो रकअ़त के क़ाइम मक़ाम हुई। (दुर्रे मुख़तार)
एहतियात ये है कि जब दो दो रकअ़त पर सलाम फेरे तो हर दो रकअ़त पर अलग अलग निय्यत करे और अगर एक साथ बीसों रकअ़त की निय्यत कर ली तो भी जाइज़ है। (रददुल मुहतार)
तरावीह में एक-बार क़ुरआने मजीद ख़त्म करना सुन्नत मुअक्किदा है और दो मर्तबा फ़ज़ीलत और तीन मर्तबा अफ़ज़ल, लोगों की सुस्ती की वजह से ख़त्म को तर्क ना करे। (दुर्रे मुख़तार)
इमाम व मुक़तदी हर दो रकअ़त पर सना पढ़ें और बाद तशह्हुद दुआ भी, हाँ अगर मुक़तदियों पर गिरानी हो तो तशह्हुद के बाद اَللّٰھُمَّ صَلِّ عَلٰی مُحَمَّدٍ وَّاٰلِہٖ पर इक्तिफा करे। -(दर्रे मुख़तार, रददुलमुहतार) | अगर एक ख़त्म करना हो तो बेहतर ये है कि सत्ताइसवीं शब में ख़त्म हो फिर अगर इस रात में या उस के पहले ख़त्म हो तो तरावीह आख़िर रमज़ान तक बराबर पढ़ते रहें कि सुन्नत मुअक्किदा है। -(आलमगीरी) | अफ़ज़ल ये है कि तमाम शफ़ओं में किरअत बराबर हो और अगर ऐसा ना किया जब भी हर्ज नहीं। यूँहीं हर शफ़ा की पहली रकअ़त और दूसरी की किरअत मुसावी हो। दूसरी की किरअत पहली से ज़्यादा ना होना चाहिये। -(आलमगीरी) किरअत और अरकान की अदा में जल्दी करना मकरूह है और जितनी तरतील ज़्यादा हो बेहतर है। यूँ ही तअव्वुज़ व तस्मिया वा तमानीनत (सुकून और आराम से अदा करना) व तस्बीह का छोड़ देना भी मकरूह है। -(आलमगीरी, दुर्रे मुख्तार)
हर चार रकअत पर इतनी देर तक बैठना मुस्तहब है जितनी देर में चार रकअतें पढ़ीं, पाँचवीं तरवीहा और वित्र के दरमियान अगर बैठना लोगों पर गिरां हो तो ना बैठे। (आलमगीरी वग़ैरह) | इस बैठने में उसे इख्तियार है के चुप बैठा रहे या कलमा पढ़े या तिलावत करे या दुरूद शरीफ़ पढ़े या चार रकअते तन्हा नफ़्ल पढ़े या ये तस्बीह पढ़े :سُبْحَانَ ذِی الْمُلْکِ وَالْمَلَکُوْتِ سُبْحَانَ ذِی الْعِزَّۃِ وَالْعَظَمَۃِ وَالْکِبْرِیَآءِ وَالْجَبَرُوْتِ سُبْحَانَ الْمَلِکِ الْحَیِّ الَّذِیْ لَا یَنَامُ وَلَا یَمُوْتُ سُبُّوْحٌ قُدُّوْسٌ رَّبُّنَا وَرَّبُّ الْمَلٰئِکَۃِ وَالرُّوْحِ لَآ اِلٰـہَ اِلَّا اللہ نَسْتَغْفِرُ اللہ نَسْئَلُکَ الْجَنَّۃَ وَنَعُوْذُ بِکَ مِنَ النَّار -(गुनिया, रद्दुल मुहतार वग़ैरह)
हर दो रकअत के बाद दो रकअत पढ़ना मकरूह है। यूँ ही 10 रकअत के बाद बैठना भी मकरूह। -(दुर्रे मुख्तार, आलमगीरी) | तरावीह में जमाअत सुन्नते मुअक्किदा है कि अगर मस्जिद के सब लोग छोड़ देंगे तो सब गुनाहगार होंगे और अगर किसी एक ने घर में तन्हा पढ़ ली तो गुनाहगार नहीं। मगर जो शख्स मुक़्तदा न हो कि उस के होने से जमाअत बड़ी होती है और छोड़ देगा तो लोग कम हो जायेंगे उसे बिला उज़्र जमाअत छोड़ने की इजाज़त नहीं। -(आलमगीरी) | तरावीह मस्जिद में बा-जमाअत पढ़ना अफज़ल है। अगर घर में जमाअत से पढ़ी तो जमाअत के तर्क का गुनाह ना होगा मगर वो सवाब ना मिलेगा जो मस्जिद में पढ़ने का था। -(आलमगीरी) | अगर आलिम हाफ़िज़ भी हो तो अफज़ल ये है कि खुद पढ़े, दूसरे की इक़तिदा न करे और अगर इमाम गलत पढ़ता हो तो मस्जिदे मुहल्ला छोड़ कर दूसरी मस्जिद में जाने में हर्ज नहीं। यूँ ही अगर दूसरी जगह का इमाम खुश आवाज़ हो या हल्की किरअत पढ़ता हो या मस्जिदे मुहल्ला में खत्म ना होगा तो दूसरी मस्जिद में जाना जाइज़ है। -(आलमगीरी)
