वित्र वाजिब है, अगर सहवन (भूल कर) या क़स्दन (जान बूझ कर) ना पढ़ा तो क़ज़ा वाजिब है। साहिबे तरतीब के लिये मसअला अलग है कि अगर ये याद है कि वित्र की नमाज़ नहीं पढ़ी है और वक़्त है कि पढ़ लेगा तो फ़ज्र की नमाज़ फ़ासिद है चाहे शुरू में याद आये या दरमियान में याद आ जाये।
ये जान लेना ज़रूरी है कि साहिबे तरतीब कौन लोग हैं। अ़ल्लामा मुफ्ती शरीफुल हक़ अमजदी रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि साहिबे तरतीब वो है जिस के जिम्मे 5 वक़्त की नमाज़ें ना हो।
अ़ल्लामा मुफ्ती हबीबुल्लाह नईमी अशरफ़ी रहीमहुल्लाह त'आला लिखते हैं कि साहिबे तरतीब वो शख्स है जिस की वक़्ते बुलूग (यानी बालिग होने के बाद) से कोई नमाज़ क़ज़ा ही ना हुई हो और अगर हुई भी हो तो क़ज़ा पढ़ चुका हो या उस पर पाँच नमाज़ों की या इस से कम की क़ज़ा लाज़िम हो (यानी उस के ज़िम्मे 5 से ज़्यादा नमाज़ें ना हो)
अ़ल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद रुक्नुद्दीन रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि अगर किसी शख़्स की 6 नमाज़ें फ़ौत (क़ज़ा) हो जायें तो वो साहिबे तरतीब नहीं रहा और जिस की 6 से कम नमाज़ें फ़ौत हुई हैं वो साहिबे तरतीब है।
साहिबे तरतीब वो शख्स है कि जब से बालिग़ हुआ यानी जैसे ही उस पर नमाज़ फ़र्ज़ हुई उस वक़्त से ले कर कभी नमाज़ क़ज़ा नहीं की और अगर क़ज़ा हो गयी तो उसे अदा कर लिया और अब उसके ज़िम्मे 5 वक़्त से ज़्यादा नमाज़ें क़ज़ा नहीं हैं।
ऐसे शख्स के लिये कुछ मसाइल अलग हैं मुक़ाबिल उनके जो साहिबे तरतीब नहीं यहाँ बयान कर दिया गया कि साहिबे तरतीब कौन है ताकि आगे जब ये लफ्ज़ इस्तिमाल किया जाये तो समझने में परेशानी ना हो।
ऊपर वित्र के हवाले से जो मसअला बयान हुआ वो अब मज़ीद अच्छी तरह समझ मे आ जाना चाहिए कि अगर साहिबे तरतीब ने वित्र नहीं पढ़ी तो वक़्त में गुंजाइश होने पर फ़ज्र की नमाज़ फ़ासिद है यानी पहले वित्र अदा करे फिर फ़ज्र।
दो रकअ़त पर क़ादा करना यानी बैठना वाजिब है और का़दा में बस अत्तहिय्यात पढ़ कर खड़ा हो जाना है, ना दुरूद पढ़े ना सलाम फेरे जैसे मगरिब में करते हैं और अगर दूसरी रकअ़त में बैठना भूल गया तो तीसरी के लिए खड़े हो जाने के बाद लौटने की इजाज़त नहीं है बल्कि तीन पूरी करे और आखिरी में एक तरफ सलाम फेर कर दो सजदे कर ले।
वित्र की तीनों रकअ़तों में मुत्लक़न क़िरअत फ़र्ज़ है और फ़ातिहा के बाद सूरत मिलाना वाजिब है।
سَبِّحِ اسْمَ رَبِّكَ الْاَعْلَىۙ या ये पढ़े : اِنَّاۤ اَنْزَلْنَاۤ..