खुश ख़्वान को इमाम बनाना ना चाहिये बल्कि दुरुस्त ख़्वान को बनायें। अगर सिर्फ आवाज़ अच्छी हो और मखारिज़ अदा ना करता हो तो उस से बेहतर ऐसा शख्स है जिस की आवाज़ अगर्चे ज़्यादा अच्छी ना हो पर मखारिज़ का लिहाज़ करता हो और अल्फ़ाज़ को गदमद करने के बजाये फ़र्क़ करता हो।
अफ़्सोस सद अफ़्सोस कि इस ज़माने में हाफ़िज़ों की हालत निहायत नागुफ़्ता बह है, अक्सर तो ऐसा पढ़ते हैं कि یَعْلَمُوْنَ تَعْلَمُوْنَ के सिवा कुछ पता नहीं चलता।
अल्फ़ाज़ के हुरूफ़ खा जाया करते हैं, जो अच्छा पढ़ने वाले कहे जाते हैं उन्हें देखें तो हुरूफ़ सही नहीं अदा करते ہمزہ، الف، عین اور ذ، ز، ظ اور ث، س، ص، ت، ط वग़ैरह हुरूफ़ में तफ़र्क़ा नहीं करते जिस से क़तअन नमाज़ ही नहीं होती। फ़क़ीर (मुसन्निफ़े बहारे शरीअत) को इन्हीं मुसीबतों की वजह से तीन साल खत्मे क़ुरआन मजीद सुनाने ना मिला। मौला अज़्ज़वजल मुसलमान भाइयों को तौफ़ीक़ दे कि مَا اَنْزَلَ اللہ पढ़ने की कोशिश करें।
आजकल अक्सर रिवाज हो गया है कि हाफ़िज़ को उजरत दे कर तरावीह पढ़वाते हैं ये नाजाइज़ है। देने वाले और लेने वाला दोनों गुनाहगार हैं, उजरत सिर्फ यही नहीं कि पेश्तर मुक़र्रर कर लें कि ये लेंगे या देंगे बल्कि अगर मालूम है कि यहॉं कुछ मिलता है, अगर्चे इस से तय ना हुआ हो ये भी नाजाइज़ है कि اَلْمَعْرُوْفُ کَالْمَشْرُوْطِ हाँ अगर कह दे कि कुछ नहीं दूँगा या लूँगा फिर पढ़े और हाफ़िज़ की खिदमत करें तो इस में हर्ज नहीं कि اَلصَّرِیْحُ یُفَوِّقُ الدَّلَالَۃَ
एक इमाम दो मस्जिदों में तरावीह पढ़ाता है अगर दोनों में पूरी पढ़ाये तो नाजाइज़ है और मुक़तदी ने दो मस्जिदों में पूरी पूरी पढ़ी तो हर्ज नहीं मगर दूसरी में वित्र पढ़ना जाइज़ नहीं जब कि पहली में पढ़ चुका हो और अगर घर में तरावीह पढ़ कर मस्जिद में आया और इमामत की तो मकरूह है। -(आलमगीरी)
लोगों ने तरावीह पढ़ ली अब दोबारा पढ़ना चाहते हैं तो तन्हा तन्हा पढ़ सकते हैं, जमाअत की इजाज़त नहीं। अफ़ज़ल ये है कि एक इमाम के पीछे तरावीह पढ़ें और दो के पीछे पढ़ना चाहें तो बेहतर ये है कि पूरी तरावीह पर इमाम बदलें। मस्लन आठ एक के पीछे और 12 दूसरे के। नाबालिग के पीछे बालिगीन की तरावीह ना होगी यही सहीह है।
रमज़ान शरीफ़ में वित्र जमाअत के साथ पढ़ना अफज़ल है ख़्वाह उसी इमाम के पीछे जिस के पीछे इशा व तरावीह पढ़ी या दूसरे के पीछे। ये जाइज़ है कि एक शख्स इशा व वित्र पढ़ाये, दूसरा तरावीह। जैसा कि हज़रते उमर रदिअल्लाहु अन्हु इशा व वित्र की इमामत करते थे उबई बिन काब रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तरावीह की।
अगर सब लोगों ने इशा की जमाअत तर्क कर दी तो तरावीह भी जमाअत से ना पढ़ें, हाँ! इशा जमाअत से हुई और बाज़ को जमाअत ना मिली तो ये जमाअते तरावीह में शरीक हो। अगर इशा जमाअत से पढ़ी और तरावीह तन्हा तो वित्र की जमाअत में शरीक हो सकता है और अगर इशा तन्हा पढ़ ली अगर्चे तरावीह बा-जमाअत पढ़ी तो वित्र तन्हा पढ़े।
इशा की सुन्नतों का सलाम न फ़ेरा उसी में तरावीह मिला कर शुरू की तो तरावीह नहीं होगी। तरावीह बैठ कर पढ़ना बिला उज़्र मकरूह है, बल्कि बाज़ों के नज़दीक तो होगी ही नहीं। मुक़्तदी को ये जाइज़ नहीं कि बैठा रहे जब इमाम रुकू करने को हो तो खड़ा हो जाये कि ये मुनाफिक़ीन से मुशाबिहत है। आज कल ऐसा होता है कि पहली रकअत में पीछे रह कर बैठ जाते हैं और इन्तिज़ार करते हैं कि इमाम कब रुकूअ के लिये अल्लाहु अकबर कहे और हम शामिल हो जायें। ऐसा करना अच्छा नहीं है इस की एक बड़ी वजह ये भी है कि कई इलाक़ों में चार, दस या बारह दिनों में एक क़ुरआन मुकम्मल करने पर ज़ोर दिया जाता है और ये समझा जाता है कि बस एक क़ुरआन मुकम्मल कर लिया तो अब छुटकारा मिल गया और जब कम दिनों में एक क़ुरआन मजीद मुकम्मल तिलावत करनी होगी तो ज़ाहिर सी बात है कि इमाम को किरअत ज़्यादा करनी होगी और फिर बे-रग़बत होकर कुछ लोग ये तरीक़ा इख्तियार करते हैं कि पहली रकअत में रुकूअ तक बैठ जाऊँ ताकि कम कियाम करना पड़े ऐसा नहीं करना चाहिये।
अल्लाह अज़्ज़वजल इरशाद फरमाता है: اِذَا قَامُوْۤا اِلَى الصَّلٰوةِ قَامُوْا كُسَالٰىۙ | मुनाफिक़ जब नमाज़ को खड़े होते हैं तो थके जी से। इमाम से गलती हुई कोई सूरत या आयत छूट गई तो मुस्तहब ये है कि उसे पहले पढ़ कर फिर आगे बढ़े। दो रकअत पर बैठना भूल गया खड़ा हो गया तो जब तक तीसरी का सजदा ना किया तो बैठ जाये और सजदा कर लिया तो चार पूरी कर ले मगर ये दो शुमार की जायेंगी और जो दो पर बैठ चुका है तो चार हुई। तीन रकअत पढ़ कर सलाम फ़ेरा अगर दूसरी पर बैठा ना था तो ना हुई उन के बदले की दो रकअत फिर पढ़े।
क़ादा में मुक़्तदी सो गया इमाम सलाम फेर कर दो रकअत पढ़ कर क़ादा में आया अब ये बेदार हुआ तो अगर मालूम हो गया तो सलाम फेर कर शामिल हो जाये और इमाम के सलाम फेरने के बाद जल्द पूरी कर के इमाम के साथ हो जाये। वित्र पढ़ने के बाद लोगों को याद आया कि दो रकअतें रह गयीं तो जमाअत से पढ़ लें और आज याद आया कि कल दो रकअतें रह गयीं थी तो जमाअत से पढ़ना मकरूह है।
सलाम फेरने के बाद कोई कहता है कि दो हुई कोई कहता है कि तीन तो इमाम के इल्म में जो हो उस का ऐतबार है और इमाम को किसी बात का यक़ीन न हो तो जिस को सच्चा जानता हो उस का क़ौल ऐतबार करे। अगर इस में लोगों को शक हो कि बीस हुईं या अठारह तो दो रकअत तन्हा तन्हा पढ़ें। अगर किसी वजह से नमाज़े तरावीह फ़ासिद हो जाये तो जितना क़ुरआन मजीद उन रकअतों में पढ़ा है इआदा करें ताकि खत्म में नुक़्सान ना रहे।