और दूसरी में सूरह काफ़िरुन और तीसरी में सूरह इखलास पढ़े और कभी-कभी और दूसरी सूरते भी पढ़ ले।
तीसरी रकअ़त में क़िरअत करने के बाद रुकूअ़ में जाने से पहले हाथों को कानों तक उठा कर अल्लाहु अकबर कहे जैसा कि तकबीरे तहरीमा में करते हैं फिर हाथ बाँध ले और दुआ -ए- क़ुनूत पढ़े और ये दुआ पढ़ना वाजिब है और इस में किसी खास दुआ का पढ़ना ज़रूरी नहीं है।
हुज़ूरﷺ से जो दुआयें साबित हैं उन्हेँ पढ़ा जाये और इसके इलावा कोई दुआ पढ़े तो भी हर्ज नहीं।
اَللّٰھُمَّ اِنَّا نَسْتَعِیْنُکَ وَ نَسْتَغْفِرُکَ وَ نُؤْمِنُ بِکَ وَ نَتَوَکَّلُ عَلَیْکَ وَنُثْنِیْ عَلَیْکَ الْخَیْرَ کُلَّہٗ وَنَشْکُرُکَ وَلَا نَکْفُرُکَ وَ نَخْلَعُ وَنَتْرُکُ مَنْ یَّفْجُرُکَ ط اَللّٰھُمَّ اِیَّاکَ نَعْبُدُ وَلَکَ نُصَلِّیْ وَنَسْجُدُ وَاِلَیْکَ نَسْعٰی وَنَحْفِدُ وَنَرْجُوْ رَحْمَتَکَ وَنَخْشٰی عَذَابَکَ اِنَّ عَذَابَکَ بِالْکُفَّارِ مُلْحِقٌ
बेहतर ये है कि इस दुआ के साथ ये दुआ भी पढ़े जो हुज़ूर ﷺ ने इमाम हसन रदिअल्लाहु त'आला अ़न्हु को तालीम फ़रमायी:
اَللّٰھُمَّ اھْدِنِیْ فِیْ مَنْ ھَدَیْتَ وَعَافِنِیْ فِیْ مَنْ عَافَیْتَ وَ تَوَلَّنِیْ فِیْ مَنْ تَوَلَّیْتَ وَ بَارِکْ لِیْ فِیْ مَا اَعْطَیْتَ وَقِنِیْ شَرَّ مَا قَضَیْتَ فَاِنَّکَ تَقْضِیْ وَلَا یُقْضٰی عَلَیْکَ اِنَّہٗ لَا یَذِلُّ مَنْ وَّالَیْتَ وَلَا یَعِزُّ مَنْ عَادَیْتَ تَبَارَکْتَ وَ تَعَالَیْتَ سُبْحَانَکَ رَبَّ الْبَیْتِ وَ صَلَّی اللہ عَلَی النَّبِیِّ وَاٰلِہٖ
एक दुआ वो है जो हज़रते अ़ली रदिअल्लाहु त'आला अ़न्हु से मरवी है कि हुज़ूरﷺ वित्र के आखिर में पढ़ते
اَللّٰھُمَّ اِنِّیْ اَعُوْذُ بِرَضَاکَ مِنْ سَخَطِکَ وَمُعَافَاتِکَ مِنْ عُقُوْبَتِکَ وَاَعُوْذُ بِکَ مِنْکَ لَا اُحْصِیْ ثَنَآئً عَلَیْکَ اَنْتَ کَمَا اَثْنَیْتَ عَلیٰ نَفْسِکَ
दुआ -ए- क़ुनूत में हज़रते उमर रदिअल्लाहु त'आला अ़न्हु "बिल कुफ्फारि मुल्हिक़" के बाद ये पढ़ते :
اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلِیْ وَ لِلْمُؤْمِنِیْنَ وَ الْمُؤْمِنَاتِ وَ الْمُسْلِمِیْنَ وَالْمُسْلِمَاتِ وَاَلِّفْ بَیْنَ قُلُوْبِھِمْ وَاَصْلِحْ ذَاتَ بَیْنِھِمْ وَانْصُرْھُمْ عَلٰی عَدُوِّکَ وَعَدُوِّھِمْ اَللّٰھُمَّ الْعَنْ کَفَرَۃَ اَھْلِ الْکِتَابِ الَّذِیْنَ یُکَذِّبُوْنَ رُسُلَکَ وَیُقَاتِلُوْنَ اَوْلِیَآئَکَ اَللّٰھُمَّ خَالِفْ بَیْنَ کَلِمَتِھِمْ وَزَلْزِلْ اَقْدَامَھُمْ وَاَنْزِلْ عَلَیْھِمْ بَائْسَکَ الَّذِیْ لَمْ یُرَدَّ عَنِ الْقَوْمِ الْمُجْرِمِیْنَ
दुआ -ए- क़ुनूत के बाद दुरूद शरीफ़ पढ़ना बेहतर है।
दुआ -ए- क़ुनूत आहिस्ता पढ़े चाहे इमाम हो, मुक़्तदी हो या अकेला नमाज़ पढ़ रहा हो और चाहे नमाज़ अदा हो या क़ज़ा और रमज़ान में हो या और दिनो में।
जो दुआ -ए- क़ुनूत ना पढ़ सके वो ये दुआ पढ़े :
رَبَّنَاۤ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَّ فِي الْاٰخِرَةِ حَسَنَةً وَّ قِنَا عَذَابَ النَّارِ
अगर दुआ -ए- क़ुनूत पढ़ना भूल गया और रुकूअ़ में चला गया तो ना वापस खड़ा हो और ना रुकूअ़ में दुआ -ए- क़ुनूत पढ़े।