अगर किसी वजह से खत्म ना हो तो सूरतों की तरावीह पढ़ें और इस के लिये बाज़ों ने ये तरीका रखा है कि اَلَمْ تَرَ كَیْفَ से आखिर तक दो बार पढ़ने में बीस रकअतें हो जायेंगी। एक बार बिस्मिल्लाह शरीफ़ जहर (बुलंद आवाज़) से पढ़ना सुन्नत है और हर सूरत की इब्तिदा में आहिस्ता पढ़ना मुस्तहब है और ये जो आज कल बाज़ जुह्हाल ने निकाला है कि 114 बार बिस्मिल्लाह जहर से पढ़े जायें वरना खत्म न होगा, मज़हबे हनफ़ी में बे-अस्ल है।
मुतखिरीन ने खत्मे तरावीह में तीन बार قُلْ هُوَ اللّٰهُ पढ़ना मुस्तहब कहा और बेहतर ये है कि ख़त्म के दिन पिछली रकअत में الٓمّٓ से اَلْمُفْلِحُوْنَ तक पढ़े।
शबीना कि एक रात की तरावीह में पूरा क़ुरआन पढ़ा जाता है, जिस तरह आज कल रिवाज है कि कोई बैठा बातें कर रहा है, कुछ लोग लेटे हैं, कुछ लोग चाय पीने में मशगूल हैं, कुछ लोग मस्जिद के बाहर हुक़्क़ा नोशी कर रहे हैं और जब जी में आया एक आध रकअत में शामिल भी हो गये, ये नाजाइज़ है।
फाइदा : हमारे इमामे आज़म रदिअल्लाहु त'आला अन्हु रमज़ान शरीफ़ में 61 ख़त्म किया करते थे, 30 दिन में और 30 रात में और एक तरावीह में और 45 बरस इशा के वुज़ू से नमाज़े फ़ज्र पढ़ी है।
शबीना तरावीह भी काफ़ी शोहरत रखती है और कई जगहों पर इस का खास एहतिमाम किया जाता है तो मुनासिब मालूम होता है कि यहाँ इस पर थोड़ी तफसील बयान की जाये। हम यहाँ फ़िक़्ह की मशहूर और मुअतबर कुतुब से इस की तफ़सील बयान करेंगे ताकि वाज़ेह तौर पर इस की शरई हैसिय्यत समझ में आ जाये।
इंशा अल्लाह इस के बाद तरावीह का बयान तकमील को पहुँचेगा और बकिया मसाइले को मुतफ़र्रिक़ात में शामिल किया जायेगा।
फ़तावा ख़लीलिया में एक सवाल शबीना तरावीह के मुतल्लिक़ किया गया कि क्या ये जाइज़ है? एक आलिम साहिब इसे नाजाइज़ कहते हैं। जवाब में तहरीर है कि शबीना कि एक रात की तरावीह में पूरा क़ुरआन पढ़ा जाता है ये फ़ी नफ़्सिही क़तअन जाइज़ व रवा है।
अकाबिर आइम्मा -ए- दिन का मामूल रहा है सलफ़े सालिहीन में बाज़ अकाबिर दिन रात में दो खत्म फ़रमाते चुनाँचे हमारे इमामे आज़म अबू हनीफ़ा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु रमज़ान में 61 क़ुरआने पाक ख़त्म किया करते, 30 रात में, 30 दिन में और एक तरावीह में लेकिन ये शबीना जिसका आज कल रिवाज है कि इमामत करने वाले आइम्मा, हरकात व हुरूफ़ बल्कि कलिमों तक को चबा जाते हैं और यालमून तालमून, वो अल्फ़ाज़ जिन पर आयत ख़त्म होती है उनके अलावा कुछ समझ नहीं आता और सुनने वाले भी इबादत बतौरे इबादत अदा नहीं करते, कुछ बैठे बातें बनाते हैं, कुछ सिगरेट नोशी और चाय नोशी में मशरूफ रहते हैं और कुछ लोग दूसरी गप शप में, ऐसे शबीने को कौन जाइज़ कह सकता है (तफ़सील के लिये फ़तावा रज़विय्या की तीसरी जिल्द और बहारे शरीअत देखिये) -(فتاوی خلیلیہ، ج1، ص321)
तफ़हीमूल मसाइल में शबीना तरावीह के बारे में सवाल किया गया कि रमज़ानुल मुबारक के अशरा -ए- आखिर में आम तौर पर तीन रोज़ा, पंज रोज़ा या हफ्त रोज़ा शबीना पढ़े जाते हैं, ये शबीना बा-जमाअत नवाफ़िल की शक्ल में पढ़े जाते हैं, क्या ये तरीक़ा शरअन दुरुस्त है?