अगर क़ियाम की तरफ़ लौट आया और क़ुनूत पढ़ा फिर रुकूअ़ ना किया तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी मगर गुनाहगार होगा और अगर सिर्फ़ फ़ातिहा पढ़ कर रुकूअ़ में चला गया था तो वापस लौटे और सूरत और क़ुनूत पढ़े फिर रुकूअ़ करे और आखिर में सजदा -ए- सहव करे यूँ ही अगर सूरतुल फातिहा भूल गया था और सूरत पढ़ ली थी फिर रुकूअ़ में चला गया तो वापस लौटे और फ़ातिहा और सूरत फिर दुआ -ए- क़ुनूत पढ़े और रुकूअ़ करे।
इमाम को रुकूअ़ में याद आया कि दुआ -ए- क़ुनूत नहीं पढ़ी थी तो क़ियाम की तरफ़ वापस ना लौटे फिर अगर खड़ा हो गया और दुआ -ए- क़ुनूत पढ़ी तो अब रुकूअ़ को नहीं दोहराना चाहिये और अगर दोहरा लिया तो मुक़्तदियों ने अगर पहले रुकूअ़ में इमाम का साथ ना दिया और दूसरे में दिया या पहले रुकूअ़ इमाम के साथ किया दूसरा ना किया तो इस दोनों हाल में नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी।
दुआ -ए- क़ुनूत में मुक़्तदी इमाम की इत्तिबा करे यानी अगर इमाम ने पहले पढ़ कर रुकूअ़ कर लिया और मुक़्तदी ने अभी मुकम्मल नहीं पढ़ा तो चाहिये कि इमाम की इत्तिबा करे और अगर इमाम ने बिना क़ुनूत पढ़े रुकूअ़ किया और मुक़्तदी ने अभी कुछ ना पढ़ा तो अगर रुकूअ़ फ़ौत होने का अंदेशा हो जब तो रुकूअ़ कर दे वरना दुआ -ए- क़ुनूत पढ़ कर रुकूअ़ करे और क़ुनूत के लिये जो दुआ मशहूर है वही पढ़ना ज़रूरी नहीं है बल्कि कोई ऐसी दुआ पढ़ ले जिसे क़ुनूत कह सकें।
अगर शक हुआ कि ये पहली रकाअ़त है या दूसरी है या तीसरी तो उस में क़ुनूत पढ़े फिर क़ाइदा करे फिर दो रकाअ़तें पढ़े और हर रकाअ़त में क़ाइदा करे और क़ुनूत पढ़े यूँ ही दूसरी और तीसरी होने में शक हो तो दोनो में क़ुनूत पढ़े।
भूल कर पहली या दुसरी रकाअ़त में क़ुनूत पढ़ ली तो तीसरी में भी पढ़े।
जो बाद में जमाअ़त में शामिल हुआ वो इमाम के साथ क़ुनूत पढ़े और बाद में ना पढ़े और अगर इमाम के साथ वित्र की तीसरी रकाअ़त के रुकूअ़ में मिला है तो बाद में जो पढ़ेगा उस में क़ुनूत ना पढ़े।
वित्र की नमाज़ शाफई के पीछे पढ़ सकता है बशर्ते कि दूसरी रकाअ़त के बाद सलाम ना फेरे वरना सहीह नहीं होगी और इस सूरत में क़ुनूत इमाम के साथ पढ़े यानी तीसरी रकाअ़त के रुकूअ़ से खड़े होने के बाद जब वो शाफई इमाम पढ़े।
फ़ज्र की नमाज़ अगर शाफई के पीछे पढ़ी और उसने अपने मज़हब के मुताबिक़ क़ुनूत पढ़ा तो ये ना पढ़े बल्कि उतनी देर तक हाथ लटकाये खड़ा रहे।
वित्र के इलावा और किसी नमाज़ में क़ुनूत ना पढ़े और अगर कोई बड़ा हादसा हो तो फ़ज्र में पढ़ सकता है और ज़ाहिर ये है कि फ़ज्र में रुकूअ़ से पहले क़ुनूत पढ़े।
वित्र की नमाज़ अगर क़ज़ा हो गयी हो तो उस को अदा करना वाजिब है अगर्चे कितना ही ज़माना गुज़र गया हो। चाहे जान बूझ कर क़ज़ा की हो या भूल कर और जब क़ज़ा पढ़े और लोगों के दरमियान हो तो क़ुनूत के लिये तकबीर ना कहे यानी हाथ ना उठाये और इसी तरह क़ुनूत पढ़े।
रमज़ान के इलावा और दिनों में वित्र जमाअ़त से ना पढ़े और अगर तदायी के लिये हो तो मकरूह है।
जिसे आखिर रात में जागने पर एतिमाद हो तो बेहतर है कि वित्र आखिरी रात में पढ़े वरना इशा के बाद पढ़ ले।
अव्वल शब में वित्र पढ़ कर सो गया तो अब रात के आखिरी हिस्से में जागने पर वित्र को दोहराना जाइज़ नहीं है, हाँ नफ्ल जितना चाहे पढ़े।
वित्र के बाद दो रकाअ़त नफ्ल पढ़ना बेहतर है जिस के बारे में रिवायतों में आता है कि अगर तहज्जुद के लिये ना उठ सका तो ये दो रकाअ़त तहज्जुद के क़ाइम मक़ाम (यानी उस की जगह) हो जायेगी।