जवाब में है कि उसूली तौर पर नवाफ़िल की जमाअत के लिये "तदायी" यानी बा-क़ाइदा ऐलान कर के और तरग़ीब दे कर बुलाना मना है क्योंकि इस से हो सकता है कि किसी खालिस नफ़्ली इबादत को लोग फ़र्ज़ो वाजिब के बराबर अहमिय्यत दें या फ़र्ज़ो वाजिब का दर्जा दें और सिर्फ़ शारे ही इस का मजाज़ है, इसीलिये एहतियात की बिना पर इस से मना किया गया है लेकिन शबीना के बारे में फ़र्ज़, वाजिब या सुन्नत का तास्सुर किसी के ज़हन में नहीं होता सब इसे नफ़्ली इबादत समझते हैं और बा-जमाअत ज़ौक़ो शौक़ के साथ शरीक होते हैं। आखिरी अशरा रमज़ानुल मुबारक में क़यामुल्लैल की स'आदत भी मिल जाती है और "शबे क़द्र" की बरकात को पाने के शौक़ की भी तस्कीन होती है। -(تفہیم المسائل، ج1، ص 201)
अनवारुल फ़तावा में नवाफिल की जमाअत और शबीना तरावीह के मुतल्लिक़ एक सवाल हुआ कि रमज़ानुल मुबारक के महीने में जो शबीना होती है तो ये शरअन जाइज़ है या नहीं?
अल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद इस्माईल हुसैन नूरानी लिखते हैं कि ऐसा शबीना जो किसी के लिये तकलीफ और परेशानी का बाइस ना हो उसके इनिक़ाद में शरअन कोई हर्ज नहीं यानी अगर लोग अपनी खुशी से इस में शरीक हों और किसी पर ज़बरदस्ती ना की जाये और बाहर के स्पीकर भी इस्तिमाल ना किये जायें तो इस के जाइज़ होने में कलाम नहीं है।
रसूलुल्लाह ﷺ का इरशाद है कि जब तुम में कोई शख्स लोगों की इमामत करे तो तख़फ़ीफ़ से काम ले। (सहीह बुखारी) इस हदीसे पाक की रौशनी में हमारे नज़दीक बेहतर ये है कि शबीना में हत्तल इम्कान ऐसे तऱीके इख्तियार किये जायें जिन में लोगों के लिये ज़्यादा आसानी हो और जमाअत में इज़ाफ़ा हो। -(انوار الفتاوی، ص 232)
इमामे अहले सुन्नत, आला हज़रत रहीमहुल्लाहु त'आला तहरीर फ़रमाते हैं कि शबीना फ़ी नफ़्सिही क़तअन जाइज़ व रवा है। अकाबिरे आइम्मा -ए- दीन का मामूल रहा है इसे हराम कहना शरीअत पर इफ्तिरा है, इमामुल आइम्मा सय्यिदुना इमामे आज़म रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने तीस बरस कामिल हर रात एक रकअत में क़ुरआने मजीद खत्म किया है।
(मज़ीद लिखते हैं कि) उलमा -ए- किराम ने फ़रमाया है सलफ़े सालिहीन में बाज़ अकाबिर दिन रात में दो खत्म फ़रमाते बाज़ चार बाज़ आठ और मीज़ानुश्शरिया इमाम अब्दुल वह्हाब शारानी में है कि सय्यिदी अली मुरसूफ़ी ने एक रात दिन में तीन लाख साठ हज़ार खत्म फ़रमाये (ये करामत थी उनकी) आसार में है कि अमीरुल मुअमिनीन मौला अली रदिअल्लाहु त'आला अन्हु बायाँ पाऊँ रिकाब में रख कर क़ुरआन मजीद शुरू फ़रमाते और दाहिना पाऊँ रिकाब तक ना पहुँचता कि कलाम शरीफ़ खत्म हो जाता।
(फिर मजीद दलाइल पेश फ़रमाने के बाद लिखते हैं कि) शबीना मज़कूरा सवाल के इन अवारिज़ से खाली था (यानी मखारिज वग़ैरह की रियायत ना करना तो) इस के जवाज़ में कोई शुब्हा नहीं (यानी ये जाइज़ है) मगर इतना ज़रूर है कि जमाअते नफ़्ल में तदायी ना हो कि मकरूह है। (فتاوی رضویہ، ج7، ص 480)
फ़तावा शरइय्या में भी शबीना तरावीह के मुतल्लिक़ सवाल किया गया कि ये जाइज़ है या नाजाइज़?
अल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद फ़ज़्ल करीम हामिदी लिखते हैं कि अगर शबीना में लोग मुन्हियात व मुन्किरात का इर्तिक़ाब ना करें तो बेशक वो जाइज़ और बाइसे अज्रो सवाब है कि कुरआने करीम के एक-एक हर्फ़ के पढ़ने पर 10 नेकियाँ लिखी जाती हैं। हदीस शरीफ में है जिस ने क़ुरआन के एक हर्फ़ को पढ़ा उसके लिए एक नेकी है और एक नेकी 10 नेकियों के बराबर है।
रावी फरमाते हैं कि सरकारे दो आलम ﷺ ने इरशाद फरमाया कि मै नही कहता हूँ कि अलिफ लाम मीम एक हर्फ़ है बल्कि अलिफ एक हर्फ़ है, लाम एक हर्फ़ और मीम एक हर्फ़ है (गोया अलिफ, लाम, मीम पढ़ने में 30 नेकियाँ लिखी जाती हैं)
शबीना पढ़ना अकाबिरीने मिल्लत से साबित है, इमामे आज़म अबू हनीफ़ा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु 30 साल तक हर रात एक खत्म क़ुरआने मजीद पढ़ते थे। जब इमाम मौसूफ़ के फेल से ये साबित है कि एक रकअत में क़ुरआन खत्म करते थे तो यक़ीनन ये शरअन जाइज़ है।
मज़ीद लिखते हैं कि जिन लोगों ने शबीना तरावीह को मकरूह लिखा है इस का मतलब ये है कि क़ारी इतनी जल्दी किरअत करे कि सुनने वालों को कुछ समझ में ना आये और सहीह अल्फ़ाज़ अदा न कर सके। आज भी बहुत से हाफ़िज़ तरावीह इस तरह पढ़ते हैं कि सिवाये यालमुना तालमूना के कुछ समझ में नहीं आता और इस तरह क़ुरआन की तिलावत नमाज़ में हो या खारिजे नमाज़ बहरहाल मकरूह है मगर ये कराहत तंजीही है ना कि तहरीमी।
अबु दाऊद, तिर्मिज़ी व इब्जे माजा में हज़रते अब्दुल्लाह इब्ने उमर रदिअल्लाहु त'आला अन्हुमा से मरवी है कि जिसने तीन रात से कम में क़ुरआने हकीम खत्म कर लिया उसने समझ कर न पढ़ा, यहॉं अफ़ज़लियत नफ़ी है ना कि जाइज़ और मकरूह बहरहाल अगर मुक्तदियो पर सुस्ती और बार न हो और वो तवज्जोह से सुन सकें और क़ारी क़ुरआने करीम को सहीह से अल्फ़ाज़ की रिआयत कर के पढ़े तो शबीना जाइज़ व दुरुस्त है। (فتاوی شرعیہ، ج1، ص 331)